किशनगंज बिहार के सबसे पिछड़े ज़िलों में से एक है, लेकिन इस ज़िले में शतरंज के बेहतरीन खिलाड़ी मौजूद हैं। कह सकते हैं कि किशनगंज न केवल राज्य में शतरंज में अव्वल है, यहां का शतरंज संघ भी बिहार के सबसे पुराने जिला संघ में से एक है।
किशनगंज हर साल बिहार को राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के लिए दर्जनों खिलाड़ी देता है। सवाल है कि सीमांचल के इस छोटे से ज़िले में प्रतिभा की कमी ना होने के बावजूद क्यों अब तक यह जिला एक भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का शतरंज खिलाड़ी नहीं दे सका?
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विगत 19 जून को दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में पहली बार आयोजित होने वाले शतरंज ओलंपियाड का मशाल रिले लॉन्च किया। आगामी 28 जुलाई से पहली बार शतरंज ओलंपियाड की मेज़बानी करेगा भारत। तमिलनाडु के चन्नई में 190 देश के खिलाड़ी अपनी प्रतिभा का जौहर दिखाएंगे।
इतिहासकारों के अनुसार प्राचीन भारत में शतरंज खेल को चतुरंग का नाम दिया गया था। जब मध्य पूर्व और पश्चिम देश का भारत में आना जाना बढ़ा, तो इस खेल को उन्होंने शतरंज (Chess) का नाम दिया। भारत में जन्मे शतरंज के खेल में भारत की विश्व में चौथी रैंकिंग है।
भारत में इस समय 74 ग्रैंड मास्टर हैं लेकिन उनमे से एक भी बिहार से नहीं है। किशनगंज इंडोर स्टेडियम में स्थित किशनगंज जिला शतरंज संघ के कई खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर पर बिहार का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।
1996 में स्थापित हुए किशनगंज जिला शतरंज संगठन (District Chess Association Kishanganj) ने बीते पिछले दिनों जिला स्तरीय शतरंज प्रतियोगिता का आयोजन किया।
संघ के संस्थान और अध्यक्ष शंकर नारायण दत्ता ने मौके पर मैं मीडिया से बताया कि 2003 में उनके संगठन को किशनगंज के इंडोर स्टेडियम में बच्चों को शतरंज सीखने और प्रतिस्पर्धाओं का आयोजन करवाने की अनुमति मिली। तब से अब तक दर्जनों खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर पर बिहार का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।
ज़िला शतरंज संगठन किशनगंज (District Chess Association Kishanganj) में सबसे पहली शतरंज प्रतियोगिता में चार खिलाडियों ने भाग लिया था। लगभग 26 साल बाद इस एसोसिएशन से आज सैकड़ों बच्चे जुड़े हैं । दर्जनों बच्चे किशनगंज इंडोर स्टेडियम में हर रविवार शतरंज सीखने और खेलने आते हैं।
पिछले दिनों 19 साल के मुकेश कुमार ने अंडर19 स्टेट चैंपियनशिप का खिताब जीता। मुकेश कुमार ने मैं मीडिया से बातचीत के दौरान अपने खेल और उसे जुड़े उनके सपनों के बारे में बात की। 19 साल के मुकेश का सपना है इंटरनेशनल मास्टर बनने का।
आपको बताते चलें कि इंटरनेशनल मास्टर बनने के लिए एक खिलाड़ी को 2400 रैंकिंग प्वाइंट अर्जित करनी होती है।
भारत में फिल्हाल 125 इंटरनेशनल मास्टर्स हैं तथा 45 महिला इंटरनेशनल मास्टर्स हैं। इस लिस्ट में भी बिहार का कोई नहीं है। वर्तमान में किशनगंज जिला शतरंज संघ के करीब आधा दर्जन ऐसे खिलाड़ी हैं जिनकी रेटिंग 1200 से अधिक है।
सुरुनॉय दास, धानवी कर्माकर, मुकेश कुमार, रोहन कुमार, ऋतिक मुजुमदार, श्रुतिका दास जैसे दरजनो खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर पर खेल चुके हैं तथा राज्य इस्तर पर चैंपियन रह चुके हैं।
कुछ ही वर्ष पूर्व किशनगंज के ही श्रेया दास को भारत के 300 सर्वश्रेष्ठ महिला शतरंज खिलाड़ी की सूची में शामिल किया गया था।
मुकेश कुमार की तरह 12 साल के आयुष कुमार भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की तरफ से शतरंज खेलने का ख्वाब सजाए हर रविवार किशनगंज के इंडोर स्टेडियम पहुँचते हैं।
कोरोना काल में शतरंज
2020 के मार्च में और 2021 के अप्रैल में लॉकडाउन लगने के बाद महीनों तक किशनगंज का इंडोर स्टेडियम बंद रहा। ऐसे में खिलाड़ियों का प्रैक्टिस करना और भी मुश्किल हो गया था। जिला शतरंज संघ किशनगंज ने बच्चों को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर खेलने के लिए प्रेरित किया।
किशनगंज के बच्चों को उनसे बेहतर खिलाड़ियों से ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर सीखने और खेलने का मौक़ा मिला । पेशे से रिटाईड बैंक कर्मचारी, ज़िला शतरंज संघ के संस्थापक शंकर नारायण मानते हैं कि इससे किशनगंज के बच्चों के खेल में और निखार आया है। पिछले कुछ महीनों में किशनगंज के बच्चे भारत के कई हिस्सो में राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर लगातार अच्छा खेल दिखा रहे हैं।
राष्ट्रीय से अंतरराष्ट्रीय स्तर का सफर मुश्किल क्यों?
किशनगंज कभी भी खेलकूद के लिए नहीं जाना गया है। हालांकि शतरंज में किशनगंज के राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों की सूची देखने पर पता लगता है कि शहर में प्रतिभा कूट कूट के भरी हुई है।
फिर सवाल है कि इतना टैलेंट है तो शहर से एक भी इंटरनेशनल खिलाड़ी क्यों नहीं है?
इस बात का जवाब ढूंढते ढूंढते मैं मीडिया की नज़र ठहरी अंतरराष्ट्रीय शतरंज संगठन द्वारा पर्माणित कमल कर्माकर पर, जो जिला शतरंज संघ के ट्रेनर हैं।
उनकी मानें तो राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचने के लिए किसी भी खिलाड़ी को प्रतिभा और परिश्रम दोनों चाहिए होती है, लेकिन वहां से आने का सफर इस बात पर निर्भर करता है कि खिलाड़ी के घर वालों के पास कितना पैसा है।
कमल कहते हैं कि शतरंज कतई एक सस्ता खेल नहीं है। इसमें बाहर के शहरों और राज्यों तक का सफर करना पड़ता है। काफ़ी खर्च भी आता है।
कोचिंग से लेकर प्रतियोगिता की जगह तक पहुंचना और वहां रहना, इन सब में काफ़ी पैसे की ज़रूरत होती है।
उन्होंने ये भी कहा कि प्रशासन या खेल विभाग के पास खेल विकास कार्य के लिए कोई फंड नहीं है। ऐसे में सारा खर्च घर वालों को उठाना पड़ा है।
‘मैं मीडिया’ ने इस बारे में जिला खेल प्रबंधन का ज़िम्मा संभाल रहे रवींद्र कुमार रमन से बात की।
रवींद्र कुमार रमन का कहना है कि खेल के विकास के लिए उनके पास किसी तरह का कोई फंड नहीं आता। इतना ही नहीं उनके अनुसर खेल कूद विभाग के पास तो इतना भी फंड नहीं के जिला स्तरीय खेलकूद विभाग के दफ्तर के लिए कुर्सी टेबल खरीदी जा सके।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किशनगंज के खिलाड़ी की गैर मौजूदगी के और क्या कारण हो सकते हैं? इस सवाल का जवाब खिलाड़ियों के परिजनों से मिला।
राजेश कुमार दास सुरुनॉय दास के पिता हैं। सुरुनॉय ने पिछले महीने स्टेट लेवल चैंपियनशिप में दूसरा मुक़ाम हसिल किया था। राजेश दास मानते हैं कि पैसे की कमी के साथ साथ एक दिक़्क़त यह भी आती है कि प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए शतरंज खिलाडिय़ों को अक्सर दूसरे शहर जाना पड़ता है, ऐसे में उनके स्कूल की उपस्थिति कम होती है जिस से बाद में बच्चों को मुश्किलें आती हैं।
शतरंज जैसे खेल में बचपन से ही परिश्रम की जरूरत पड़ती है। ऐसे में स्कूल और पढ़ाई का नुकसान होना आम बात है।
इस सवाल पर कमल कर्माकर ने कहा के शतरंज से बच्चों का दिमाग बचपन में ही तेजी से विकसित होता है। शतरंज खेलने वाले बच्चे किसी औसत बच्चे से ज्यादा तेजी से पाठ्यक्रम को समझ लेते हैं।
आयुष कुमार और मुकेश कुमार ने भी इस बात का ज़िक्र किया कि शतरंज खेलने से उनके पढ़ने लिखने में और निखार आया है।
शतरंज, पज़ल की ही तरह एक ऐसा खेल है जिसमें मस्तिष्क को अधिक काम करना पड़ता है। शतरंज संघ के अध्यक्ष एस नारायण दत्ता का मानना है कि शतरंज खेलने से खिलाड़ियों के संज्ञानात्मक कौशल और तर्क शक्ति बढ़ जाते हैं।
न्यूरोलॉजिकल साइंस में ऐसे कई शोध हुए हैं जिनसे पता चलता है कि शतरंज खेलने से दिमाग के दोनोें साइड यानी राइट हेमिस्फेयर और लेफ्ट हेमिस्फेयर एक्टिव हो जाते हैं।
कई शोधों में यह भी पाया गया कि शतरंज खेलने वालों में ऐसे लोग बहुत कम हैं जिन्हे अल्जाइमर जैसी बीमरियों से जुझना पड़ा।
“क्रिकेट ने बाकी खेलों का दम निकाल दिया है”
कमल कर्माकर ने शतरंज में सीमांचल के खिलाडिय़ों की प्रशंसा करते हुए भी इस बात का दुख जताया कि ढेरों प्रतिभावान खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं पहुँच पा रहे हैं।
उनके अनुसर देश में सबसे ज्यादा तवज्जो क्रिकेट पर दी जाती है और बहुत सारा पैसा क्रिकेट की झोली में आता है जबकि शतरंज जैसे खेलों के हिस्से में कुछ बचता नहीं। कमल कहते हैं कि जिस देश के सारे उद्योगपति क्रिकेट में पैसे लगाने की होड़ में रहते हैं, उसी देश में शतरंज खिलाडी ज़मीन बेच बेच कर टूर्नामेंट खेलने जाते हैं, उन्हें कोई स्पॉन्सर तक नहीं मिलता। उनके अनुसार क्रिकेट ने बाक़ी खेलों का दम निकाल दिया है।
कमल कर्माकर ने आगे कहा, “क्रिकेट खेलने के लिए केवल लकड़ी का बल्ला और गेंद चाहिए लेकिन, शतरंज के लिए बहुत अधिक मेहनत और एकाग्रता की ज़रूरत होती है। पढ़ा लिखा होना भी जरूरी है और इतनी मेहनत करने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर पहुँच भी जाएं तो आर्थिक समस्याएं बच्चों को आगे बढ़ने से रोकती हैं”
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