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कटिहार और अररिया के स्कूलों में नामांकित बच्चों में से 50% भी नहीं आते स्कूल

अररिया, कटिहार के सर्वेक्षण किये गये स्कूलों में से प्राथमिक विद्यालयों में आवश्यक संख्या के मुकाबले 67% शिक्षक कार्यरत हैं। उच्च प्राथमिक विद्यालयों की हालत और बुरी है। आवश्यक संख्या के मुकाबले केवल 41% शिक्षक उच्च प्राथमिक विद्यालयों में काम कर रहे हैं। वहीं, सर्वेक्षण के दिन प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्त शिक्षकों में से 63% शिक्षक स्कूल परिसर में पाए गए जबकि उच्च प्राथमिक स्कूलों में केवल 55% मौजूद मिले ।

syed jaffer imam Reported By Syed Jaffer Imam |
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makeshift school

कोविड-19 के बाद से सरकारी स्कूलों में जो पढ़ाई लिखाई पर ब्रेक लगा था उसका असर अब भी देखा जा रहा है। प्रथम लॉकडाउन के 3 साल बाद भी स्कूलों की पढ़ाई लिखाई की व्यवस्था मुकम्मल तौर पर पटरी पर नहीं आ सकी है। अक्सर स्कूलों में नामांकित बच्चों में 50% भी स्कूल नहीं आते।


यह खुलासा जन जागरण शक्ति संगठन (जेजेएसएस) नामक गैर-लाभकारी संस्था की ओर से कटिहार और अररिया जिले के सरकारी विद्यालयों पर किये गये एक सर्वेक्षण में हुआ है।

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“बच्चे कहाँ हैं” शीर्षक के साथ छपी इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए कटिहार और अररिया जिले के कुल 81 सरकारी स्कूलों का सर्वेक्षण किया गया, जिनमें 40 प्राथमिक और 41 उच्च प्राथमिक स्कूल शामिल हैं।


सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस दिन सर्वेक्षण किया गया उस दिन सरकारी स्कूलों में नामांकित बच्चों में से केवल 20% बच्चे ही उपस्थित थे।

इस रिपोर्ट पर अर्थशास्त्री द्रेज़ ने क्या कहा

इस रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ ने कहा कि बिहार में शिक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण और कोई मुद्दा नहीं हो सकता।

उन्होंने सरकारी स्कूलों की बदहाली के कुछ कारण भी बताए। उनके अनुसार, सरकारी स्कूलों में पढ़ाई न होना, प्राइवेट ट्यूशन, डीबीटी व्यवस्था जैसी चीज़ों से सरकारी स्कूलों की बदहाली बढ़ती चली जा रही है।

ज्यां द्रेज़ ने आगे कहा कि डीबीटी व्यवस्था से पढ़ाई का बहुत नुकसान हुआ है। “समय पर बच्चों को पुस्तकें नहीं मिल पाती हैं और प्राथमिक विद्यालयों में ध्यान कम दिया जा रहा है,” उन्होंने कहा।

उन्होंने बीते दिनों स्कूली समय पर निजी कोचिंग सेंटर बंद रखने के फैसले को सही बताया और कहा कि बिहार में शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए सामाजिक चेतना की जरूरत है।

शिक्षकों की कमी

सरकारी नियम के अनुसार, कक्षाओं में हर 30 छात्रों पर 1 शिक्षक होना चाहिए। मगर, सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक, दो-तिहाई प्राथमिक स्कूल और लगभग सभी उच्च-प्राथमिक स्कूलों में छात्र-शिक्षकों का अनुपात 30 से ऊपर है। सर्वेक्षण में शामिल कुल 40 प्राथमिक स्कूलों में औसतन 147 छात्र नामांकित हैं और उच्च प्राथमिक स्कूलों में 488 छात्र नामांकित हैं। छात्र/शिक्षक अनुपात की बात की जाए, तो प्राथमिक स्कूलों में हर 43 छात्रों के लिए एक शिक्षक है। वहीं, उच्च प्राथमिक स्कूलों में हर 57 छात्रों पर एक शिक्षक कार्यरत है।

40 प्राथमिक विद्यालयों (1-5 कक्षा) में औसतन 4 शिक्षक हैं, जबकि उच्च प्राथमिक विद्यालयों (1-8 कक्षा) में 9 शिक्षक पाए गए। अगर किसी प्राथमिक विद्यालय में 4 शिक्षक हैं, तो हर समय एक कक्षा ऐसी होती है, जहाँ कोई शिक्षक उपस्थित नहीं होता। सर्वेक्षण में शामिल सभी 81 स्कूलों में से 71% स्कूल ऐसे पाए गए, जिनका PTR यानी छात्र-शिक्षक अनुपात 30 से अधिक था।

अररिया, कटिहार के सर्वेक्षण किये गये स्कूलों में से प्राथमिक विद्यालयों में आवश्यक संख्या के मुकाबले 67% शिक्षक कार्यरत हैं। उच्च प्राथमिक विद्यालयों की हालत और बुरी है। आवश्यक संख्या के मुकाबले केवल 41% शिक्षक उच्च प्राथमिक विद्यालयों में काम कर रहे हैं। वहीं, सर्वेक्षण के दिन प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्त शिक्षकों में से 63% शिक्षक स्कूल परिसर में पाए गए जबकि उच्च प्राथमिक स्कूलों में केवल 55% मौजूद मिले ।

इस रिपोर्ट में शिक्षकों को लेकर एक उत्साहपूर्ण आंकड़ा यह है कि सर्वेक्षण में शामिल स्कूलों में 40% से अधिक शिक्षक महिलाएं हैं।

20% प्राथमिक विद्यालयों में शौचालय नहीं

सर्वेक्षण में अधिकांश स्कूलों में बने शौचालयों की हालत ‘खराब’ श्रेणी में रखी गई। कई स्कूल ऐसे थे जहां महिला और पुरुष के लिए अलग शौचालय न होकर एक ही शौचालय था। प्राथमिक विद्यालयों में 20% ऐसे विद्यालय हैं, जहां शौचालय है ही नहीं। उच्च प्राथमिक विद्यालयों में यह प्रतिशत 17 तक पहुँचती है।

पानी की उपलब्धता के मामले में प्राथमिक स्कूलों की हालत दयनीय कही जा सकती है। रिपोर्ट के अनुसार, केवल 8% प्राथमिक स्कूलों में पानी को ‘अच्छा’ कहा जा सकता था। उच्च प्राथमिक स्कूलों में हालत बेहतर पाई गई जहां 50% से कम ऐसे स्कूल पाए गए जहां पानी की आपूर्ति को ‘अच्छा’ कहा जा सकता था।

इस रिपोर्ट में अररिया जिले के संथाली टोला गांव के एक प्राथमिक स्कूल का ज़िक्र है। स्कूल जाने के लिए कोई सड़क मार्ग नहीं है। पढ़ाई करने आने वाले छात्र खेत से होकर स्कूल आते हैं। यह स्कूल अनुसूचित जनजाति के लिए बनाया गया था। ये लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से हाशिए पर हैं। इस स्कूल का भवन जर्जर हो चुका है। स्कूल में मात्र दो शिक्षक कार्यरत हैं। बच्चे बोरा बिछाकर बैठते हैं। पूरे स्कूल में एक फर्नीचर था, जो शिक्षकों ने खरीद कर रखा था।

शिक्षकों का कहना है कि मध्याह्न भोजन की राशि अप्रयाप्त होने के कारण वे अपनी जेब से पैसे खर्च करते हैं। पक्की सड़क न होने के कारण बरसात के दिनों में स्कूल का निचला हिस्सा पानी में डूब जाता है जिससे बच्चे नहीं आ पाते।

बच्चों की उपस्थिति में कमी

सर्वेक्षण में शामिल प्राथमिक विद्यालयों में रजिस्टर के आधार पर छात्रों की उपस्थिति 44% से भी कम थी। प्रत्यक्ष गिनती करने पर छात्रों की संख्या 30% पाई गई। उच्च प्राथमिक स्कूलों में रजिस्टर पर 40% छात्रों की उपस्थिति थी जबकि प्रत्यक्ष गिनती करने पर 26% छात्र ही मौजूद थे।

मध्याह्न भोजन की अपर्याप्तता

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत सरकारी प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को गर्म पका हुआ, पौष्टिक खाना खिलाने का प्रावधान है। कटिहार और अररिया के 81 सरकारी स्कूलों के सर्वेक्षण में आए नतीजे बताते हैं कि राज्य के स्कूलों में खासकर सीमांचल के स्कूलों में काफी सुधार की आवश्यकता है।

सर्वेक्षण में शामिल 81 स्कूलों में से 20% में मध्याह्न भोजन के लिए आवंटित धनराशि नहीं मिलने की शिकायत मिली। कई स्कूलों में खाना पकाने के लिए सफाई और पानी की आपूर्ति में कमी है। कई ऐसे भी स्कूल हैं, जिनके रसोई घर में शेड तक नहीं है।

बता दें कि राज्य में फिलहाल मध्याह्न भोजन दो प्रणालियों के तहत चल रहा है। कुछ स्कूलों में बच्चों का खाना एनजीओ द्वारा बनाया जाता है जबकि कुछ स्कूल ऐसे हैं जहाँ स्कूल परिसर में ही मध्याह्न भोजन तैयार किया जाता है।

डीबीटी लाभ या नुकसान ?

वर्ष 2017 में केंद्र सरकार के कहने पर बिहार सरकार ने छात्रों के पोशाक और पुस्तकों के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) लागू की गयी है। इससे पहले शिक्षा विभाग बच्चों को सीधे पोशाक और पाठ्यपुस्तक प्रदान करता है। नियम में बदलाव के बाद अब छात्रों के बैंक अकाउंट में पोशाक और पाठ्यपुस्तक की राशि भेजी जाती है।

सर्वेक्षण में शामिल कई स्कूलों में ऐसे दर्जनों छात्र पाए गए जिनके पास स्कूली पोशाक नहीं थे। कइयों के पास पाठ्यपुस्तक भी नहीं थी। कई बार ऐसा भी होता है कि जब छात्रों के पोशाक और पाठ्यपुस्तक न खरीद कर घर वाले डीबीटी राशि को किसी और जरूरत पूरी करने में खर्च कर देते हैं।

बता दें कि डीबीटी राशि के लिए 75% स्कूल उपस्थिति की शर्त होती है। यह राशि बच्चों या उनके मां/बाप के बैंक अकाउंट में भेजी जाती है जो आधार कार्ड से लिंक हो।

प्राइवेट ट्यूशन का बढ़ता प्रभाव

रिपोर्ट में निजी ट्यूशन और कोचिंग सेंटर के बढ़ते प्रभाव पर भी बात की गई है। सर्वेक्षण के दौरान पाया गया कि कई छात्र स्कूल देरी से पहुंचे थे क्योंकि उनके निजी ट्यूशन का समय स्कूल से टकरा रहा था। कई ऐसे बच्चे भी थे, जो मध्याह्न भोजन कर प्राइवेट ट्यूशन के लिए निकल गए थे। निजी कोचिंग सेंटर और ट्यूशन पर निर्भरता बढ़ने से सामाजिक असमानता बढ़ने की आशंका उत्पन्न होती है।

रिपोर्ट में इसको लेकर लिखा गया, “ख़राब सरकारी स्कूलों और निजी ट्यूशन के बीच एक गठजोड़ बन गया है, जहां स्कूल की भूमिका केवल दोपहर का भोजन उपलब्ध कराने और परीक्षाओं की व्यवस्था करने तक ही सीमित रह गई है।”

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सैयद जाफ़र इमाम किशनगंज से तालुक़ रखते हैं। इन्होंने हिमालयन यूनिवर्सिटी से जन संचार एवं पत्रकारिता में ग्रैजूएशन करने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया से हिंदी पत्रकारिता (पीजी) की पढ़ाई की। 'मैं मीडिया' के लिए सीमांचल के खेल-कूद और ऐतिहासिक इतिवृत्त पर खबरें लिख रहे हैं। इससे पहले इन्होंने Opoyi, Scribblers India, Swantree Foundation, Public Vichar जैसे संस्थानों में काम किया है। इनकी पुस्तक "A Panic Attack on The Subway" जुलाई 2021 में प्रकाशित हुई थी। यह जाफ़र के तखल्लूस के साथ 'हिंदुस्तानी' भाषा में ग़ज़ल कहते हैं और समय मिलने पर इंटरनेट पर शॉर्ट फिल्में बनाना पसंद करते हैं।

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