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अररिया के अल-शम्स मिलिया डिग्री कॉलेज को 6 सालों से नहीं मिला सरकारी अनुदान

अल-शम्स मिलिया डिग्री कॉलेज पूर्णिया यूनिवर्सिटी से एफिलिएटेड है। राज्य सरकार एफिलिएटेड कॉलेजों को अनुदान देती है। जगदीश शर्मा ने बताया कि अल-शम्स कॉलेज के शिक्षकों को 2016 से सरकारी अनुदान नहीं मिला है।

syed jaffer imam Reported By Syed Jaffer Imam |
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अररिया बिहार के सबसे पिछड़े जिलों में से एक है। 2011 की जनगणना में अररिया की साक्षरता दर 53.53% बताई गई थी। हर साल अररिया से हज़ारों की तादाद में लोग रोज़ी रोटी के लिए बड़े शहरों का रुख करते हैं। जीरो माइल के निकट फ़ज़लाबाद रोड पर स्थित अल-शम्स मिलिया डिग्री कॉलेज जिले के छह एफिलिएटेड महाविद्यालयों में से एक है। जिले में दो कांस्टूएंट महाविद्यालय भी मौजूद हैं।

शहर के मुख्यालय से थोड़ी दूरी पर बना अल-शम्स मिलिया डिग्री कॉलेज में क्या चल रहा है, यह जानने हम कॉलेज पहुंचे। कॉलेज जाने की एक बड़ी वजह यह थी कि इसके बारे में यह बात मशहूर है कि परिसर में मवेशी चरने आते हैं जबकि विद्यार्थियों की संख्या न के बराबर होती है। शाम के समय जब हम कॉलेज पहुंचे तो कॉलेज परिसर में कुछ गायें चरती हुई दिखीं। चूँकि शाम का समय था इसलिए शिक्षक और कॉलेज के दूसरे कर्मचारी अपने कॉलेज से बाहर निकल रहे थे। हमने उनमें से कुछ शिक्षकों से बात की।

Animals grazing in al shams millia degree college


कॉलेज में पढ़ने क्यों नहीं आ रहे अधिकतर छात्र

प्रोफेसर जगदीश प्रसाद शर्मा अल-शम्स मिलिया कॉलेज में कॉमर्स के शिक्षक हैं। उन्होंने बताया कि इस डिग्री कॉलेज में छात्रों की संख्या डेढ़ हज़ार से अधिक है, लेकिन कॉलेज में पढ़ने आने वाले छात्रों की संख्या बहुत अधिक नहीं हैं। उनके अनुसार, रोज़ाना आने वाले विद्यार्थियों में लड़कियों की संख्या लड़कों से काफी अधिक है।

“यहाँ ज्यादा एडमिशन लड़कियों का है। एडमिशन का अनुपात अगर देखें तो 55 और 45 का है। इसका कारण हो सकता है कि लड़कों में रूचि कम है। वे मैट्रिक कर के आगे नहीं पढ़ना चाहते हैं। काम के लिए सब बाहर चले जाते हैं, पलायन कर जाते हैं। यह बाढ़ प्रभावित क्षेत्र है, पिछड़ा इलाका है इसलिए यहाँ काफ़ी सारी दिक्कतें हैं,” जगदीश प्रसाद शर्मा कहते हैं।

उन्होंने आगे कहा कि कॉलेज में सारे शिक्षक मौजूद रहते हैं लेकिन पढ़ने के लिए ज़्यादा छात्र नहीं आते। “हम तो बच्चों से यही अपील करेंगे कि वे आएं। हम तो शिक्षा देने के लिए तत्पर रहते हैं। भले वो कोई काम करें, शिक्षित ज़रूर हों। शिक्षा अनिवार्य है। शिक्षित होकर एक इंसान जितना अच्छे से काम कर पाएगा, अशिक्षित रह कर नहीं कर पाएगा,” जगदीश ने कहा।

“पेट बांधकर कर रहे काम”

अल-शम्स मिलिया डिग्री कॉलेज पूर्णिया यूनिवर्सिटी से एफिलिएटेड है। राज्य सरकार एफिलिएटेड कॉलेजों को अनुदान देती है। जगदीश शर्मा ने बताया कि अल-शम्स कॉलेज के शिक्षकों को 2016 से सरकारी अनुदान नहीं मिला है।

उन्होंने कहा, “सरकार 2008 से प्रत्येक छात्र की उत्तीर्णता के आधार पर अनुदान के रूप में हमें राशि देती है। हम लोगों को 2015 तक की राशि मिली है और अभी 2023 चल रहा है। अनुदान दे रहे हैं तो समय पर तो दीजिये। इसमें हम लोग क्या कर सकते हैं। हम लोग तो पेट बाँध कर काम कर रहे हैं। बिहार में 70% छात्रों की शिक्षा संबद्ध कॉलेजों से पूरी होती है और बाकी 30% संघटक कॉलेजों से।”

बता दें कि सरकार एफिलिएटेड कॉलेज के प्रोफेसरों को डिग्री कोर्स समाप्त करने वाले छात्रों की संख्या के आधार पर अनुदान की राशि देती है। इसमें पहले और दूसरे वर्ष में पढ़ने वाले छात्रों को जोड़ा नहीं जाता। जगदीश शर्मा कहते हैं कि सरकार का यह नियम शिक्षकों के साथ अन्याय है क्योंकि पहले और दूसरे वर्ष के मुकाबले तीसरे वर्ष में उत्तीर्ण होने वाले छात्रों की संख्या कम रहती है।

अनुदान वितरण नीति पर जगदीश कहते हैं, “हम भी वही काम करते हैं जो संघटक कॉलेजों के प्रोफेसर करते हैं लेकिन बिहार सरकार की दोहरी नीति है। यूनिवर्सिटी में भी हम लोगों के साथ सौतेलापन का व्यवहार होता है, इसलिए कि पैसा हमें नहीं मिलता है तो उनकी नज़र में हम अच्छे नहीं हैं। आज हमको पैसा मिलना शुरू हो जाए तो हम भी गिनती में आ जाएंगे कि प्रोफ़ेसर हैं। लेकिन, सरकार को बस रिकॉर्ड चाहिए। सरकार का 70% कोटा हमलोग पूरा करते हैं।”

इतिहास के प्रोफेसर अब्दुल मन्नान ने बताया कि वह 1988 से इस कॉलेज में पढ़ा रहे हैं। सरकार ने 2008 से 2015 तक अनुदान दिया है, 2016 का अनुदान आया है लेकिन अभी बंटा नहीं है। उन्होंने आगे कहा कि सरकार संघटक (कोंस्टीटूएंट) कॉलेजों की तरह उनसे रोज़ाना हाजिरी लेती है लेकिन अनुदान केवल पास हुए बच्चों के आधार पर दिया जाता है। संघटक कॉलेज के प्रोफेसर को लाख-लाख रुपये मिलते हैं और हम एफिलिएटेड कॉलेज वालों का 10-15 हज़ार होता है। सरकार अगर रोज़ाना हाज़री लेती है तो एफिलिएटेड कॉलेजों का वेतन क्यों नहीं बांध देती।

“हम लोग को जब पासिंग के आधार पर पैसा दिया जाता है तो हम लोग से हर दिन हाजिरी क्यों लिया जाता है? जब रोज़ाना हाजिरी लिया जाता है तो छात्र पास करें न करें हमें छात्र की संख्या के आधार पर पैसा मिलना चाहिए। पहले वर्ष में 700 बच्चा एडमिशन लिया तो हमको 700 बच्चों का अनुदान मिलना चाहिए। हमारी तो यह मांग है कि सरकार हम लोगों का वेतन बांध दे,” अब्दुल ने कहा।

विधानसभा में AIMIM विधायक ने उठाया अनुदान का मुद्दा

AIMIM प्रदेश अध्यक्ष सह अमौर विधायक अख्तरुल ईमान ने बीते 11 जुलाई को बिहार विधानसभा में अनुदान का मुद्दा उठाया था। उन्होंने शिक्षा मंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर से पूछा कि जब कॉलेजों को छात्र/छात्राओं की उत्तीर्णता के आधार पर अनुदान मिलता है और उसी राशि से शिक्षकों और कर्मचारियों को वेतन भुगतान किया जाता है तो 2017 से उन्हें अनुदान क्यों नहीं दिया गया है।

अख्तरुल ईमान ने विधानसभा में यह भी बताया कि कई विश्वविद्यालयों ने राज्य सरकार को अनुदान प्रस्ताव नहीं भेजा है। उन्होंने शिक्षा मंत्री से सवाल किया कि इन महाविद्यालयों पर सरकार क्या कार्रवाई करेगी ?

शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने इसके जवाब में कहा, “महाविद्यालय से आवेदन मिलने पर विश्वविद्यालय अनुदान प्रस्ताव विभाग को भेजता है। संबद्ध महाविद्यालयों को ऑनलाइन आवेदन देने के लिए प्रशिक्षण दिया गया है। 2015-18 के बाद के सत्रों के लिए एफिलिएटेड कॉलेजों से लगातार प्रस्ताव प्राप्त कर नियमानुसार कार्रवाई की जाएगी।”

“हम भिखारी के जैसे घर से खाकर पढ़ाने आते हैं”

प्रोफेसर राम सेवक राय अल-शम्स कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं। उन्होंने कहा कि एक तो कई सालों का अनुदान नहीं मिला है और ऊपर से एक समस्या यह है कि अनुदान की राशि जो 2008 में तय की गई थी वही राशि अभी तक चली आ रही है। इतने सालों में महंगाई बढ़ने के बावजूद अनुदान की राशि नहीं बढ़ाई गई है।

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“बार बार सरकार से अनुरोध किये, फिर भी सरकार हमलोगों की तरफ कुछ ध्यान नहीं दे रही है। हमारे यहाँ से जो पास कर के गया है वह आज आईएएस और आईपीएस अफ़सर बन रहा है और हम लोग जैसे के तैसे हैं। भिखारी के जैसे अपने घर से खाकर आते हैं और 4 बजे अपने घर जाते हैं। जो बच्चे आते हैं उन्हें हमलोग समय पूर्वक पढ़ाते हैं।”

कॉलेज, शिक्षक और छात्र पर क्या बोले प्राचार्य

अल-शम्स मिलिया डिग्री कॉलेज के प्राचार्य (प्रिंसिपल) और मनोविज्ञान विभाग के प्रमुख इबरार अहमद सिद्दीक़ी ने बताया कि कॉलेज में कुल 1500 के करीब छात्र छात्राएं नामांकित हैं जिनमें 200 से 250 रोज़ाना कॉलेज आते हैं। रोज़ाना कॉलेज आने वालों में 65% छात्राएं होती हैं।

कॉलेज में रोज़ाना आने वाले छात्रों की संख्या कम होने के सवाल पर उन्होंने कहा कि छात्रों की उपस्थिति के लिए कॉलेज में नियम नहीं है। चूँकि, सरकार से कोई ऐसी मदद नहीं मिलती इसलिए अनिवार्य उपस्थिति जैसा नियम बनाना मुमकिन नहीं हो पाता।

इबरार सिद्दीक़ी ने आगे बताया कि इस महाविद्यालय में कुल 19 प्रोफेसर और 24 गैर शिक्षण कर्मचारी हैं। इस समय कॉलेज में कला और वाणिज्य के डिग्री कोर्स कराए जा रहे हैं लेकिन भविष्य में कॉलेज प्रबंधन द्वारा विज्ञान और बीएड के कोर्स भी शुरू करने का प्रयास किया जा रहा है।

नई शिक्षा नीति के अधीन ऑनलाइन प्रवेश में समस्या

ऑनलाइन एडमिशन प्रक्रिया के बारे में उन्होंने कहा कि नई शिक्षा नीति के अनुसार प्रवेश प्रक्रिया ऑनलाइन होने से एक दिक्कत यह आ रही है कि दूसरे जिलों के बच्चों के भी नाम इसी कॉलेज में निकल आते हैं। ऐसा होने से छात्र केवल परीक्षा देने ही कॉलेज आ पाते हैं। उनके अनुसार, हर साल 20% ऐसे छात्र नामांकित होते हैं जो अररिया के बाहर के होते हैं।

अल-शम्स डिग्री कॉलेज 1985 में शुरू किया गया था। इबरार सिद्दीक़ी का कहना है कि महाविद्यालय मुस्लिम अल्पसंख्यक है लेकिन अल्पसंख्यक मंत्रालय इसके लिए कोई मदद मुहैया नहीं करता। “सबसे पहले यहाँ ज़रूरत है कि सुचारू रूप से पढ़ाई शुरू हो और साथ ही साथ यहाँ के कर्मचारियों पर ध्यान दिया जाए। शिक्षक अगर रोज़ाना आ रहे हैं, अपना समय दे रहे हैं तो उन्हें सरकार से नियमित तौर पर राशि मिलनी चाहिए। हमारे इलाके में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है। अगर यहाँ शिक्षा पर सच्चे ढंग से काम किया जाए तो यहाँ के बच्चे बहुत आगे जाएंगे।”

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सैयद जाफ़र इमाम किशनगंज से तालुक़ रखते हैं। इन्होंने हिमालयन यूनिवर्सिटी से जन संचार एवं पत्रकारिता में ग्रैजूएशन करने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया से हिंदी पत्रकारिता (पीजी) की पढ़ाई की। 'मैं मीडिया' के लिए सीमांचल के खेल-कूद और ऐतिहासिक इतिवृत्त पर खबरें लिख रहे हैं। इससे पहले इन्होंने Opoyi, Scribblers India, Swantree Foundation, Public Vichar जैसे संस्थानों में काम किया है। इनकी पुस्तक "A Panic Attack on The Subway" जुलाई 2021 में प्रकाशित हुई थी। यह जाफ़र के तखल्लूस के साथ 'हिंदुस्तानी' भाषा में ग़ज़ल कहते हैं और समय मिलने पर इंटरनेट पर शॉर्ट फिल्में बनाना पसंद करते हैं।

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