देश की राजधानी दिल्ली से हजार और बिहार राज्य की राजधानी पटना से 250 किलोमीटर दूर स्थित सुपौल जिले के संत नगर, वार्ड नंबर 28 के दिल्ली और पंजाब में मजदूरी करने वाले 35-40 पिछड़ी जाति के परिवारों के लिए झाड़ू आजीविका का एक सशक्त माध्यम बन गया है।
झाड़ू बनाने की कला और व्यवसाय ने मुख्य रूप से मजदूरी पर निर्भर रहने वाले इस टोले के आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण को महत्वपूर्ण गति प्रदान की है।
कहानी की शुरुआत
साल 2019 में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वच्छ भारत अभियान को नया आयाम देने की कोशिश कर रहे थे, उसी वक्त संत नगर का मल्हू यानी जितेंद्र कामत झाड़ू बनाने की कला को आजीविका के स्थायी माध्यम के रूप में शुरू किया था।
32 वर्षीय जितेंद्र कामत बताते हैं, “2018 के जून या जुलाई महीने में कमाने के लिए मद्रास गया था। एक महीने काम करने के बाद पता चला कि चाचा गुजर गए हैं। वापस गांव आना पड़ा। फिर एक महीने के बाद पड़ोस के कुछ मजदूरों के साथ जयपुर गया। लगभग एक महीने रहने के बाद वापस गांव आ गया। यहां बीमार ज्यादा पड़ने लगा था। गांव में ही पिताजी की छोटी सी किराना दुकान थी। लेकिन काम करने में मन नहीं लग रहा था।”
“फिर 2019 के अप्रैल महीने में झाड़ू बनाने का दुकान शुरू किया। सहरसा जिले के नवहट्टा की तरफ से नारियल का पत्ता लाने लगा। उससे झाड़ू बनाकर सुपौल में ही भेजता था। शुरू में अकेला था। फिर आस-पड़ोस के ही 3-4 लेबरों को रखने लगा। अभी मेरी दुकान पर 13-15 आदमी काम कर रहे हैं।”
“मुझे 6 बेटी और एक बेटा है। पापा और मां मिलकर 11 लोगों का परिवार है। सभी के भरण-पोषण के अलावा ठीक-ठाक पैसा बचत भी कर लेता हूं। इसके अलावा मेरे ही टोले के 13-14 आदमी का परिवार भी हमारी दुकान से चल रहा है,” आगे जितेंद्र कामत बताते है।
बिहार से लेकर नेपाल तक बिकता है झाड़ू
जितेंद्र कामत के पिता लालो कामत दुकान पर रहने के साथ-साथ जितेंद्र के झाड़ू वाले दुकान पर भी काम करते है। वह बताते हैं, “पहले इस इलाके में नारियल के काफी पेड़ थे। लेकिन नारियल गिरने से कई लोग घायल हो जाते थे। इस वजह से नारियल के पेड़ों की कटाई शुरू हो गई, इसलिए हम लोगों को नारियल का पत्ता लाने में दिक्कत होती है। सुपौल के ही त्रिवेणीगंज हरदी इलाके से नारियल का पत्ता लाता हूं। 35-50 रुपये प्रति किलो के हिसाब से कच्चा माल यानी पत्ता मिलता है। झाड़ू भी दो-तीन तरह का बनता है। एक सस्ता वाला और एक महंगा वाला। जिसे बाजार में 30-50 रुपए और 65 रुपए की दर से बेचते हैं। पहले सहरसा, सुपौल, पूर्णिया और मधेपुरा के बाजारों तक ही सीमित था। अब तो नेपाल भी हमारा माल जाने लगा है।”
काम करने में एक भी महिला नहीं
आत्मनिर्भर भारत और स्वच्छ भारत मिशन का बेहतरीन उदाहरण पेश कर रहे सुपौल के इस कुटीर उद्योग में सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिली है। साथ ही एक चीज देखने को मिली कि लगभग काम कर रहें 30-35 मजदूरों में एक भी महिला नहीं थी।
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संत नगर निवासी 20 वर्षीय सुनील कुमार भी झाड़ू बनाने का काम करते हैं। वह बताते हैं, “मैं लगभग साल भर पहले दुकान खोला हूं। मेरे साथ भी लगभग 10-12 मजदूर काम करते हैं। घर की महिलाएं हाथ जरूर बंटाती हैं लेकिन पूर्णरूपेण दुकान पर काम नहीं करतीं। हम लोगों ने बैंक से लोन लेने की कोशिश की थी। शायद मिल भी जाता, लेकिन दौड़ना पड़ता। इसलिए कहीं और से पैसों का इंतजाम कर काम शुरू किया। अगर खुद से बनाने की कला और दुकान के लिए घर हो, तो 50 हजार रुपए में आप अपना व्यवसाय शुरू कर सकते हैं। अब तो क्षेत्रों के व्यापारियों में भी यहां बने झाड़ूओं की मांग होने लगी है।”
धनतेरस में अच्छी कमाई
पहले गांवों में झाड़ू बनाने का काम लोग हाथ से ही करते थे। नारियल के पेड़ भी पहले बहुत ज्यादा थे इस इलाके में। लेकिन नारियल के पेड़ कम और समाज विकसित होने की वजह से झाड़ू का डिमांड पहले से कम हुआ है। हालांकि आज की आधुनिक दुनिया में भी झाड़ू सस्ता एवं सुलभ संसाधन है।
धनतेरस ने इसकी महत्ता और बढ़ा दी है। मतलब अगर किसी व्यक्ति का पूरा घर प्लास्टर यानी पक्का किया हुआ है, तो भी वह धनतेरस में झाड़ू खरीद रहा है। यह पिछले तीन-चार सालों से हो रहा है। पहले धनतेरस में झाड़ू खरीदने की उतनी प्रथा नहीं थी।
“इस बार भी धनतेरस में झाड़ू की जमकर खरीदारी हुई है। धनतेरस से 5 दिन पहले इतना आर्डर आ गया था कि रात भर जग-जग कर झाड़ू बनाना पड़ा था,” झाड़ू बना रहे 45 वर्षीय मजदूर राजकुमार ने कहा।
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