“2005-2007 तक पूरी पंचायत में लगभग 30-35 बीघे में मक्के की खेती होती थी। अभी 5 बीघा में भी शायद ही की जाती होगी। मुझे याद हैं, सिर्फ मेरे यहां लगभग 2 बीघा में मक्के की खेती की जाती थी। लगभग 20-30 मजदूर महिलाएं 5 से 7 दिन मक्का के भुट्टे से दानों को हटाती थीं। मक्का अधिकांश गांव के व्यापारी ही ले जाते थे। वो पूर्णिया और नेपाल के बाजार में बेचते थे” सुपौल जिला की लोकहा पंचायत के रहने वाले 44 वर्षीय उपेंद्र मंडल बताते हैं।
लोकहा पंचायत से लगभग दो किलोमीटर पश्चिम स्थित वीणा पंचायत के अनुप राय बटाईदार किसान के रूप में 10 बीघा जमीन पर खेती करते हैं। वह बताते हैं, “साल 2007 तक मैं खुद लगभग 5 बीघे से ज्यादा खेत में मक्के की खेती करता था। अभी सिर्फ 10 कट्ठे में मक्के की खेती करता हूं। वो भी खाने के उद्देश्य से ना कि बेचने के उद्देश्य से।”
गेहूं और धान की तुलना में मक्का, किसानों को ज्यादा फायदा देता है। इसके बावजूद कोसी क्षेत्र के किसान मक्के की खेती से दूर हो रहे हैं। कृषि विभाग के मुताबिक, राज्य में आठ जुलाई तक केवल 31.84 लाख हेक्टेयर में मक्के की बुआई हुई थी, जबकि पिछले साल इसी अवधि में 41.63 लाख हेक्टेयर में मक्के की बुआई की गई थी। यानी इस बार मक्के की खेती में 23.53 फीसदी की गिरावट आई है।
अक्टूबर में फिर से मक्के की बुआई शुरू हो गई है। इस बार कृषि विभाग ने 40,5357 हेक्टेयर का लक्ष्य रखा था, लेकिन, पांच सितंबर तक 33,2845 हेक्टेयर में मक्के की बुआई हुई है।
क्यों किसान मक्का से मुंह मोड़ रहे
“मक्के को अमीरों की फसल कहा जाता है। मतलब जितना ज्यादा खाद और उर्वरक का उपयोग किया जाएगा, उत्पादन उतना ज्यादा होगा। आज के समय में धान और गेहूं को ठीक मात्रा में उर्वरक सरकार नहीं दे पा रही है, तो मक्के के लिए कहां से देगी। आप रुपए लगाकर मक्के की खेती कर लीजिए फिर अचानक बाढ़ और सूखा आपकी पूरी फसल को बर्बाद कर दे रहे हैं। इससे किसान हतोत्साहित हो जाते हैं। एक तो फसल बर्बाद हुई, उस पर इतना सारा रुपया। इसके अलावा चोरी होने की वजह से भी किसानों ने इस फसल को छोड़ा। आम की तरह ही मक्के के खेत में किसानों को रात-रात भर जग कर उसकी सुरक्षा करनी पड़ती थी। अभी कौन फसल की चोरी रोकने के लिए रात भर जगे। यह भी एक मुख्य वजह थी,” सहरसा जिले की महिषी पंचायत के समाजसेवी और किसान नितिन ठाकुर बताते हैं।
जलवायु परिवर्तन का असर मक्का किसानों पर भी भरपूर पड़ रहा है। मक्के की खेती में पानी और सूर्य की रोशनी दोनों भरपूर मात्रा में चाहिए। लेकिन पिछले कुछ सालों में बाढ़ और सुखाड़ की स्थिति को देखें, तो इस साल बिहार में बाढ़ ही नहीं आई, वहीं पिछले साल 3 बार बाढ़ आई। इस वजह से मक्के की बुआई और कटाई में देरी हो रही है। मतलब जलवायु परिवर्तन का पूरा असर खेती पर पड़ रहा है। वहीं, पिछले तीन-चार सालों से किसानों को भरपूर मात्रा में खाद और यूरिया नहीं मिलने से भी काफी नुकसान हुआ है।
नीलगायों का उत्पात भी वजह
जलवायु परिवर्तन होने की वजह से बार-बार सुखाड़ और बाढ़ तथा चोरी होने के कारण किसान मक्का की खेती तो छोड़ रहे हैं, इन सबके अलावा भी एक मुख्य वजह है जिसने मक्का के अलावा कई फसलों को छोड़ने पर किसानों को मजबूर किया है। सुपौल जिले की परसोनी पंचायत के श्याम सुंदर बताते हैं, “नीलगाय से परेशानी की समस्या लगभग सात-आठ साल पहले शुरू हुई थी। नीलगायों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि धान, गेहूं और मूंग दाल की फसल को छोड़कर कोई फसल लगाना बेवकूफी है। चारों तरफ से घेरने के बाद ही मक्का जैसी महंगी फसल और सब्जी लगाई जा सकती है। नीलगाय की वजह से कई किसानों ने मकई, मटर और खेसारी की खेती ही छोड़ दी है। वन विभाग के अधिकारियों के अलावा डीएम को भी कई बार आवेदन दिया गया। कोई फायदा नहीं हुआ।”
सहरसा जिले की महिषी पंचायत के वार्ड नंबर 11 के सुंदरकांत झा बताते हैं, ” साल 2019 या 2020 में गांव के अधिकांश किसानों ने हाइब्रिड बीज एलजी 34.05 से मक्का की खेती की थी। ठीकठाक यूरिया और खाद भी दिया। फसल भी एकदम बेहतरीन लग रही थी, लेकिन जब दाना आने की बारी आई, तो देखा कि उसमें दाना ही नहीं था। धान और गेहूं में इस तरह की समस्याएं नहीं आती है।”
मक्का उत्पादन का भविष्य कितना सुनहरा?
‘मक्का आधारित उद्योग लगा तो बदल जाएगी सूरत’ ये टैगलाइन मक्का किसानों के लिए लगभग सभी मीडिया एजेंसी की हेडलाइंस रहती है। लेकिन इस हेडलाइन की वास्तविक सच्चाई क्या है? पूर्णिया मक्का उत्पादन का हब है। यहां मक्के का उत्पादन सबसे अधिक होता है।
पूर्णिया के रहने वाले पत्रकार और लेखक गिरीन्द्र नाथ झा अभी किसानी के साथ साथ लेखन भी करते हैं। वह बताते हैं, “मेनस्ट्रीम मीडिया की मक्का पर खबर झूठी है। ख़बरों में बताया जाता है कि अगर मक्का प्रोसेसिंग यूनिट लग जाए, तो कोसी और सीमांचल इलाके में पॉपकॉर्न, स्वीट कॉर्न, कॉर्न फ्लेक्स और चिप्स बनेगा। हालांकि, सच यह है कि सीमांचल और कोसी इलाके में उपज रहे मक्के से सिर्फ पशुओं और पक्षियों का चारा बन सकता हैं। क्योंकि यहां के मक्का की क्वालिटी उतनी बेहतर नहीं है जितनी आंध्र प्रदेश के मक्के की है।”
वहीं, पूसा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक शंकर झा के अनुसार, पहले कोसी और सीमांचल के मक्के की गुणवत्ता बेहतरीन होती थी। जलवायु परिवर्तन और रासायनिक खाद का बहुत ज्यादा होने से मक्के की गुणवत्ता घटी है। जैविक तरीके से मक्के की गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है। क्योंकि अगर गुणवत्ता नहीं सुधरी, तो मक्के का बाजार खत्म हो जाएगा।
मक्का आधारित उद्योग संभव नहीं
बिहार सरकार के द्वारा सालों से सीमांचल और कोसी इलाके में मक्का आधारित उद्योग लगाने का वादा किया जाता है। लेकिन पूर्णिया और सुपौल में इथेनॉल फैक्ट्री लगाने के वादे के अलावा अभी तक धरातल पर कुछ खास नहीं हो पाया है।
मधुबनी मिथिला रेडियो के संस्थापक और कृषि विशेषज्ञ राज झा के मुताबिक बिहार में मक्का आधारित उद्योग लगाना संभव नहीं है। राज झा बताते हैं, “जहां वस्तु का उपयोग होगा, वहां उद्योग लगाना चाहिए। बिहार में उत्पादित हो रहा लगभग 60% मक्का तमिलनाडु, कोलकाता, उत्तराखंड, दिल्ली, राजस्थान में जाता है दया 20% यूक्रेन, वियतनाम, म्यांमार, भूटान, नेपाल और बांग्लादेश। यहां से पशु चारा बनाकर भेजा जाए कि मक्का? मक्का एक बार ही भेजा जाएगा, लेकिन पशु चारा बार-बार भेजना पड़ेगा। परिवहन की वजह से चारे का दाम बढ़ जाएगा। फिर चारे के दाम को संतुलित करने के लिए कारोबारी, किसानों से बहुत ही कम दाम पर मक्का लेगा।”
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मक्का किसानों के लिए वरदान बनेगा एथेनॉल प्लांट?
बिहार के पूर्व उद्योग मंत्री शाहनवाज हुसैन की कोशिश पर 2022 के मई महीने में बिहार में देश का पहला ग्रीनफील्ड ग्रेन बेस्ड इथेनॉल प्लांट पूर्णिया शहर में लगाया गया। सुपौल में भी बहुत जल्द लगने वाला है। सरकार का दावा है कि राज्य में पहले ग्रीनफील्ड ग्रेन बेस्ड इथेनॉल प्लांट की शुरुआत होने से सीमांचल क्षेत्र के अररिया, पूर्णिया, कटिहार और किशनगंज में विकास की गति और तेज होगी।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक पूर्णिया प्लांट में तैयार इथेनॉल की सप्लाई इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम और हिन्दुस्तान पेट्रोलियम जैसी कंपनियों को किया जाएगा। इसके लिए कंपनियों से 10 साल का करार किया गया है। बिहार को वर्तमान में 36 करोड़ लीटर सालाना एथेनॉल आपूर्ति का कोटा मिला है। इसके लिए सालाना 130 टन चावल की भूसी के साथ 145-150 टन मक्का या चावल सीधे सीमांचल और कोसी इलाकों के किसानों से खरीदा जाएगा।
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