शंभु दास के बेटे की आंख में कुछ दिक्कत आ रही थी, लेकिन आसपास कोई अच्छा अस्पताल नहीं होने के कारण उन्हें इलाज के लिए करीब 100 किलोमीटर दूर पूर्णिया जाना पड़ा। “इलाज के बाद आंख तो ठीक है, लेकिन पूर्णिया जाने और आने में बड़ी दिक्कत होती थी,” उन्होंने कहा।
अररिया जिले के नवाबगंज पंचायत के रहने वाले शंभू दास के पिता को दिल की बीमारी थी, जिसमें त्वरित चिकित्सीय हस्तक्षेप की जरूरत पड़ती है, लेकिन उन्हें इलाज कराने के लिए भी शंभू दास को पूर्णिया शहर पर निर्भर रहना पड़ा। उनके पिता की मृत्यु चार साल पहले हो गई है।
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“इलाज की दिक्कत सामान्य दिनों में होती है, तो सोचिए कि बाढ़ में क्या होता होगा,” शंभू कहते हैं।
हालांकि ऐसा नहीं है कि गांव के नजदीक सरकारी अस्पताल नहीं है, लेकिन वहां मामूली इलाज ही हो पाता है। शंभू को नहीं मालूम कि वो प्राइमरी हेल्थ सेंटर है या कोई और चिकित्सा केंद्र “उस अस्पताल में सर्दी, बुखार की ही दवा मिल पाती है। अगर इमरजेंसी हो, तो वहां इलाज नहीं मिलता है। दूसरी बात यह है कि 3-4 पंचायतों की एक लाख से अधिक की आबादी को त्वरित हस्तक्षेप के लिए संसाधानहीन अस्पताल पर निर्भर रहना पड़ता है।”
सरकारी चिकित्सा सेवा के मामले में अररिया जिला अपवाद नहीं है, बिहार के सीमांचल में आने वाले अन्य तीन जिलों किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार की भी स्थिति कमोबेश एक जैसी है। अलबत्ता इन जिलों के मुख्य शहरों में निजी अस्पतालों की सेवाएं बेहतर है, लेकिन सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का हाल खस्ता है। ग्रामीण इलाकों में स्थिति और भी नाजुक है।
स्वास्थ्य की यह नाजुक स्थिति सरकारी आंकड़ों में भी नजर आती है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 5 मई को साल 2020-2021 के लिए रूरल हेल्थ स्टैटिस्टिक्स रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में फिलहाल 10258 सब सेंटर, 1932 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और 306 कम्युनिटी स्वास्थ्य केंद्र हैं।
कैसी सेवाएं देते हैं सब-सेंटर, पीएचसी और सीएचसी
सब-सेंटर स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का पहला संपर्क बिंदू होता है जबकि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) ग्रामीण समुदाय और चिकित्सा अधिकारी के बीच पहला संपर्क बिंदू होता है। पीएचसी की स्थापना की परिकल्पना ग्रामीण आबादी को एक एकीकृत उपचारात्मक और निवारक स्वास्थ्य देखभाल को ध्यान में रखते हुए की गई थी। कम्युनिटी हेल्थ सेंटर पीएचसी के लिए रेफरल के रूप में काम करता है यानी कि अगर पीएचसी मरीजों का इलाज करने में असमर्थ है, तो मरीजों को कम्युनिटी हेल्थ सेंटर में रेफर करता है।
नेशनल हेल्थ मिशन के मुताबिक, हर सब-सेंटर में एक एएनएम एक पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ता होना चाहिए। पीएचसी में एक एमबीबीएस डॉक्टर के अलावा तीन एएनएम, दो स्वास्थ्य सहायक के साथ कुल 13 स्टाफ होने चाहिए। हर पीएचसी में छह बेड और 24 घंटे इमरजेंसी सेवा दी जानी चाहिए। इसके अलावा नवजात, प्रसूता के लिए भी जरूरी सेवाएं पीएचसी की अनिवार्य सेवाओं में शामिल हैं।
वहीं, कम्युनिटी हेल्थ सेंटर में कम से कम चार विशेषज्ञ चिकित्सक जिनमें सर्जन, चिकित्सक, स्त्रीरोग विशेषज्ञ और बाल रोग विशेषज्ञ अनिवार्य है। कम्यिनिटी हेल्थ सेंटर में ऑपरेशन थियेटर, एक्स-रे, लेबर रूम और प्रयोगशाला सुविधाओं के साथ 30 इंडोर बेड होना चाहिए।
आबादी के अनुपात में कम स्वास्थ्य केंद्र
गौरतलब हो कि केंद्र सरकार के नेशनल हेल्थ मिशन के अनुसार ग्रामीण इलाकों में 5000 हजार की आबादी पर एक सब-सेंटर, 30 हजार की आबादी पर एक पीएचसी और 1,20,000 की आबादी पर 1 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर होना चाहिए। लेकिन, सीमांचल की बात करें, आबादी के अनुपात में स्वास्थ्य केंद्र काफी कम हैं।
साल 2011 की जनगणना के अनुसार, अररिया जिले की आबादी 28,11,569 है। आबादी के हिसाब से देखा जाए, तो जिले में 562 सब-सेंटर, 94 पीएचसी और 23 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर होना चाहिए। लेकिन अररिया में सिर्फ 242 सब सेंटर, 46 पीएचसी और महज 7 कम्युनिटी स्वास्थ्य केंद्र है।
इसी तरह पूर्णिया की आबादी 23,64,619 है। इस हिसाब से जिले में 653 सब-सेंटर, 109 पीएचसी और 27 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर होना चाहिए। लेकिन पूर्णिया में 312 सब सेंटर, 64 पीएचसी और 5 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर हैं।
लगभग 3071000 की आबादी वाले कटिहार जिले में नियम के अनुसार तो 614 सब-सेंटर, 102 पीएचसी और 25 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर होने चाहिए, लेकिन फिलहाल यहां 327 सब सेंटर, 65 पीएचसी और 8 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर हैं। इसी तरह 16,90,400 आबादी वाले किशनगंज में 338 सब-सेंटर, 56 पीएचसी और 14 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर होने चाहिए, लेकिन यहां मजर 156 सब सेंटर, 19 पीएचसी और महज 4 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर स्थित हैं।
सीमांचल के सभी चार जिलों की एकमुश्त आबादी के हिसाब से देखा जाए, तो 10450 लोगों पर एक सब-सेंटर, 55864 की आबादी पर एक पीएचसी और 451567 आबादी पर एक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर है।
आबादी के हिसाब से देखा जाए, तो पूरे बिहार में 7000 और उससे अधिक आबादी पर एक सब-सेंटर, 50000 व उससे अधिक आबादी पर एक पीएचसी और 50 हजार तथा उससे अधिक आबादी पर एक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर है। हालांकि, बिहार के संदर्भ में ये आंकड़े रूरल हेल्थ स्टैटिस्टिक्स 2020-2021 ने 1 जुलाई 2021 की मध्यवर्ष की जनसंख्या के आधार पर पेश किये हैं।
अगर 1 जुलाई 2021 की मध्यवर्ष जनसंख्या के अनुसार सीमांचल के स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या निकाली जाए, आबादी और स्वास्थ्य केंद्रों में बड़ा फासला नजर आएगा।
सीमांचल में अपर्याप्त स्वास्थ्य केंद्रों के चलते ही स्थानीय लोगों को बेहतर इलाज के लिए पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी या पड़ोसी देश नेपाल के अस्पतालों का चक्कर लगाना पड़ता है।
अररिया के फॉरबिसगंज के निवासी दुखाई मंडल ने कहा कि रेफरल अस्पताल यहां से लगभग 7 किलोमीटर दूर है, लेकिन सेवाएं संतोषजनक नहीं मिलती हैं, इसलिए लोगों को इलाज के लिए नेपाल के अस्पतालों में जाना पड़ता है।
पीएचसी पर मरीजों का दबाव
आबादी के हिसाब से कम स्वास्थ्य केंद्र होने के कारण स्वास्थ्य केंद्रों पर मरीजों का दबाव अधिक होता है। मसलन कटिहार जिले के मनिहारी पीएचसी में रोजाना औसतन 90 से 100 आउटडोर मरीज आते हैं और महीने में इस केंद्र में 200 से 250 गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी कराई जाती है। पीएचसी के एक चिकित्सक ने नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर कहा, “हमारे पीएचसी के बगल में ही अनुमंडल अस्पताल भी है। बहुत सारे मरीज वहां भी चले जाते हैं। इसलिए दबाव कुछ कम रहता है। लेकिन फिर भी पीएचसी में स्टाफ व सुविधाओं के मद्देनजर इतने मरीज भी अधिक हैं।”
पीएचसी में सुबह 8 बजे से दोपहर 2 बजे तक ओपीडी चलता है और इसके बाद इमरजेंसी सेवाएं दी जाती हैं।
“हमलोग आसपास की 14 पंचायतों के लोगों को सेवा देते हैं। इस लिहाज से मरीजों का दबाव ज्यादा रहता है। कई बार इमरजेंसी में बहुत गंभीर मरीज आते हैं, तो उन्हें अनुमंडल अस्पताल भेज देते हैं। अगर अनुमंडल अस्पताल नहीं होता, तो हमारे लिए और भी दिक्कत होती,” उक्त चिकित्सक ने कहा।
किशनगंज के पोठिया ब्लॉक के पीएचसी में रोजाना 100 से 110 आउटडोर पेशेंट आते हैं और हर महीने यहां लगभग 150 गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी होती है। पोठिया पीएचसी के एक डॉक्टर ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, “हमलोग 2,50,000 आबादी को चिकित्सकीय सेवाएं देते हैं। आबादी के हिसाब से मरीज का लोड ज्यादा रहता है, लेकिन पोठिया पीएचसी के अलावा प्रखंड में दो अतिरिक्त पीएचसी भी हैं, जो हमें कुछ राहत दे देती है। दो अतिरिक्त पीएचसी में से एक में डिलीवरी भी कराई जाती है। उक्त अतिरिक्त पीएचसी में अभी महीने में औसतन 40-50 डिलीवरी होती है।”
गौरतलब हो कि सीमांचल के जिलों में बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था की मांग अक्सर होती रहती है। नागरिक संगठन आंदोलन भी करते हैं, लेकिन उनकी बातें अनसुनी कर दी जाती हैं।
पूर्णिया जिले के कसबा प्रखंड के मझगांव के रहने वाले एक्टिविस्ट आबिद हुसैन कहते हैं, “नजदीकी पीएचसी हमारे गांव से 7-8 किलोमीटर दूर है, लेकिन वहां चिकित्सीय सेवाएं नहीं मिल पाती हैं। पीएचसी में केवल डिलीवरी के केसेज ही देखे जाते हैं। अगर इमरजेंसी सेवा लेनी हो, तो 25 किलोमीटर पूर्णिया शहर में जाना पड़ता है।”
“हमलोगों ने कई बार स्थानीय विधायकों और अन्य अन्य जनप्रतिनिधियों के सामने इसकी मांग रखी, लेकिन अब तक इस दिशा में कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है,” उन्होंने कहा।
पिछले महीने पूर्णिया के स्थानीय भाजपा नेताओं ने भाजपा के कोटे से बिहार में स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय से मुलाकात कर जिले के बनमनखी में बेहतर चिकित्सा व्यवस्था की मांग की थी।
भाजपा नेता दिलीप झा ने कहा था कि जानकीनगर, बुढ़िया और सरसी में नाम मात्र के लिए स्वास्थ्य केंद्र संचालित हो रहा है। उन्होंने स्वास्थ्य केंद्र में आठों पहर चिकित्सक की मौजूदगी सुनिश्चित करने की मांग की थी।
किशनगंज के ठाकुरगंज प्रखंड के दल्लेगांव के रहने वाले जहूर रिजवी का कहना है कि उनके गांव से नजदीकी पीएचसी की दूरी लगभग 17 किलोमीटर है। लेकिन उस पीएचसी तक जाने के लिए सीधा कोई संपर्क रास्ता नहीं है। वहीं इमरजेंसी में सदर अस्पताल जाना पड़ता है, जो करीब 80 किलोमीटर दूर स्थित है। “हमें पहले खेतों से होकर नदी पार करना पड़ता है और इसके बाद पीएचसी तक जा पाते हैं। अगर इमरजेंसी हो तो कई बार मरीजों की जान रास्ते में ही चली जाती है,” जहूर कहते हैं।
उन्होंने बताया कि सिलीगुड़ी यहां से 80-85 किलोमीटर दूर है, जहां के सरकारी अस्पतालों में बेहतर इलाज मिलता है, लेकिन इसके लिए भारी मशक्कत करनी पड़ती है।
“वहां सरकारी अस्पताल में इलाज कराने के लिए पर्ची कटवाना पड़ता है। इसके लिए यहां से मरीजों को भोर 4.30 बजे ही घर से निकल जाना पड़ता है सुबह 8 बजे तक अस्पताल पहुंच जाएं। अगर आसपास बेहतर चिकित्सा सुविधा होती, तो लोगों को इतनी परेशानी नहीं झेलनी पड़ती,” उन्होंने कहा।
गौरतलब हो कि किशनगंज के सांसद डॉ मोहम्मद जावेद भी सीमांचल और खासकर किशनगंज की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर संसद में सवाल उठा चुके हैं, लेकिन जमीन पर बहुत असर नहीं दिख रहा है।
कटिहार के समाजिक कार्यकर्ता विक्टर झा भी जिले में स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर सरकार से नाराजगी जाहिर करते हैं। “मेडिकल कॉलेज में ठीकठाक इलाज मिल भी जाता है, लेकिन पीएचसी व कम्युनिटी हेल्थ सेंटर की स्थिति बेहद दयनीय हैं। इन केंद्रों में इलाज बिल्कुल नहीं मिलता है, नतीजतन लोगों को पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी जाना पड़ता है। जिले में बेहतर इलाज के लिए स्वास्थ्य केंद्रों को मजबूत करने की मांग करते करते हमलोग थक चुके हैं, लेकिन सरकार सुनती ही नहीं है,” विक्टर झा ने कहा।
कुकुरमुत्ते की तरह उगे निजी नर्सिंग होम
अपर्याप्त और लचर चिकित्सा व्यवस्था के चलते पूरे सीमांचल में निजी क्लीनिक कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं। लेकिन, इनमें से ज्यादातर क्लीनिकों को न तो सरकार से अनुमति मिलती है और न ही यहां विशेषज्ञ चिकित्सक होते हैं। लिहाजा पैसा खर्च कर भी बेहतर इलाज मिल जाए, इसकी उम्मीद कम ही रहती है।
आबिद कहते हैं, “यहां के लोगों की निर्भरता निजी अस्पतालों पर ज्यादा है क्योंकि सरकारी अस्पताल मिलना मुश्किल है और मिलता भी है, तो इलाज मुश्किल है। इसलिए सरकार को सरकारी चिकित्सा केंद्रों की तादाद बढ़ानी चाहिए और साथ ही इलाज की गुणवत्ता में भी सुधार करना चाहिए।”
पिछले महीने अररिया जिले के रानीगंज रेफरल अस्पताल के पास अस्पताल से बाहर ही गर्भवती महिला ने बच्चा जना था। दरअसल, उसे उसके परिजन रेफरल अस्पताल में डिलीवरी के लिए लेकर आये थे, लेकिन अस्पताल में तैनात एक आशा वर्कर ने महिला को रेफरल अस्पताल में ही नियुक्त एक चिकित्सक के निजी नर्सिंग होम में भर्ती कराने की सलाह दी।
दर्द से तड़पती महिला रेफरल अस्पताल के सामने स्थित उक्त निजी नर्सिंग होम में गई, वहां के कम्पाउंडर ने गर्भवती महिला को भर्ती करने से पहले ही बताया कि उसके शरीर में खून की कमी है। इस बीच प्रसव पीड़ा असहनीय हो गई और महिला ने क्लीनिक के सामने ही बच्चे को जन्म दे दिया था।
कटिहार की रहनेवाली रिंकी खातून को मई में डिलीवरी के लिए एक निजी नर्सिंग में भर्ती कराया गया था, जहां चिकित्सक ने डिलीवरी के लिए 40 हजार रुपए मांगे थे। रिंकी के पति मोहम्मद सफीकुल के पास तत्काल 20 हजार रुपए थे, जिसे देकर उसने डिलीवरी कराने को कहा। चिकित्सकों ने ऑपरेशन कर डिलीवरी करा दी। बच्चा भी स्वस्थ था, लेकिन कुछ घंटे बाद ही रिंकी के पेट में बेतरह दर्द उठा। सफीकुल ने निजी नर्सिंग होम के डॉक्टरों को इसकी जानकारी दी, तो उन्होंने उसे पूर्णिया भेज दिया।
पूर्णिया के अस्पताल में रिंकी के पेट का अल्ट्रासाउंड हुआ, तो पता चला कि निजी नर्सिंग होम के चिकित्सक ने पेट में कपड़ा ही छोड़ दिया था। डॉक्टरों ने दोबारा ऑपरेशन कर कपड़ा निकाल तो दिया, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी और इंफैक्शन काफी फैल चुका था, नतीजतन महिला की मौत हो गई। बाद में मामले की छानबीन हुई, तो उक्त निजी नर्सिंग को अवैध पाया गया और प्रशासन ने उसे सील कर दिया।
अवैध तरीके से चल रहे निजी नर्सिंग होम में इस तरह की चिकित्सकीय लापरवाहियों की फेहरिस्त बड़ी लम्बी है, लेकिन अफसोस की बात है कि न तो सीमांचल में चिकित्सा व्यवस्था मजबूत की जा रही है और न ही गरीबों की गाढ़ी कमाई हड़प कर घटिया इलाज करने वाले अवैध निजी नर्सिंग होम्स की नकेल कसी जा रही है।
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