10-12 साल पहले तक कोसी क्षेत्र के गांवों में प्रत्येक घर में ‘भार’ बनाया जाता था। मिट्टी के चार बड़े चूल्हे को एक साथ बनाने को ‘भार’ कहते हैं। इस ‘भार’ में धान को उबाला जाता था। अक्टूबर और नवंबर महीने में धान की कटाई के साथ कामोद, चननचूड़ और मलिदा जैसे धान से चावल व चुड़ा बनाया जाना शुरू हो जाता था।
अभी के हालात को देखें तो लगभग दो दर्जन से भी अधिक देसी प्रजातियों के धान लुप्त होने की कगार पर हैं। साथ ही परम्परागत रूप से उसना चावल व चूड़ा तैयार करने का काम भी विलुप्त हो गया है, इसलिए अब कोसी क्षेत्र में भार भी देखने को नहीं मिलते। यह विलुप्ति भी यह बताने को काफी है कि परंपरागत फसलें गायब होती जा रही हैं
स्वास्थ्य कारणों से पूरे देश और बिहार में देशी और मोटे अनाजों की मांग बढ़ रही है। आज के वक्त में कई डॉक्टर मरीज को मोटा अनाज खाने की सलाह देते हैं। इस वजह से कामोद और चननचूड़ धान से लेकर बाजरा जैसे अनाज की खपत बढ़ रही है, लेकिन इसके बाद भी जानकारी नहीं होने और सरकारी सहायता के अभाव में किसान मोटे अनाजों की खेती से मुंह मोड़ रहे हैं।
कोसी क्षेत्र में 10 साल पहले तक कारी, शुक्ला , जसवा , कामोद , कलमदान समेत 20 से 25 प्रकार की धान की खेती की जाती थी। अभी किसी-किसी क्षेत्र में शुक्ला, चननचुड़ और चननचुड़ आदि की खेती शौक से की जाती है।
देसी प्रजातियों में लगता है ज्यादा समय और कम लागत
सहरसा जिला के महिषी प्रखंड स्थित झाड़ा गांव के 66 वर्षीय किसान सत्तन कामत बताते हैं, “देशी प्रजातियों के धान की खेती में ज्यादा समय लगता था तथा उपज भी कम होती थी। हाइब्रिड धान 120 दिनों यानी 3-4 महीने के अंदर तैयार हो जाता है, जबकि देसी धान में 4-5 महीने का वक्त लग जाता है। साथ ही देसी धान एक कट्ठा में 10 से 11 मन होता है जबकि हाइब्रिड धान 15 से 20 मन होता है।”
वह आगे कहते हैं, “देसी धान में बीज खरीदने की जरूरत नहीं होती है, जबकि हाइब्रिड धान का बीज खरीदना पड़ता है। एक बीघा में कम से कम हजार रुपए का बीज लगता है। इसके साथ ही देसी धान में सिर्फ यूरिया का उपयोग किया जाता था, हाइब्रिड धान में यूरिया के साथ तमाम प्रकार के खाद का उपयोग हो रहा है। देसी धान की तुलना में हाइब्रिड धान में पानी भी ज्यादा लगता है। पुराने लोगों को मोटा अनाज पसंद था। खाने में अभी के लोगों को हाइब्रिड धान का अनाज अच्छा लगता है, लेकिन नुकसान देह हाइब्रिड चावल ज्यादा होता है। इन तमाम कारणों की वजह से देसी धान विलुप्त हो रहा है।”
“अभी एक बीघा धान की खेती करने में लगभग 5000 रुपए खर्च होते हैं। खाद खोजने से मिल नहीं रहा है। 250 रुपए के खाद के लिए 350 से 400 रुपए देना पड़ रहा है। लगभग 7-8 साल पहले देशी धान की खेती में 1000 रुपए प्रति बीघा लगते थे। श लेकिन धान कम होने की वजह से छोटे किसान धान बेच नहीं बेच पाते थे,” सहरसा जिला के बनगांव गांव के 58 वर्षीय रामशंकर खां बताते है।
हाइब्रिड धान का प्रभाव
धान पर रिसर्च करने वाले साहित्यकार और भागलपुर जिला स्थित भदरिया गांव के परमानंद प्रेमी बताते हैं, “अनाज की परम्परागत प्रजातियों को हमारे पूर्वजों ने हमारी भौगोलिक स्थितियों के मुताबिक तैयार किया था। इस अनाज में कई बीमारियों से बचाने की क्षमता थी। देसी धान की किस्में हमारी परिवेश के मुताबिक ढल गई थीं।”
“कम बारिश होने पर भी आसानी से पक जाया करती थी। मध्य सितंबर के बाद अगर बारिश नहीं होती थी तो ओस से ही पक जाती थी। लेकिन अब नए किस्म के धान को हर साल अतिरिक्त पानी देने की जरूरत होती है। पानी और सिंचाई संसाधनों के अपव्यय के अलावा इसमें खाद और यूरिया भरपूर मात्रा में दी जाती है। सीमांचल के तरफ कई किसान मकई इतना ज्यादा खाद देकर उगा लेते हैं कि उन्हें वह खुद नहीं खाते हैं, सिर्फ बेचते हैं,” उन्होंने कहा।
वह आगे कहते हैं, “कुछ दिनों के बाद हाइब्रिड धान के साथ भी किसान यही करेंगे। वह स्वस्थ रहने के लिए देसी धान और व्यापार करने के लिए हाइब्रिड धान का उत्पादन करेंगे। परम्परागत देसी धान की किस्मों को इलाके के किसानों ने करीब-करीब भुला दिया है। आनेवाली पीढ़ी को स्वस्थ रखने के लिए परंपरागत धान को विलुप्त होने से बचाना पड़ेगा।”
“मोटे अनाज से फैंसी अनाज में आने का दुख है कि अंधाधुंध रासायनिक खादों और जहरीले कीटनाशकों के उपयोग से धरती की उर्वरक क्षमता खत्म हो रही है। अभी सुपौल में देखिए, खाद के लिए लंबी लंबी लाइन लग रही है। इसके बावजूद खाद नहीं मिल रहा है। चावल के अलावा देसी मक्का और बाजरा भी धीरे-धीरे विलुप्त होता जा रहा है। खेती में पानी और खाद के अंधाधुंध उपयोग से रोकने और जीवन शैली और खानपान की पद्धतियों को बेहतर बनाने के लिए खेती के परंपरागत ज्ञान को सहेजना और देसी अनाजों को विलुप्त होने से बचाना पड़ेगा,” सुपौल जिले की पिलुवाहा पंचायत के 27 वर्षीय चंदन कुमार बताते हैं। चंदन भागलपुर स्थित बिहार कृषि विश्वविद्यालय से पढ़ाई कर रहे हैं।
मोटे चावल व अनाजों की मांग क्यों बढ़ी?
पूसा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर शंकर झा बताते हैं, “धान की देशी प्रजातियों में आयरन व जिंक प्रचुर मात्रा में होने की वजह से वे पौष्टिक हुआ करते थे। अभी कृषि अनुसंधान की वजह से बाजार में कई तरह के हाइब्रिड बीजों की भरमार है। देसी अनाज की उत्पत्ति जंगलों से हुई है। इस वजह से धान की पुरानी प्रजातियों में प्रतिरोधक शक्ति विकसित करते हुए जलवायु परिवर्तन के विपरीत और बाढ़ और सूखा से लड़ने की क्षमता थी। अगर देशी किस्म ही न बची तो हमारे देश का कृषि अनुसंधान भी प्रभावित होगा। अभी मधुमेह के अलावा कई प्रकार की बीमारियां तेजी से बढ़ रही है। इस वजह से कई डॉक्टर मोटा अनाज मसलन देसी चावल, बाजरे का रोटी और मक्का खाने की सलाह दे रहे हैं। इस वजह से मोटे चावल व अनाजों की मांग बाजार में बढ़ रही है।”
मोटे अनाज की खेती पर कृषि विभाग दे रहा जोर
मोटे अनाजों की बुआई कम होने से बीज गोदामों पर उपलब्ध हो पाता है। इस वजह से भी कई किसान खेती नहीं कर पा रहे हैं। विलुप्त हो रहे मोटे अनाज को देखते हुए बिहार कृषि विभाग इसकी खेती को बढ़ावा देने के लिए सहायता दे रहा है। मोटे अनाज मुख्य रूप से गरीब कृषि जलवायु क्षेत्रों, विशेष रूप से देश के वर्षा क्षेत्रों में उगाए जाते हैं। कोसी क्षेत्र इस वजह से भी सरकार की नजरों में है।
कृषि विभाग की तरफ से किसानों को मुख्यमंत्री तीव्र बीज विस्तार योजना के तहत गेहूं, दलहन और मोटे अनाज के बीज पर 90 फीसदी सब्सिडी उपलब्ध करवाई जा रही है।
मुख्यमंत्री तीव्र बीज विस्तार योजना।@saravanakr_n @KumarSarvjeet6#BiharAgricultureDept pic.twitter.com/t6IcggAhm7
— Agriculture Department, Govt. of Bihar (@Agribih) December 21, 2022
भारत दुनिया का सबसे बड़ा मोटे अनाज का उत्पादक देश है। मोटे अनाज कम उपजाऊ मिट्टी में भी अच्छी उपज दे सकते हैं। इस वजह से बिहार कृषि विश्वविद्यालय में मोटे अनाज को मैदा के विकल्प के तौर पर उपलब्ध कराने की तैयारी चल रही है।
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बिहार कृषि विश्वविद्यालय पढाई कर रहे सुपौल जिले के पिलुवाहा पंचायत के 27 वर्षीय चंदन कुमार बताते हैं कि यूनिवर्सिटी में स्थानीय युवाओं और निर्माण एजेंसियों को इसका प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
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