पानी से लबालब भरे ‘आहर’ दूर से देखने पर बड़े आईने-से लगते हैं और इनमें नीले आसमान का प्रतिबिंब एक जादू रचता है, मगर ये जादू शायद बीते दिनों की बात हो जाएगी क्योंकि इसी जगह राजगीर एयरपोर्ट बनने जा रहा है।
पिछले साल बिहार सरकार ने कैबिनेट की बैठक में नालंदा के राजगीर और भागलपुर में ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। इस मंजूरी के साथ ही दोनों जिलों के स्थानीय प्रशासन को जमीन चिन्हित करने का आदेश दिया गया और तत्काल ही जमीन चिन्हित कर भी ली गई।
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26 अगस्त, 2024 को नालंदा समाहरणालय, बिहारशरीफ के समाहर्ता की तरफ से वायुयान संगठन निदेशालय, मंत्रिमंडल सचिवालय विभाग को भेजे गये पत्र में बताया गया कि राजगीर अंचल में रनवे और टर्मिनल भवन के निर्माण के लिए चयन की गई जमीन मेयार, बढ़ौना, बड़हरी और पथरौरा में है जिसका कुल रकबा 901.79 एकड़ है। स्थानीय प्रशासन के मुताबिक, इस भूखंड पर 1200 परिवारों का मालिकाना हक है। उक्त पत्र में संलग्न दस्तावेज बताते हैं कि जिस जमीन का अधिग्रहण किया जाना है, वे दोफसली हैं, लेकिन पत्र में कहीं इस बात का जिक्र तक नहीं है कि चिन्हित भूखंड में से लगभग 800 एकड़ में ‘आहर’ भी हैं, जिनमें बारिश का पानी जमा होता है और जिनसे पाइनों के जरिए खेतों की सिंचाई होती है व आहर सूख जाने पर जीरा, मंगरैल, गोलमिर्च जैसे मसालों की बम्पर पैदावार होती है। मसाले के अलावा दूसरी फसलों की भी खेती होती है।
स्थानीय निवासी विनय सिंह कहते हैं, “प्रस्तावित एयरपोर्ट का रनवे आहर पर बनेगा, जिससे आहर-पाइन व्यवस्था पूरी तरह खत्म हो जाएगा। इससे हमारी खेती बर्बाद हो जाएगी।”
क्या होता है ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट
ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट उस हवाईअड्डे को कहा जाता है, जिसका निर्माण बिल्कुल नई जगह पर किया जाता है यानी कि जहां पहले से हवाईअड्डा का कोई ढांचा मौजूद नहीं होता है। वहीं सामान्य एयरपोर्ट के अंतर्गत वे एयरपोर्ट आते हैं, जहां पहले से हवाईअड्डे का ढांचा मौजूद होता है। मसलन पूर्णिया में बन रहे हवाई अड्डे में पहले से ढांचा मौजूद है, इसलिए ये एयरपोर्ट ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट की श्रेणी में नहीं आता है।
बड़े शहरों में मौजूद हवाईअड्डों पर पैसेंजरों की भारी भीड़ को कम करने के साथ ही शहरी एयरपोर्ट में गतिविधियों की वजह से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने के उद्देश्य से छोटे शहरों में इस तरह के एयरपोर्ट निर्माण की योजना बनाई गई। ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट में इस बात का भी ख्याल रखना होता है कि इससे कम से कम पर्यावरण प्रदूषण फैले।
भारत सरकार ने इसके लिए ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट नीति, 2008 लागू की।
इस नीति में ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट के निर्माण से संबंधित विस्तृत दिशा-निर्देश, प्रक्रियाएं और कदम बताए गए हैं। इस नीति के अंतर्गत हवाई अड्डा डेवलपर या संबंधित राज्य सरकार ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट स्थापित करने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजती है। इस नीति में एयरपोर्ट के लिए जमीन का चयन और जमीन अधिग्रहण की पूरी जिम्मेवारी डेवलपर या संबंधित राज्य सरकार की होती है।
पीआईबी पर मौजूद प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, ये नीति बनने से लेकर अब तक केंद्र सरकार ने देशभर में 21 ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट को मंजूरी दी है, जिनमें से 11 एयरपोर्ट पर हवाई उड़ानें चल रही हैं।
आहर-पइन, दक्षिण बिहार की पुरातन सिंचाई व्यवस्था
बिहार का उत्तरी हिस्सा जिसे उत्तर बिहार कहते हैं, जल समृद्ध क्षेत्र है। यहां की नदियां सदाबहार हैं और कमोबेश हर साल बारिश के सीजन में ये क्षेत्र बाढ़ का सामना करता है। लेकिन, इसके विपरीत दक्षिण बिहार में बारिश कम होती है और यहां की नदियां मौसमी हैं। साथ ही यहां की जमीन में नमी के संग्रहण की क्षमता भी कम है। नतीजतन इस इलाके में ऐतिहासिक रूप से पानी की किल्लत रहती है।
इस समस्या के समाधान के लिए पुरखों ने सदियों पहले दक्षिण बिहार में आहर-पाइन सिंचाई प्रणाली शुरू की। ऐसी ही एक पाइन, जिसका नाम चेती पाइन है, के बारे में विनय सिंह कहते हैं कि इसे 200 साल पहले स्थानीय निवासी चेती सिंह ने रातभर खुदाई कर बनायी थी। “वह स्थानीय जमींदार के सिपाही थे और उन्होंने अम्मा कुआं से मेयार तक 8 से 10 किलोमीटर लम्बा पइन बनाया था। ये पइन अब भी सक्रिय है,” उन्होंने कहा।
इंडियन जर्नल ऑफ ट्रैडिशनल नॉलेज में अप्रैल 2012 में ‘ऐन ओवरव्यू ऑफ आहर-पाइन सिस्टम इन साउथ बिहार प्लेन्स ऑफ इंडिया एंड नीड फॉर इट्स रिवाइवल’ शीर्षक से छपा एक शोधपत्र लिखता है, “आहर-पइन व्यवस्था एक स्वदेसी सिंचाई तकनीक है, जिसके जरिए आज भी दक्षिण बिहार के एक बड़े हिस्से में सिंचाई होती है। इस तकनीक का इजाद यहां की कृषि-जलवायु स्थिति को समझते हुए किया गया था।”
“आहर, तिकोने आकार का एक जल संग्रहण ढांचा होता है। हालांकि देखने पर ये किसी सामान्य तालाब सा लगता है, मगर इसकी बनावट भिन्न होती है। सामान्य तालाबों में तटबंध नहीं होते हैं, लेकिन आहर में तटबंध होते हैं। तालाब काफी गहरी होती है, लेकिन आहर की गहराई कम होती है। एक आहर से 400 हेक्टेयर खेत की सिंचाई कोई असामान्य बात नहीं है, 20वीं शताब्दी में एक आहर से 57 हेक्टेयर खेत की सिंचाई हुआ करती थी,” शोधपत्र कहता है। वहीं, पइन नहर जैसा ढांचा होता है, जो खेतों के किनारों से होकर गुजरता है और ये आहर से जुड़ा होता है।
विभिन्न दस्तावेजों के अध्ययन से पता चलता है कि आहर पइन सिंचाई प्रणाली सदियों पुरानी है और इसका जिक्र चंद्रगुप्त मौर्य के समय भारत दौरे पर आये युनानी इतिहासकार मेगास्थनीज से लेकर ब्रिटिश पर्यवेक्षक फ्रांसिस बुकानन तक ने अपनी किताब में किया है। अपनी किताब ‘ऐन अकाउंट ऑफ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ भागलपुर’ में फ्रांसिस बुकानन इस व्यवस्था को तालाब की तुलना में कम खर्चीला बताते हुए लिखते हैं कि दक्षिण बिहार में मजबूत सिंचाई व्यवस्था बनाने का प्रयास नहीं हुआ। फिलहाल जो तरीका अपनाया जाता है, उसमें बरसात खत्म होने के बाद बमुश्किल एक महीने तक ही पानी संग्रह रह पाता है, जिससे तत्काल सिंचाई हो जाती है।
आहर-पाइन पर व्यापक अध्ययन करने वाले निर्मल सेनगुप्त लिखते हैं, “बाहर से आहर-पइन व्यवस्था भले ही बदरूप दिखती हो, लेकिन ये कठिन प्राकृतिक स्थितियों में पानी के सर्वोत्तम उपयोग की अनूठी देसी प्रणाली है।”
तमाम ऐतिहासिक साक्ष्यों और अध्ययनों से पता चलता है कि आहर-पाइन प्रणाली दक्षिण बिहार की कृषि व्यवस्था के लिए रक्तवाहिनी धमनी का काम करता है और इसे सदियों से प्रयोग में लाता जाया रहा है और अभी लाया जा रहा है। इसलिए लोग आहर पर एयरपोर्ट बनाने के प्रस्ताव के खिलाफ हैं। उनका कहना है कि वे विकास के खिलाफ नहीं हैं, मगर उनकी खेती के लिए अनिवार्य आहर-पाइन को एयरपोर्ट की बलि नहीं चढ़ने दे सकते हैं।
हजारों एकड़ खेत की सिंचाई पर असर का अनुमान
स्थानीय लोगों का कहना है कि मेयार और बढ़ौना को मिलाकर लगभग 800 एकड़ में आहर है, जिससे 20-24 पइन निकले हैं। विनय सिंह कहते हैं, “इन पइनों के जरिए कम से कम तीन मौजा के हजारों एकड़ खेतों की सिंचाई होती है। अगर आहर खत्म हो गया, तो इन खेतों को सिंचाई के लिए पानी नहीं मिलेगा, जिससे ये जमीनें बंजर हो जाएंगी।” इतना ही नहीं, वह कहते हैं, “आहर के चलते ही नालंदा में भूगर्भ जलस्तर काफी ऊंचा है। अगर आहर खत्म हो गये, तो भूगर्भ जल रिचार्ज नहीं होगा और हमारे इलाके का भूगर्भ जलस्तर काफी नीचे चला जाएगा।”
समाजसेवी व पर्यावरणविद डॉ. सत्येंद्र कुमार ने राजगीर के आयुध कारखाना, जिसका निर्माण भी जलस्रोत पर हुआ, का उदाहरण देते हुए कहा कि उक्त जलस्रोत से 26 गांवों में सिंचाई का पानी जाता था, लेकिन फैक्टरी बनने के बाद पानी वहां नहीं जाता है और जाता भी है, तो लोग इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं क्योंकि फैक्टरी के चलते पानी प्रदूषित हो जाता है।
“यही हाल हमारे गांवों का होगा अगर आहर को पाटकर एयरपोर्ट बना दिया गया,” सत्येंद्र कुमार कहते है। “गिरियक से लेकर बराबर तक पहाड़ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, जहां से बारिश का पानी ढलते हुए आधा दर्जन आहरों में आता है। इन आहरों से 20 से ज्यादा पइन जुड़े हुए हैं, जिनके जरिए आहर का पानी खेतों तक पहुंचता है,” उन्होंने कहा, “वहीं, जब आहर में काफी पानी आ जाता है, तो अतिरिक्त पानी हमलोग पैमार नदी में डाल देते हैं। अगर ये जल संरक्षण व्यवस्था खत्म हो जाएगी, तो न सिर्फ खेती पर बुरा असर पड़ेगा बल्कि पानी की किल्लत होने से राजगीर के वन्यजीव असमय मरेंगे।”
जनहित याचिका पटना हाईकोर्ट से खारिज
सत्येंद्र कुमार, राजगृह धरोहर संरक्षण समिति से भी जुड़े हुए हैं, जो लगातार प्रस्तावित जगह से दूर एयरपोर्ट बनाने की मांग कर रही है। सत्येंद्र कुमार समेत एक दर्जन लोगों की तरफ से पिछले दिनों पटना हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। उक्त जनहित याचिका में भूमि अधिग्रहण को चुनौती देते हुए कहा गया कि इससे भूजल, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण पर असर पड़ेगा। पटना हाईकोर्ट ने याचिका यह कहकर खारिज कर दी कि प्रस्ताव अभी शुरुआती चरण में है न कि अंतिम निर्णय की स्थिति में और भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया की भी महज शुरुआत हुई है।
याचिका में ये दलील भी दी गई कि ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट बनाने के लिए जो शर्तें हैं, राजगीर में प्रस्तावित ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट उन शर्तों को पूरा नहीं करता है। कोर्ट ने इस दलील को भी खारिज कर दिया।
सत्येंद्र कुमार का मानना है कि पानी पर जो असर होगा, सो होगा ही एयरपोर्ट बनने से प्रदूषण भी बढ़ेगा और हवाई जहाजों की आवाजाही से कंपन होगा, जिससे राजगीर की ऐतिहासिक धरोहरों को नुकसान होगा। साथ ही एयरपोर्ट नालंदा विश्वविद्यालय के करीब बनेगा, तो विमानों की आवाजाही से विश्वविद्यालय में पठन-पाठन पर भी असर पड़ेगा।
उन्होंने कहा, “हमलोग एयरपोर्ट के खिलाफ नहीं हैं, हमारा बस ये कहना है कि इसे ऐसी जगह स्थापित किया जाए, जहां बहुफसली खेत न हो और जल संरक्षण प्रणाली पर असर न पड़े।”
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