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किशनगंज: नशे के दलदल में फँसकर बर्बाद होती नौजवान पीढ़ी

syed jaffer imam Reported By Syed Jaffer Imam |
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महज 12 वर्ष की आयु में चिंटू (बदला हुआ नाम) स्मैक के नशे का शिकार हो चुका है। पेशे से दिहाड़ी मजदूर चिंटू के पिता इस बात से बहुत चिंतित हैं, लेकिन लोकलाज के भय से वह उसे नशा मुक्ति केंद्र भी नहीं भेज पा रहे। “चिंटू को नशा मुक्ति केंद्र भेजने पर उसके चरित्र पर एक ऐसा धब्बा लग जाएगा, जो उसके जीवन को और कठिन बना देगा,” चिंटू के पिता कहते हैं।

चिंटू अकेला व्यक्ति नहीं है, जो नशे का शिकार है। किशनगंज शहर के दर्जनों बच्चे इस नशे की जद में आ चुके हैं। लेकिन, इनमें से कुछ बच्चे ही नशा मुक्ति केंद्रों तक पहुंच पा रहे हैं, क्योंकि चिंटू के पिता की तरह उनके भी अभिभावक को लगता है कि नशा मुक्ति केंद्र जाने से उनकी प्रतिष्ठा पर कलंक लग जाएगा।

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किशनगंज जैसे छोटे शहर में स्मैक का नशा बहुत तेजी से फैल चुका है। मैं मीडिया ने जब नशा करने वाले लोगों की तलाश शुरू की, तो हर बस्ती से दर्जनों लोगों का नाम उजागर हुआ। मैं मीडिया ने उनसे बात करने की कोशिश की, लेकिन ज्यादातर ने बातचीत करने से इनकार कर दिया। कुछ लोग तैयार हुए, लेकिन नाम और इनके मोहल्ले का नाम नहीं छापने की शर्त पर।


20 वर्षीय कामिल (बदला हुआ नाम) पिछले दो सालो में तीन बार थाने का चक्कर लगा चुका है। घर वालों ने उसे नशा मुक्ति केंद्र भेजा। वहां वह तीन महीने रहा और नशे की लत से लगभग दूर हो गया, लेकिन वहां से लौटते ही वह दोबारा नशेड़ियों की सोहबत में आकर फिर नशे की गिरफ्त में चला गया। अभी वह अपने घर पर ही रहता है और उसने मैं मीडिया से कहा कि उसने नशा छोड़ दिया है।

कामिल नशे के संपर्क में तब आया था जब उसकी 8वीं की परीक्षा चल रही थी। नशे की लत लगने के बाद पढ़ाई लिखाई सब छूट गयी। आज तीन साल बाद भी कामिल स्कूल की तरफ दोबारा नहीं लौट सका। पढ़ाई के बारे में पूछने पर उसने कहा, “अब काम सीख रहा हूं, घर में पैसे की जरूरत है।”

कामिल के उम्र के कई लड़के नशा मुक्ति केंद्र जा चुके हैं। कुछ तो ठीक हो गए, लेकिन ज्यादातर आज भी इस दलदल से बाहर नहीं आ सके हैं। इस कच्ची उम्र के पक्का नशा करने वाले लड़कों में चोरी करने की प्रवृत्ति भी अक्सर देखी जाती है क्योंकि इन्हें नशीला पदार्थ खरीदने के लिए पैसा चाहिए। नशा नहीं मिलने पर कितने ही लड़कों ने चोरी-छिपे घर का सामान तक बेच दिया।


यह भी पढ़ें: दवा दुकान की आड़ में चल रहा नशे का कारोबार


रंजीत (बदला हुआ नाम) एक गैरेज में काम करता है। बीते दिनों उसे भी कुछ दोस्तों ने डेंड्राइट और स्मैक का नशा लगा दिया था। दो बार पुलिस के हत्थे चढ़ने के बाद 22 वर्षीय रंजीत आज नशे से दूर होने की कोशिश कर रहा है। उसकी मानें, तो उसका नशा ज्यादा गहरा नहीं था। उसने दो महीने पहले नशा न करने की ठानी और आज उसका जीवन धीरे-धीरे पटरी पर लौट रहा है।

नशे के शिकार लोग गरीब, नशा मुक्ति केंद्र महंगा

शाबाज (बदला हुआ नाम) को कुछ दिन पहले लोहे का रॉड चोरी करने के आरोप में पकड़ा गया था। सामान के मालिक ने शाबाज को पीटा और घर वालों को बुलाया। घरवालों ने मिन्नतें कर किसी तरह अपने बेटे को सुरक्षित घर लाया। इस घटना के अगले ही दिन फिर शाबाज कहीं चोरी करता हुआ पकड़ा गया। शाबाज के घर वाले अपने बच्चे के चोरी और नशे की आदत से बेहद परेशान हैं।

उसके पिता उसे नशा मुक्ति केंद्र भेजना भी चाहते हैं, लेकिन नशा मुक्ति केंद्र में मासिक फीस इतनी ज्यादा है कि वह अफोर्ड नहीं कर सकते है। ऐसे में जो फीस अफोर्ड कर सकते हैं उन्हें पड़ोसी जिला पूर्णिया, पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी या रायगंज का रुख करना पड़ता है।

अपनी गरीबी का हवाला देते हुए उनके पिता ने कहा, “5,000 रुपए हर महीने देना होता है। इतनी रकम हम कहां से लाएंगे?”

नशे की चंगुल में आए अधिकतर लोग दिहाड़ी मजदूर या छोटे मोटे काम करने वाले होते हैं। उनके पास इतने पैसे नहीं होते कि नशा मुक्ति केंद्र का खर्च उठा सकें।

31 वर्ष सलीम (बदला हुआ नाम) दो साल से पूरी तरह से स्मैक के नशे से दूर हैं। उनके मुताबिक, स्मैक का नशा उन लोगों को तुरंत चपेट में ले लेता है, जो लोग अपने परिवार से ज्यादा नजदीकी रिश्ते नहीं रखते।

3 बच्चों के पिता सलीम भी नशा मुक्ति केंद्र जाकर ही ठीक हुए। लेकिन उनके जैसा खुशनसीब हर कोई नहीं होता। कई मामलों में यह भी देखने को मिल रहा है कि नशा मुक्ति केंद्र से लौटने के बाद भी बहुत सारे युवा दोबारा नशे के चंगुल में फंस जाते हैं।

मैं मीडिया ने सिलीगुड़ी स्थित एक नशा मुक्ति केंद्र से संपर्क किया। “होप” नामक नशा मुक्ति केंद्र के संचालक ने बताया कि उनकी संस्था एक गैर-लाभकारी संस्था है जहां रहना तो नि:शुल्क है, लेकिन मरीज को दवाई का खर्च देना होता है। संचालक ने कहा, “यहां 10,000 रुपए प्रवेश शुल्क और दवाइयों के लिए 5,000 मासिक खर्च देना होता है।” सीमांचल के बाकी नशा मुक्ति केंद्र में भी लगभग यही मॉडल चल रहा है।

सीमांचल जैसे पिछड़े इलाके में हर महीने सिर्फ दवा पर 5000 रुपए खर्च करना किसी गरीब या निम्न मध्यवर्गीय वर्ग परिवार के लिए बहुत मुश्किल है।

सरकारी नशा मुक्ति केंद्र खाली

हालांकि ऐसा नहीं है कि सरकारी नशा मुक्ति केंद्र किशनगंज में नहीं है। सरकारी आदेश के मुताबिक हर सरकारी अस्पताल में नशा मुक्ति केंद्र होना चाहिए और ऐसा है भी, लेकिन मरीज वहां तक पहुंच नहीं पाते।

मैं मीडिया जब किशनगंज के सदर अस्पताल पहुंचा, तो वहां के नशा मुक्ति केंद्र में ताला लगा मिला। आस-पास कोई भी अधिकारी मौजूद नहीं था। अस्पताल के उप अधीक्षक डॉ. अनवर हुसैन से बात करने पर पता चला कि 6 महीने से अस्पताल में स्थित नशा मुक्ति केंद्र में किसी भी मरीज की भर्ती नहीं हुई है।

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इसका कारण पूछने पर डॉ. अनवर ने आशंका जताई कि शायद जानकारी के अभाव के कारण लोग अस्पताल के नशा मुक्ति केंद्र में बहुत कम आते हैं। उन्होंने आगे बताया कि अस्पताल के नशा मुक्ति केंद्र में किसी नशे के मरीज के आने पर अस्पताल के ओपीडी में सबसे पहले मरीज की जांच की जाती है। जांच की रिपोर्ट के आधार पर फैसला लिया जाता है कि मरीज को भर्ती करने की आवश्यकता है या नहीं। डॉ. अनवर के अनुसार अगर आज कोई नशे से ग्रसित मरीज अस्पताल आए, तो प्रक्रिया पूरी कर उनकी भर्ती की जा सकती है।

आखिर क्या है स्मैक और क्यों हो रहा पॉपुलर

स्मैक, जिसे काला हेरोइन भी कहते हैं, एक किस्म का ओपियोइड ड्रग होता है। यह पदार्थ पोस्ता के फूल से निकाला जाता है। इसकी लत लगने पर शरीर में काफी अलग अलग अप्राकृतिक प्रभाव देखने को मिलते हैं।

स्मैक का नशा करने वालों में कई लक्षण दिखते हैं, जैसे सुस्ती, मतिभ्रम, भटकाव, परिवार से कटाव आदि।

चूंकि स्मैक पेनकिलर जैसा काम करता है इसलिए इसकी आदत पड़ जाने के बाद न मिलने पर शरीर के अलग अलग हिस्से में बहुत तेज दर्द होता है। कई बार उल्टियां आती हैं और आंख और नाक से पानी आने लगता है।


यह भी पढ़ें: नशे की गिरफ्त में फंसी युवा पीढ़ी स्मैक के लिए बेच रहे अपना खून


जिले में नशे के और भी बहुत सारे पदार्थों की धरपकड़ जारी है जैसे कोरेक्स सिरप, नशीली दवाइयां, डेंड्राइट आदि लेकिन स्मैक का प्रकोप नौजवानों में सबसे ज्यादा देखा जा रहा है। आखिर स्मैक में ऐसा क्या है कि युवा पीढ़ी इतनी तेजी से इसके जाल में फंसती जा रही है?

थोड़ी पूछताछ करने पर पता लगा के जिले में स्मैक बहुत आसानी से उपलब्ध है। गली गली, नुक्कड़ नुक्कड़ स्मैक के तस्कर महंगे दामों पर स्मैक फरोख्त कर रहे हैं। इसके अलावा स्मैक का नशा बाकी नशे के मुकाबले ज़्यादा मजबूत होता है।

स्मैक के आदी एक नौजवान ने बताया, “स्मैक के नशे के बाद एक दो दिनों तक दिमाग सुन्न रहता है। न भूख लगती है और न किसी तरह का कोई दर्द महसूस होता है। ऐसा प्रभाव डेंड्राइट या कफ सिरप में नहीं होता।”

क्या कहते हैं मनोचिकित्सक

जाने माने मनोचिकित्सक डॉ. जितेंद्र नागपाल नशे की बीमारी को ‘साइलेंट कैंसर’ बुलाते हैं। उनके अनुसार, नशे की लत का शिकार ज्यादातर लोग 50 साल की उम्र से पहले ही मर जाते हैं। स्मैक, हेरोइन, अफीम, गांजा या और दूसरे तरह के नशे की लत से इंसान का रक्तचाप और दिल की धड़कन लगातार अस्थिर रहती है, जिससे आगे चलकर बहुत गंभीर बीमारियां होने का खतरा काफी हद तक बढ़ जाता है।

नशे की हालत में इंसान का साइकोमोटर फंक्शन कमजोर हो जाता है, जिससे आंख और हाथ का तालमेल बिगड़ता है। इसके साथ साथ नजरिए में गड़बड़ी आती है। मिसाल के तौर पर नशा करने वाला नशे की हालत में ऊंचाई – लंबाई और दूरी को सही तरीके से भाप नहीं पाता। यही वजह है कि किसी भी तरह के नशे की हालत में गाड़ी चलाना कानूनी अपराध होता है।

स्मैक का सेवन दिमाग के “फ्रंटल लोब” की कार्य शक्ति पर असर डालता है। दिमाग का यह हिस्सा निर्णय लेने के लिए जिम्मेदार होता है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में किये गये एक शोध के अनुसार भारत में 35 करोड़ की आबादी किशोरावस्था में है और उनमें से 6-7% किशोर किसी न किसी तरह के नशे से ग्रस्त हैं। यानी 13 से लेकर 19 वर्ष के 2 करोड़ से ज्यादा बच्चे नशे की जद में हैं।

नशे का इलाज

मनोचिकित्सक डॉ. राजीव शर्मा की मानें, तो स्मैक या दूसरे ड्रग एडिक्शन का इलाज पूरी तरह से संभव है। जिंदगी के जीने के तरीके को बदल कर और कुछ दवाइयों के सहारे नशे की लत पूरी तरह छुड़ाई जा सकती है। ज्यादातर केसों में मरीज को भर्ती होने की भी कोई खास जरूरत नहीं होती, बस दवाओं का सही खुराक लेने से एक से 3 महीने में मरीज के अंदर सकारात्मक बदलाव दिखने लगते हैं।

जानकारों का कहना है कि नशे का शिकार युवाओं को इलाज के दौरान परिवार वालों का साथ बहुत जरूरी होता है।


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सैयद जाफ़र इमाम किशनगंज से तालुक़ रखते हैं। इन्होंने हिमालयन यूनिवर्सिटी से जन संचार एवं पत्रकारिता में ग्रैजूएशन करने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया से हिंदी पत्रकारिता (पीजी) की पढ़ाई की। 'मैं मीडिया' के लिए सीमांचल के खेल-कूद और ऐतिहासिक इतिवृत्त पर खबरें लिख रहे हैं। इससे पहले इन्होंने Opoyi, Scribblers India, Swantree Foundation, Public Vichar जैसे संस्थानों में काम किया है। इनकी पुस्तक "A Panic Attack on The Subway" जुलाई 2021 में प्रकाशित हुई थी। यह जाफ़र के तखल्लूस के साथ 'हिंदुस्तानी' भाषा में ग़ज़ल कहते हैं और समय मिलने पर इंटरनेट पर शॉर्ट फिल्में बनाना पसंद करते हैं।

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