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कौन हैं बिहार में 65% आरक्षण ख़त्म करने के लिये हाईकोर्ट जाने वाले याचिकाकर्ता?

कोर्ट के रिकॉर्ड बताते हैं कि आरक्षण की सीमा बढ़ाने के फैसले के खिलाफ पटना हाईकोर्ट में कुल 11 याचिकाएं डाली गई थीं। इन याचिकाकर्ताओं में वकील, आरक्षण विरोधी संगठन यूथ फॉर इक्वालिटी और कुछ स्वतंत्र लोग शामिल हैं, जो सवर्ण जातियों से जुड़े संगठन चलाते हैं। दिलचस्प है कि इनमें से कई याचिकाएं तो काफी बाद में डाली गई, जब सुनवाई चल रही थी।

Reported By Umesh Kumar Ray |
Published On :
who are the petitioners who went to the high court to end 65% reservation in bihar

जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट के आधार पर अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अतिपिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के लिए आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर देने के बिहार सरकार के फैसले को पटना हाईकोर्ट ने ‘कानूनन खराब’ बताकर रद्द कर दिया।


गौरतलब हो कि बिहार सरकार ने ओबीसी का आरक्षण 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 प्रतिशत कर दिया था। वहीं ईबीसी का आरक्षण 18 प्रतिशत से बढ़ाकर 25 प्रतिशत, अनुसूचित जाति का आरक्षण 16 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत व अनुसूचित जनजाति के आरक्षण का दायरा एक प्रतिशत से बढ़ाकर दो प्रतिशत कर दिया था।

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ये फैसला जाति गणना में सामने आये आंकड़ों के आधार पर लिया गया था, जो बताता है कि बिहार में ओबीसी की आबादी 27.12 प्रतिशत, ईबीसी की आबादी 36.01 प्रतिशत, अनुसूचित जाति की आबादी 19.65 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति की आबादी 1.68 प्रतिशत है।


पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस हरीश कुमार ने 20 जून को लगभग 80 पेज के अपने फैसले में कहा कि आरक्षण में संशोधन संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) का उल्लंघन करते हैं। अदालत ने तीन कारणों के आधार पर आरक्षण की सीमा बढ़ाने के फैसले को रद्द किया है। कोर्ट ने कहा कि आरक्षण के लिए 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा है; आरक्षण केवल पिछड़े वर्गों की जनसंख्या के अनुपात पर आधार है (आनुपातिक आरक्षण) और राज्य/प्रतिवादी ने संशोधन अधिनीयमों के तहत आरक्षण बढ़ाने से पहले कोई विश्लेषण या गहन अध्ययन नहीं किया।

कोर्ट ने कहा, “आंकड़ों का वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं किया गया और न ही जुटाये गये आंकड़ों का विश्लेषण करने के लिए किसी विशेषज्ञ की नियुक्ति की गई। हमें इस बात की चिंता है कि संशोधन अधिनियम लाने में सरकार या विधानमंडल द्वारा कोई प्रक्रिया या विश्लेषण नहीं किया गया। आंकड़े जुटाने के बाद संशोधन में राज्य की सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व को 50 प्रतिशत से बढ़ाने की बात कही गई; हमने पाया कि यह स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के तहत स्वीकार्य नहीं है।”

पिछले साल नवम्बर में लागू हुआ था नया आरक्षण

पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने के निर्णय के बीज 2022 में ही पड़ गये थे, जब बिहार सरकार ने राज्य में जातिगत सर्वेक्षण कराने का निर्णय लिया था। हालांकि, पहले बिहार सरकार इसे जाति जनगणना ही बता रही थी, लेकिन जब इसे अदालत में चुनौती दी गई, तो बिहार सरकार ने दलील दी कि यह जनगणना नहीं बल्कि सर्वेक्षण है।

बिहार सरकार ने 1 जून 2022 को राज्य में जातिगत सर्वेक्षण कराने का फैसला लिया और अगले साल की शुरुआत में ही सर्वेक्षण शरू हो गया। अप्रैल तक सर्वेक्षण का काम लगभग पूरा होने की कगार पर था, कि इसके खिलाफ पटना हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी गई। ‘मैं मीडिया’ ने याचिकाकर्ताओं को लेकर एक विशेष रिपोर्ट की थी, जिसमें बताया था कि इस सर्वेक्षण को रोकने के लिए जिन लोगों ने याचिकाएं डाली थीं, उनके भाजपा व राष्ट्रीय स्वयं सेवक से गहरे संबंध हैं।

इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए अदालत ने सर्वेक्षण पर रोक लगा दी थी, लेकिन बिहार सरकार ने इसे चुनौती दी जिसके बाद अदालत ने सर्वेक्षण के खिलाफ दाखिल याचिकाओं को ही खारिज कर दिया। इससे सर्वेक्षण का रास्ता साफ हो गया।

साल 2023 में 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के मौके पर बिहार सरकार ने सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की, जिससे व्यापक राजनीतिक बहसें शुरू हुईं। इस रिपोर्ट में न केवल जातियों की संख्या के आंकड़े दिये गये थे बल्कि उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को लेकर भी कुछ पुख्ता डेटा थे। इन सामाजिक आर्थिक आंकड़ों के आधार पर अगले महीने बिहार सरकार ने ओबीसी, ईबीसी, एससी और एसटी के लिए सरकारी नौकरियों व सरकारी संस्थानों में नामांकन में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से बढ़ाने का फैसला लिया। इसको लेकर तुरंत बिहार विधानमंडल में सर्वसम्मति से विधेयक भी पारित कर दिया गया और 22 नवम्बर, 2023 को इस आशय को लेकर अधिसूचना जारी कर दी गई।

अधिसूचना जारी होने के साथ ही इस फैसले की मुखालफत भी होने लगी और पटना हाईकोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गईं।

आरक्षण की सीमा बढ़ाने के खिलाफ याचिकाएं

कोर्ट के रिकॉर्ड बताते हैं कि आरक्षण की सीमा बढ़ाने के फैसले के खिलाफ पटना हाईकोर्ट में कुल 11 याचिकाएं डाली गई थीं। इन याचिकाकर्ताओं में वकील, आरक्षण विरोधी संगठन यूथ फॉर इक्वालिटी और कुछ स्वतंत्र लोग शामिल हैं, जो सवर्ण जातियों से जुड़े संगठन चलाते हैं। दिलचस्प है कि इनमें से कई याचिकाएं तो काफी बाद में डाली गई, जब सुनवाई चल रही थी।

ऐसे ही एक याचिकाकर्ता अंजनी कुमार तिवारी हैं, जो आरा जिले के रहने वाले हैं। पेशे से वकील अंजनी परशुराम सेवा संघ नाम से एक संगठन चलाते हैं। सूत्रों का कहना है कि वे भाजपा समर्थक हैं, लेकिन अंजनी इससे इनकार करते हुए कहते हैं, “किसी भी राजनीतिक संगठन से मेरा किसी तरह का कोई जुड़ाव नहीं है।”

उनके साथ बातचीत से पता चलता है कि वह वर्गीय आधार पर आरक्षण के खिलाफ हैं। वह कहते हैं, “वंचित समुदाय में किसी एक वर्ग के लोग नहीं होते हैं। वे सभी जातियों में हो सकते हैं। ऐसे में वर्ग के आधार की जगह एक आकलन हो और जिस भी जाति के लोग आर्थिक तौर पर पिछड़े हैं, उन्हें आरक्षण दिया जाए।”

वह मानते हैं कि वंचित तबके को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए आरक्षण की जगह उन्हें शिक्षित किया जाना चाहिए। अंजनी कुमार तिवारी जनकल्याणकारी योजनाओं के खिलाफ हैं। उन्होंने कहा, “सरकार पिछड़े समुदाय में अनाज बांट रही है। उन्हें घर बैठे सबकुछ मिल रहा है, तो जाहिर है कि उनके बच्चे नहीं पढ़ेंगे क्योंकि अगर वे पढ़ेंगे, तो उनकी आर्थिक और सामाजिक हैसियत बढ़ेगी, जिसे उन्हें ये लाभ मिलना बंद हो जाएगा।

एक अन्य याचिकाकर्ता भागवत कुमार शर्मा सवर्ण सेना नाम का संगठन चलाते हैं और फिलहाल वह इस संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। उन्होंने 4 दिसम्बर 2023 को याचिका दायर की थी और उन्होंने पीके शाही को वकील रखा था, जो पूर्व में बिहार सरकार के वकील हुआ करते थे और जाति सर्वेक्षण के खिलाफ जो याचिकाएं डाली गई थीं, उनके खिलाफ सरकार की तरफ से उन्होंने ही दलीलें पेश की थीं।

भागवत कुमार शर्मा कहते हैं, “आरक्षण का 50 प्रतिशत का दायरा बढ़ाकर 65 प्रतिशत करना संविधान के खिलाफ है, इसलिए हमलोग हाईकोर्ट गये थे। हमलोग सवर्ण सेना चलाते हैं और हमें 10 प्रतिशत सवर्ण (आर्थिक रूप से कमजोर तबका) आरक्षण मिला हुआ है, हमलोग भी चाहें, तो अधिक आरक्षण मांग सकते हैं, लेकिन हमलोग 10 प्रतिशत आरक्षण से खुश हैं।”

भागवत ने कहा कि वह आरक्षण का दायरा बढ़ाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ेंगे। “हमें पता चला है कि पटना हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ बिहार सरकार, सुप्रीम कोर्ट जाएगी, इसलिए हमलोगों ने सुप्रीम कोर्ट में कैविएट याचिका दायर कर दी है,” उन्होंने कहा।

कैविएट याचिका डाले जाने पर यदि कैविएट याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई आवेदन अदालत में जाता है, तो अदालत की तरफ से उक्त याचिकाकर्ता को नोटिस जाता है। यानी कि अगर बिहार सरकार पटना हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगी, तो इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट, भागवत कुमार शर्मा के खिलाफ भी नोटिस जारी करेगा।

‘हम 50% आरक्षण के पक्ष में, दायरा बढ़ाना असंवैधानिक’

आरक्षण का दायरा बढ़ाने के फैसले के खिलाफ सबसे पहली याचिका दो वकीलों नमन श्रेष्ठ और गौरव कुमार ने डाली थी, जो मूल रूप से बिहार के रहने वाले हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे हैं।

दोनों का जुड़ाव किसी संगठन से नहीं है। नमन श्रेष्ठ कहते हैं, “संविधान में आरक्षण की सीलिंग 50 प्रतिशत है, ऐसे में आरक्षण का दायरा बढ़ाना संविधान के खिलाफ है, इसलिए हमलोग हाईकोर्ट गये थे। हमलोग 50 प्रतिशत आरक्षण के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन आरक्षण का दायरा बढ़ाने के खिलाफ हैं। और सरकार ने दायरा बढ़ाया भी तो किसी विशेषज्ञ से इसको लकेर रायशुमारी नहीं की गई।”

वहीं, यूथ फाॅर इक्वालिटी की बात करें तो ये संगठन शुरुआत से ही आरक्षण विरोधी रहा है। बिहार में जातिगत सर्वेक्षण के खिलाफ कोर्ट जानेवालों में यूथ फाॅर इक्वालिटी भी शामिल था।

उल्लेखनीय हो कि पिछले साल नवम्बर में जब पटना हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई थी, तब बिहार में जदयू (जनता दल यूनाइटेड)-राजद (राष्ट्रीय जनता दल) की सरकार थी। उस वक्त जदयू सांसद ललन सिंह ने इन याचिकाओं के पीछे भाजपा का हाथ बताया था। उन्होंने कहा था, “यह सब भाजपा का काम है। पार्टी आरक्षण विरोधी है। इसने स्थानीय निकाय चुनावों में अत्यंत पिछड़े वर्गों के लिए कोटा को चुनौती देने के लिए अपने समर्थकों को शामिल किया था। लेकिन यह साजिश नाकाम कर दी गई और नगर निगम चुनाव ईबीसी के लिए आरक्षित सीटों के साथ हुए।”

लेकिन, अब जदयू ने इस पर चुप्पी साध रखी है। हालांकि बिहार के डिप्टी सीएम और भाजपा नेता सम्राट चौधरी ने कहा है कि सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगी। सम्राट चौधरी ने कहा है कि इस संबंध में वैधानिक विचार लेने के बाद बिहार सरकार इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी। बिहार में पिछड़े समुदायों, दलितों व आदिवासियों के आरक्षण का कोट निश्चित तौर पर बढ़ना चाहिए।

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Umesh Kumar Ray started journalism from Kolkata and later came to Patna via Delhi. He received a fellowship from National Foundation for India in 2019 to study the effects of climate change in the Sundarbans. He has bylines in Down To Earth, Newslaundry, The Wire, The Quint, Caravan, Newsclick, Outlook Magazine, Gaon Connection, Madhyamam, BOOMLive, India Spend, EPW etc.

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