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जब मायावती और मीरा कुमार के खिलाफ चुनाव लड़े थे राम विलास पासवान

रामविलास पासवान जिन्हे भारतीय राजनीति का मौसम वैज्ञानिक कहा जाता था, 74 साल की उम्र में उनका निधन हो गया है। वे पिछले कई दिनों से बेहद बीमार थे हाल में ही उनका हार्ट का ऑपरेशन हुआ था, दिल्ली के एस्कॉर्ट अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था

Reported By Sahul Pandey |
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[vc_row][vc_column][vc_column_text]रामविलास पासवान (Ram Vilas Paswan) का 74 साल की उम्र में निधन हो गया। वे पिछले कई दिनों से बेहद बीमार थे हाल में ही उनका हार्ट का ऑपरेशन हुआ था, दिल्ली के एस्कॉर्ट अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। उनके बेटे और राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के सुप्रीमो चिराग पासवान (Chirag Paswan) ने जैसे ही उनके निधन की खबर लोगों से ट्विटर पर शेयर की भारतीय राजनीति समेत पूरा भारत भी स्तब्ध रह गया। प्रधानमंत्री समेत देश के कई राजनीतिक हस्तियों ने उनके निधन पर दुःख व्यक्त किया है।

निश्चित ही रामविलास पासवान के निधन से देश और खासकर बिहार की राजनीति में बड़ा शून्य पैदा हुआ है। रामविलास की गिनती उन नेताओं में होती थी जिन्होंने अपनी सालों की मेहनत से बिहार की राजनीति में अपने लिए और अपनी पार्टी के लिए ज़मीन बनाई। वह इस समय केंद्र सरकार में मंत्री थे, करीब पांच दशक तक राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने वाले रामविलास को मौसम वैज्ञानिक भी कहा जाता था।

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अपने जाने से पहले ही रामविलास पासवान ने अपने दल लोक जनशक्ति पार्टी की कमान बेटे चिराग को सौंप दी थी। अध्यक्ष बने चिराग पासवान ही पार्टी से जुड़े सभी फैसले लेते हैं। हाल ही चिराग ने बिना बीजेपी और जेडीयू से मिलकर अकेले ही चुनाव लड़ने जैसा बड़ा और चौंकाने वाला फैसला किया है। तब नीतीश कुमार ने कहा था कि राम विलास पासवान से हमारे बेहद अच्छे सम्बन्ध हैं। हम उनका सम्मान करते हैं।

राम विलास पासवान का जाना बिहार समेत भारत की राजनीति में एक युग के ख़तम होने की तरह है। न सिर्फ लोक जनशक्ति पार्टी बल्कि बिहार की राजनीति और लोगों को भी ये स्वीकार करने में समय लगेगा कि रामविलास अब नहीं रहे. उनकी कमी खलती रहेगी। रामविलास का जन्म बिहार के खगड़िया जिला के शहरबन्नी गाँव में 5 जुलाई 1946 को हुआ था। पिता का नाम जामुन पासवान और मां का नाम सीया देवी था।

‘धरती गूंजे आसमान-रामविलास पासवान’, आप आज भी हाजीपुर व वैशाली के किसी क्षेत्र में इस नारे को बोल के देखिए आपके साथ उस नारे को दोहराने वाले कई मिल जाएंगे। जब भी रामविलास पासवान इस इलाके में कदम रखते हैं तो यह नारा जरूर सुनाई देता है। 1989 में किसी कार्यकर्ता के मुंह से निकला यह नारा, पासवान के साथ ही पूरे बिहार में काफी पॉपुलर हो गया।

रामविलास के राजनीतिक हैसियत क्या थी इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि साल 2004 में सोनिया गांधी खुद पैदल चलकर उनके 12 जनपथ आवास पर उनसे मिलने पहुंची थी। वो साल का पहला दिन यानी 1 जनवरी था, सोनिया गांधी अपने 10 जनपथ निवास से निकलती हैं, एसपीजी सुरक्षा के साथ गोलचक्कर को पैदल पार करती हैं और 12 जनपथ के गेट पर पहुंचती हैं। 12 जनपथ यानी रामविलास पासवान का आवास। सोनिया की यह छोटी सी पदयात्रा समसामयिक राजनीतिक इतिहास में एक बड़ी घटना बनकर उभरी। सोनिया गांधी को इससे पहले दिल्ली की सड़कों पर टहलते शायद ही किसी ने देखा था।

सोनिया ने रामविलास पासवान से कोई अपॉइंटमेंट नहीं लिया था। केवल उनके दफ्तर ने यह चेक किया था कि पासवान घर पर हैं या नहीं। वह बिना ऐलान किए, बिना किसी अपॉइंटमेंट और बिना किसी सूचना के वहां पहुंचीं। पासवान के लिए भी यह बेहद आश्चर्यजनक घटना थी, लेकिन वह सोनिया की गर्मजोशी, पहल और राजनीतिक सूझबूझ के कायल हो गए थे। पासवान की पार्टी उस वक्त अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर अनिश्चितता में थी और ऐसे में सोनिया का गठजोड़ बनाने के लिए उनके पास आना पासवान के लिए बड़ी बात थी। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है।

दिल्ली का 12 जनपथ एक बार फिर 2014 के चुनाव से ठीक पहले सुर्खियों में था। साल 2014, आम चुनाव से ठीक पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता रामविलास पासवान से मुलाकात करने आए थे। इस बैठक के बाद देर रात लोकसभा चुनाव में लोजपा और बीजेपी के गठबंधन की घोषणा हुई। वे एक ही वक्त में दो विपरीत छोरों पर खड़े लोगों के बीच सहज स्वीकार्य हो सकते थे। करीब पचास साल के राजनीतिक जीवन में उन्होंने ऐसा बखूबी कर दिखाया है।

 

सिविल सेवा से राजनीति

रिकार्ड वोटों से जीतने वाले, रिकार्ड नंबर आफ सरकार में रहने वाले मोदी सरकार के दलित चेहरा। खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री रामविलास पासवान के राजनीतिक जीवन पर नजर डाले तो वे एक बेहद ही साधारण परिवारसे के थे जिनका राजनीति में कोई जमीन नहीं थी। न कोई गॉडफादर और न ही ऊंची जाति के होने की ताकत थी। उस दौर में पासवान का राजनीति में टिक जाना ही भारतीय लोकतंत्र का चमत्कार था।

इतनी मामूली पृष्ठभूमि का एक नेता इतने दिनों तक शिखर के आसपास लगातार मौजूद रहा। पासवान ने पटना यूनिवर्सिटी से एलएलबी किया है। पासवान के प्रारंभ‍िक जीवन की बात करें तो छात्रजीवन के बाद वे पटना विश्वविद्यालय पहुंचे और परास्नातक तक की पढ़ाई की। बिहार पुलिस की नौकरी छोड़कर राजनीति के मैदान में उतरे रामविलास पासवान शुरू से ही राज नारायण और जयप्रकाश नारायण के फॉलोवर रहे हैं। उनसे काफी कुछ सीख कर वे आगे बढ़े। इसी दौरान वे लोकदल के महासचिव नियुक्त हुए।

https://mainmedia.in/when-ram-vilas-paswan-contested-bijnore-election-against-mayawati-and-meira-kumar/इमरजेंसी के दौरान वे राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर और सत्येंद्र नारायण सिन्हा के बेहद करीब थे। पासवान ने अपना पहला विधानसभा चुनाव 1969 में लड़ा और वो चुनाव था संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो वे आंदोलनकारियों में शामिल होने के कारण गिरफ्तार कर लिए गए और लगभग दो साल जेल में बिताए। जेल से छूटने के बाद पासवान जनता पार्टी के सदस्य बने और संसदीय चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचे।

 

हाजीपुर ने हीरो बनाया, दो बार हार का स्वाद भी चखाया

बिहार के हाजीपुर लोकसभा क्षेत्र का मन-मिजाज अपने अगल-बगल के संसदीय क्षेत्र से जुदा है। हाजीपुर के संसदीय चुनाव के इतिहास पर नजर डालेंगे तो पाएंगे कि यहां के लोग अपने नेता को दिल में इस कदर बसा लेते हैं कि दूसरे के लिए दिल में कोई जगह ही नहीं बचती। साल 1977 में रामविलास पासवान ने 4.24 लाख वोट से चुनाव जीतकर गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज करवाया था। लेकिन उसके ठीक आठ बरस बाद चुनावी जीत का रिकॉर्ड कायम करने वाले पासवान उसी हाजीपुर से 1984 में हारे थे।

1983 में इन्होंने दलित सेना की स्थापना की। पासवान के अनुसार यह संगठन पूरी तरह से दलितों के उत्थान के लिए समर्पित था। ये दौर देश काशीराम और मायावती की लोकप्रियता का था। लेकिन बिहार के दलितों के लिए कोई मज़बूत नेता के तौर पर उभरा तो वो पासवान थे। वे लंबे समय तक अपनी इस छवि को बनाए रखने में सफल रहे।

साल 1989 में पासवान फिर हाजीपुर से जनता दल के टिकट पर चुनाव लडे और अपना ही रिकॉर्ड तोड़ा और पांच लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीते। इस जीत के बाद वह वीपी सिंह की कैबिनेट में पहली बार शामिल किए गए और उन्हें श्रम मंत्री बनाया गया। 

 

राजनीति के मौसम वैज्ञानिक

मौसम वैज्ञानिक यानी जो पहले ही भांप ले की कौन जीतने वाला है और फिर वो उस दल या गठबंधन के साथ हो लेते हैं। पासवान परिवार की निष्ठा मौसम के हिसाब से बदलती रहती है। इसलिए उन्हें सियासत का मौसम वैज्ञानिक कहा जाता था। अतीत के पन्ने पलटेंगे तो रामविलास पासवान देवगौड़ा सरकार में भी मंत्री थे। 1999 में वाजपेयी सरकार में भी मंत्री बने। 2004 में यूपीए की सरकार बनी तो पासवान वहां भी मंत्री बने। 2013 तक यूपीए में रहे लेकिन 2014 के चुनाव में पाला बदल लिया।

 

छह प्रधानमंत्रियों के साथ किया है काम

पिछले तीन दशक में केंद्र की सत्ता में आए हर राजनीतिक गंठबंधन में शामिल रहे और मंत्री बने। राजनीतिक गलियारे में पासवान को इसीलिए विरोधी सबसे सटीक सियासी मौसम वैज्ञानिक का तंज भी कसते थे। सियासी हवा का रुख भांपकर गठबंधन की बाजी चलने की यह काबिलियत ही है कि अपने अस्तित्व के करीब तीन दशकों में लोजपा अधिकांश समय केंद्र की सत्ता का हिस्सा रही। रामविलास पासवान के नाम छह प्रधानमंत्रियों की कैबिनेट में मंत्री के तौर पर काम करने की अनूठी उपलब्धि जुड़ी है।

इनमें नेशनल फ्रंट, यूनाइटेड फ्रंट, एनडीए, यूपीए सब शामिल हैं। यूनाइटेड फ्रंट सरकार के कार्यकाल में चूंकि दोनों प्रधानमंत्री- एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल राज्यसभा के सदस्य थे, इसलिए उस दौरान पासवान लोकसभा में सत्ता पक्ष के नेता रहे। बाबू जगजीवन राम के बाद बिहार में दलित नेता के तौर पर पहचान बनाने के लिए उन्होंने आगे चलकर अपनी लोक जनशक्ति पार्टी(लोजपा) की स्थापना की। इसका सियासी सफर भी सत्ता की रोशनी से ही शुरू हुआ।



लेकिन 2004 के चुनाव में एनडीए ने इंडिया शाइनिंग का क्या अंजाम होने वाला है इसे पासवान पहले भांप गए थे। 2004 के चुनाव के ठीक पहले रामविलास पासवान गुजरात दंगा के नाम पर एनडीए का साथ छोड़ यूपीए में शामिल हो गए।

साल 2009 के लोकसभा चुनाव में पासवान का दांव गलत बैठा। वो कांग्रेस का साथ छोड़कर लालू के साथ हो लिए। लेकिन इसका परिणाम ये हुआ कि वो अपनी हाजीपुर तक की सीट नहीं बचा पाए। जिसके बाद उन्हें पूरे पांच साल तक सत्ता सुख से वंचित होना पड़ा। ये और बात है कि उस वक्त लालू प्रसाद यादव की मदद से राम विलास पासवान राज्य सभा में पहुंचने में कामयाब हो गए थे। 2014 में मोदी लहर को भांप पासवान एनडीए में शामिल हो गए और अभी भी सरकार में मंत्री थे।

 

मीरा कुमार और मायावती से चुनावी भिड़ंत

बिजनौर लोकसभा सीट के लिए 1985 का साल बेहद ही खास है। इस चुनाव में दलित राजनीति के उफान को पूरे उत्तर प्रदेश और बिहार ने महसूस किया। इस लोकसभा उप चुनाव का परिणाम चाहे जो रहा हो लेकिन इसके उम्मीदवारों ने अपनी जीत के लिए जी-तोड़ कोशिश की थी।

1985 के उप चुनाव के लिए एक महिला उम्मीदवार प्रचार के लिए सायकिल के सहारे थीं। अपने सायकिल के जरिये वो बिजनौर की गलियां छानते हुए लोगों से मिलते हुए अपनी जीत के लिए सत्ता की लड़ाई लड़ रही थीं। ये कोई और नहीं बल्कि बसपा सुप्रीमों मायावती थीं। जो अपना पहला लोकसभा उपचुनाव लड़ रही थीं।

मायावती के मुकाबले एक और दलित चेहरा मैदान में था जो ब्रिटेन, स्पेन और मारीशस के भारतीय दूतावासों में अपनी सेवा देने के बाद उस चुनावी मैदान में उतरी थीं और वो नाम था बाबू जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार का। लेकिन 1985 के इस चुनाव में एक और दलित नेता की एंट्री होती है। रामविलास पासवान ने भी बिजनौर का उपचुनाव लड़ा। बिजनौर का ये चुनाव भारतीय राजनीति को बदल देने वाला था। बड़े-बड़े दिग्गज के बीच घमासान हुआ। कांग्रेस, लोकदल और मायावती के बीच त्रिकोणीय मुकाबले में मीरा कुमार ने अपने पहले ही चुनाव में दिग्गज दलित नेता रामविलास पासवान और बीएसपी प्रमुख मायावती को हरा दिया। लेकिन इस चुनाव में रामविलास ने खुद को मायावती के मुकाबले दलितों का मजबूत नेता साबित किया।

2005 से 2009 रामविलास के लिए बिहार की राजनीति के हिसाब से मुश्किल दौर था। 2005 में वे बिहार विधानसभा चुनाव में सरकार बनाने या लालू-नीतीश की लड़ाई के बीच सत्ता की कुंजी लेकर उतरने का दावा करते रहे। फिर अल्पसंख्यक मुख्यमंत्री बनाने के बदले समर्थन की बात करते रामविलास की जिद राज्यपाल बूटा सिंह ने दोबारा चुनाव की स्थिति बनाकर उनकी राजनीति को और बड़ा झटका दिया। नवंबर में हुए चुनाव में लालू प्रसाद का 15 साल का राज गया ही, रामविलास की पूरी सियासत बिखर गई।  बिहार में सरकार बनाने की चाबी अपने पास होने का उनका दावा धरा रह गया. वे चुपचाप केंद्र की राजनीति में लौट आए।



राम विलास पासवान का करीब छह फीसदी का वोट एक तरह से कंप्लीट ट्रांसफ़रबल माना जाता रहा है, यही वजह है कि राष्ट्रीय राजनीति में पासवान का जादू हमेशा कायम रहा है। यही वजह है कि हर कोई राम विलास पासवान को अपने साथ जोड़े हुए रखना चाहता है। बहरहाल, राम विलास पासवान अपनी पार्टी के तमाम फैसलों को लेने के लिए चिराग को अधिकृत कर चुके थे। रामविलास तो अपने राजनीतिक चतुराई के लिए जाने जाते रहे, लेकिन अब ये चुनौती चिराग के सामने है और वो भी तब जब उनके पिता रामविलास पासवान इस दुनिया में नहीं हैं।

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