लगभग दो साल से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अतिरिक्त परामर्शी रहे पूर्व नौकरशाह मनीष कुमार वर्मा ने मंगलवार को जनता दल यूनाइटेड (जदयू) का दामन थाम लिया। हालांकि, राजनीतिक गतिविधियों में उनकी सक्रियता लोकसभा चुनाव के दौरान ही दिखनी शुरू हो गई थी, जब वह लगातार पार्टी के चुनावी कार्यक्रमों में हिस्सा ले रहे थे।
आधिकारिक तौर पर पार्टी की सदस्यता लेने के बाद उन्होंने नीतीश कुमार को युगपुरुष करार दिया। उन्होंने कहा, “भविष्य में कोई पीछे मुड़ कर देखेगा तो पाएग कि वह बिहार को कहां से कहां लेकर गये।”
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उन्होंने कहा कि वह नीतीश कुमार के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर पार्टी में शामिल हुए हैं और जदयू पार्टी में ही असली समाजवाद जिंदा है।
कौन हैं मनीष कुमार वर्मा
मनीष वर्मा ओडिशा कैडर के वर्ष 2000 बैच के आईएएस अधिकारी हैं। वह उन दर्जनों सिविल सेवकों में एक हैं, जिन्हें बिहार सरकार ने विज्ञापन निकाल कर बिहार में काम करने के लिए निमंत्रित किया था, क्योंकि बिहार में सिविल सर्वेंट्स की कमी थी।
वह वर्ष 2012 में 5 वर्षों के अंतर-राज्यीय प्रतिनियुक्ति पर बिहार आये थे और तुरंत ही नीतीश कुमार की आंखों का तारा बन गये।
हालांकि मनीष कुमार वर्मा ने कहा कि उनके पिता बीमार रहा करते थे इसलिए वह बिहार आए थे।
जानकारों के मुताबिक, मनीष वर्मा के नीतीश के नजदीक आने की कई वजहें हैं, जिनमें उनकी जाति और उनका गृह जिला भी शामिल हैं।
50 वर्षीय मनीष कुमार वर्मा मूल रूप से नीतीश कुमार के गृह जिला नालंदा के बिहारशरीफ के रहने वाले हैं और उनके सजातीय यानी कुर्मी हैं। उनकी शुरुआती पढ़ाई लिखाई पटना से हुई बाद में वह आईआईटी दिल्ली चले गये और बीटेक किया।
प्रतिनियुक्ति पर बिहार आकर उन्होंने बिहार की सरकारी बिजली कंपनियों में रहे और बाद में बिजली समाज कल्याण विभाग में निदेशक का पद संभाला। जनवरी 2013 में उन्हें पूर्णिया का डीएम बनाया गया। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान उन पर पक्षपातपूर्ण कार्य करने का आरोप लगा। उस वक्त भाजपा ने निर्वाचन आयोग को एक चिट्ठी लिखी थी और कहा था कि पूर्णिया के डीएम मनीष कुमार वर्मा जदयू के लिए काम कर रहे हैं। निर्वाचन आयोग ने भाजपा की शिकायत को संज्ञान में लेते हुए अप्रैल 2014 में उनका ट्रांसफर नॉर्थ बिहार पावर डिस्ट्रिब्यूशन कंपनी लिमिटेड में कर दिया था।
लोकसभा चुनाव ज्योंही खत्म हुआ, उन्हें वापस पूर्णिया भेज दिया गया। लेकिन, इस बार वह एक महीने से भी कम समय तक पूर्णिया में डीएम रह पाये। 18 जुलाई 2014 को उन्हें पटना का डीएम बनाया गया।
सूत्र बताते हैं कि पटना में डीएम रहते हुए उनकी नजदीकी नीतीश कुमार से और बढ़ी। हालांकि, उस वक्त जीतनराम मांझी मुख्यमंत्री थे, लेकिन सूत्रों के अनुसार, जीतन राम मांझी के बड़े फैसलों में नीतीश कुमार की भूमिका रहती थी।
उनके डीएम रहते हुए अक्टूबर 2014 में गांधी मैदान में दशहरा कार्यक्रम के दौरान भगदड़ मच गई थी, जिसमें 33 लोगों की मृत्यु हो गई थी। उस वक्त ये आरोप सामने आये थे कि दशहरे की भीड़ को संभालने की जगह वह एक नामचीन होटल में अपने पुत्र का जन्मदिन मना रहे थे। इस घटना को लेकर सरकार पर जोरदार दबाव बनाया गया था, तो मनीष वर्मा को पटना डीएम के पद से हटा दिया गया। बाद में उनकी अन्यत्र नियुक्ति हुई।
वर्ष 2017 में उनकी प्रतिनियुक्ति की अवधि खत्म हुई, तो केंद्र सरकार ने एक साल की अवधि और बढ़ा दी। वर्ष 2018 में दूसरी बार केंद्र सरकार ने और एक साल के लिए डेपुटेशन की अवधि बढ़ा दी। इस तरह उनकी डेपुटेशन अवधि बढ़ती गई। वर्ष 2017 से 2021 के बीच वह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सचिव रहे।
साल 2021 में ही उन्होंने अंततः वीआरएस ले लिया। नीतीश कुमार इस बीच उनके लिए कुछ बड़ा प्लान कर चुके थे। 2 फरवरी 2022 को कैबिनेट की बैठक में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के निर्देश पर अतिरिक्त परामर्शी पद का सृजन किया गया और मनीष कुमार वर्मा को इस पद पर नियुक्त किया गया। तब से वह इस पद पर बने हुए हैं।
हालांकि, इन वर्षों में वह लो प्रोफाइल मेंटेन करते हुए काम कर रहे थे। राजनीति में आने का संकेत देते हुए लोकसभा चुनाव के दौरान वह सार्वजनिक मंचों पर जाने लगे और सोशल मीडिया पर भी खासे सक्रिय हो गये।
माना जा रहा है कि लोकसभा चुनाव को लेकर जदयू की रणनीतियों में मनीष कुमार वर्मा की अहम भूमिका रही है और आगामी विधानसभा चुनाव में वह बड़ी भूमिका निभा सकते
माना ये भी जा रहा है कि मनीष कुमार वर्मा संभवतः नीतीश कुमार के राजनीतिक उत्तराधिकारी हो सकते हैं
क्योंकि पार्टी में अब तक ऐसा कोई नेता नजर नहीं आ रहा है, जो नीतीश कुमार की जगह ले सके।
दो नाकाम कोशिशें
नीतीश कुमार पूर्व में अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी तलाशने की दो कोशिशें कर चुके हैं, लेकिन दोनों ही कोशिशें नाकाम रही हैं।
पहली कोशिश के तहत उन्होंने आरसीपी सिंह को वर्ष 2010 में पार्टी में शामिल कराया था। पूर्व नौकरशाह आरसीपी सिंह भी नालंदा से आते हैं और नीतीश कुमार की ही तरह कुर्मी जाति से ताल्लुक रखते हैं। आरसीपी सिंह को पार्टी में नीतीश कुमार के बाद नंबर दो माना जाता था। उन्हें नीतीश कुमार ने राज्यसभा सांसद बनाया।
वह केंद्र की मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहे, लेकिन दिल्ली में मंत्रालय संभालते हुए भाजपा के बेहद करीब पहुंच गये, तो उन्हें धीरे धीरे पार्टी में किनारे कर दिया गया। बाद में उन्होंने भाजपा ज्वाइन कर लिया। उस वक्त नीतीश कुमार महागठबंधन का हिस्सा थे, तो भाजपा ने आरसीपी सिंह के जरिए नीतीश कुमार पर खूब जुबानी हमले करायें थे। एक वक्त ऐसा लग रहा था कि भाजपा, आरसीपी सिंह को बड़ी भूमिका दे सकती है। लेकिन, एक नाटकीय घटनाक्रम के तहत नीतीश कुमार महागठबंधन से अलग हो गये और भाजपा के साथ मिलकर दोबारा बिहार में सरकार बना ली। तब से आरसीपी सिंह गुमनाम हैं।
दूसरी कोशिश साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद शुरू हुई, जब चुनावी रणनीतिकार (फिलहाल राजनीतिज्ञ) प्रशांत किशोर को साल 2018 में जदयू ज्वाइन कराया गया और अहम जिम्मेवारी दी गई। पार्टी ज्वाइन करने पर नीतीश कुमार ने कहा था, “अब यही (पार्टी का) भविष्य हैं।” लेकिन, साल 2020 में सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट को लेकर पार्टी लाइन से इतर अपना स्टैंड जाहिर करने के कारण उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया था।
अब मनीष कुमार वर्मा पर दांव आजमाया जा रहा है, पर, ये कितना सफल हो पाएगा, ये कहना मुश्किल है।
राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन का कहना है कि जदयू जैसी पार्टियों के लिए उत्तराधिकारी को स्थापित करना मुश्किल होता है।
उन्होंने कहा, “परिवार केंद्रित पार्टी के लिए उत्तराधिकारी तलाशना आसान होता है क्योंकि परिवार में दूसरे लोग होते हैं, जो विरासत को आगे बढ़ाते हैं। राजद और लोजपा (अब लोजपा-आर) ऐसी ही पार्टियां हैं। राजद समर्थकों ने लालू यादव के पुत्र तेजस्वी यादव को नेता मान लिया है। वहीं लोजपा-आर के कोर वोटरों ने राम विलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान को अपना नेता स्वीकार कर लिया है। विचार केंद्रित पार्टियों में बहुत सारे नेता समानांतर विकसित होते रहते हैं, इसलिए वहां उत्तराधिकार का संकट नहीं होता। भाजपा इसका उदाहरण है।”
“मगर, जदयू, एक सरदारवादी पार्टी है। यहां एक नेता सुप्रीम है और बाकी की कोई वैल्यू नहीं। पूरी पार्टी नीतीश कुमार के परसोना (आभामंडल) पर टिकी हुई है। ऐसे उनके परसोना को रिप्लेस करना मुमकिन नहीं है, इसलिए जदयू में उत्तराधिकार का संकट है। मनीष वर्मा, नीतीश के आभामंडल को मैच कर पायेंगे व जदयू के कोर समर्थक जो अलग अलग जाति समूह से हैं, उनको अपना नेता स्वीकार कर लेंगे, ये कहना कठिन है,” उन्होंने कहा।
महेंद्र सुमन आगे कहते हैं, “नीतीश कुमार को अपने उत्तराधिकारी की तलाश बहुत पहले करनी चाहिए थी, अब तो बहुत देर हो गई है।”
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