लगभग 52 साल तक पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले की सागरदिघी विधानसभा सीट से दूर रही कांग्रेस ने पिछले दिनों इस सीट पर हुए उप-चुनाव में आश्चर्यजनक रूप से बड़े अंतर से जीत हासिल कर ली। कांग्रेस को वाममोर्चा का समर्थन प्राप्त था।
कांग्रेस उम्मीदवार बाइरन विश्वास ने इस सीट पर 22986 वोटों के बड़े अंतर से तृणमूल उम्मीदवार देवाशीष बंद्योपाध्याय को हराया। वहीं, भाजपा उम्मीदवार दिलीप साहा महज 13.94 प्रतिशत वोटों के साथ तीसरे नंबर पर रहे।
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अगर इस चुनाव परिणाम की तुलना साल 2021 के विधानसभा चुनाव परिणाम से करें, तो कांग्रेस के वोट में बड़ा उछाल आया है। 2021 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 19.45 प्रतिशत वोट मिले थे, जो उपचुनाव में बढ़कर 47.35 प्रतिशत हो गए। वहीं, तृणमूल कांग्रेस को साल 2021 के चुनाव में 50.95 प्रतिशत वोट मिले थे, जो इस बार घटकर 34.94 प्रतिशत पर आ गए।
भाजपा को 2021 में इस सीट पर 24.08 प्रतिशत वोट मिले थे, जो इस बार फिसल कर 13.94 प्रतिशत पर आ गए। तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को इस बार कुल 26 प्रतिशत कम वोट मिले हैं, जबकि वाममोर्चा समर्थिक कांग्रेस उम्मीदवार को लगभग 28 प्रतिशत अधिक वोट मिले, जिससे साफ है कि तृणमूल और भाजपा के वोट कांग्रेस उम्मीदवार की तरफ शिफ्ट हुए हैं।
इस जीत के साथ पश्चिम बंगाल विधानसभा में कांग्रेस की इंट्री हुई। साल 2021 के बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के एक भी उम्मीदवार की जीत नहीं हुई थी।
लगभग 64 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाली यह सीट कांग्रेस का गढ़ मानी जाती थी और साल 1972 के चुनाव तक इस सीट पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। इसके बाद लम्बे समय तक वाममोर्चा का कब्जा रहा और इसके बाद तृणमूल कांग्रेस ने इस सीट पर जीत दर्ज की।
साल 2021 के विधानसभा चुनाव में भी तृणमूल ने अपनी जीत बरकरार रखी थी।
पिछले दिनों तृणमूल विधायक सुब्रत साहा के निधन के बाद यह सीट खाली हुई थी, जिस पर 28 फरवरी को वोटिंग हुई थी। उम्मीदवार का नाम घोषित करने के बाद कांग्रेस नेता व सांसद अधीर रंजन चौधरी ने वाममोर्चा के चेयरमैन विमान बोस को चिट्ठी लिखकर अपने उम्मीदवार के लिए समर्थन मांगा था। विमान बोस ने भी इस पर हामी भरी थी।
साल 2021 के विधानसभा चुनाव में भारी जीत दर्ज करने वाली तृणमूल कांग्रेस की सागरदिघी सीट पर हार और वाममोर्चा समर्थित कांग्रेस उम्मीदवार की जीत के कई सियासी मायने निकाले जा रहे हैं। राजनीतिक पंडित इस जीत को बंगाल की सियासत के लिए एक उल्लेखनीय घटना मान रहे हैं। हालांकि, तृणमूल कांग्रेस ने कहा कि इस चुनाव नतीजे का बहुत अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए और तृणमूल कांग्रेस साल 2024 के आम चुनाव में बेहतर परिणाम लाएगी।
इस जीत की जमीनी पड़ताल से पता चलता है कि कई कारकों ने अहम भूमिका निभाई है, जिसमें उम्मीदवार के चयन से लेकर, कांग्रेस के साथ वाममोर्चा का आपसी सहयोग, भाजपा व तृणमूल कांग्रेस की गलत रणनीति और जमीनी स्तर पर विकास कार्यों की अनदेखी आदि शामिल हैं।
कांग्रेस का एक कारोबारी व गैर राजनीतिक व्यक्ति पर दांव
कांग्रेस की तरफ से इस चुनाव में उतरे बाइरन विश्वास निहायत ही गैर-राजनीतिक व्यक्ति हैं। वह मूल रूप से कारोबारी हैं और सागरदिघी में उनका कारोबार काफी फैला हुआ है। वह बीड़ी बनाने की एक फैक्टरी चलाते हैं, शिक्षा के क्षेत्र में उनका दखल है और वह चाय का व्यापार भी करते हैं। कुछ चाय बागान के वह मालिक भी हैं।
स्थानीय सूत्रों के मुताबिक, अन्य सियासी नेताओं के उलट उनकी छवि काफी साफ-सुथरी रही है और चूंकि वे बीड़ी फैक्टरी चलाने से लेकर चाय बागान तक चला रहे हैं, तो सर्वहारा वर्ग में भी उनकी पैठ रही। सर्वहारा वर्ग के सभी लोगों, जो भले ही तृणमूल कांग्रेस के समर्थक हों या भाजपा के, में उनकी स्वीकार्यता थी। इसलिए उन्हें कांग्रेस, वाममोर्चा के साथ साथ भाजपा और तृणमूल कांग्रेस का वोट भी मिला।
यही नहीं, कहा यह भी जा रहा है कि उन्होंने चुनाव में पैसा भी खूब बहाया, तो इसका भी असर पड़ा है।
कांग्रेस व वाममोर्चा में जमीनी स्तर का सहयोग
साल 2011 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत के बाद के चुनावों में कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच कई दफे गठबंधन हुआ। मसलन साल 2016 के चुनाव में वाममोर्चा और कांग्रेस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली थी। दोनों को मिलाकर सिर्फ 82 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।
साल 2021 के बंगाल विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और वाममोर्चा ने एक साथ चुनाव लड़ा था, लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस और माकपा दोनों का ही खाता नहीं खुला, जो उनके लिए घोर शर्मिंदगी का बायस बना।
ऐसे में सवाल है कि सागरदिघी उपचुनाव में ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस व वाममोर्चा गठबंधन ने जादू कर दिया?
जानकार बताते हैं कि पूर्व में जब भी वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच गठबंधन हुआ, तो गठबंधन ऊपरी तौर पर होता था। बड़े नेता गठबंधन का ऐलान कर देते थे, लेकिन जमीनी स्तर पर दोनों पार्टियों के नेताओं के बीच सहयोग नहीं होता था। इसकी वजह यह है कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की सरकार के दौरान वाममोर्चा के कार्यकर्ताओं पर भीषण दमन हुआ और बाद में जब वाममोर्चा की सरकार बनी, तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर हिंसा हई, तो दोनों ही पार्टियों के जमीनी नेता व कार्यकर्ता एक दूसरे को दुश्मन की तरह ही देखते रहे।
मगर, इस बार ऐसा नहीं हुआ है। वाममोर्चा से जुड़े एक नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, “इस बार वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच ग्राउंड लेवल पर जबरदस्त को-ऑर्डिनेशन था। दोनों तरफ के जमीनी कार्यकर्ताओं ने एक साथ ताकत झोंक दी थी। उन लोगों ने साथ मिलकर रैलियां, सभाएं की थीं।” यह को-ऑर्डिनेशन चुनाव बाद भी देखने को मिल रहा है। “दोनों संगठनों के कार्यकर्ताओं व नेताओं ने साथ मिलकर पंचायतों में विजय रैलियां निकाली है,” उन्होंने कहा।
तृणमूल व भाजपा की चूक, मुस्लिम वोटर व स्थानीय मुद्दे
कांग्रेस उम्मीदवार की पृष्ठभूमि और कांग्रेस-वाममोर्चा के जमीनी नेताओं-कार्यकर्ताओं के बीच जबरदस्त कैमिस्ट्री के अलावा तृणमूल कांग्रेस व भाजपा की रणनीतिक चूक ने भी कांग्रेस को जिताने में मदद की है, ऐसा जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है।
बताया जाता है कि तृणमूल कांग्रेस ने इस चुनाव में अपने विधायकों और मंत्रियों को झोंक दिया था। ममता बनर्जी के भतीजे व सांसद अभिषेक बनर्जी ने भी यहां प्रचार किया था। उन्होंने तो एक जनसभा में कहा था, “अगर एक भी बूथ पर तृणमूल हारती है, तो उस बूथ को मीर जाफर का बूथ करार दिया जाएगा।” मीर जाफर को इतिहास में गद्दार कहा जाता है।
कहा जा रहा है कि तृणमूल कांग्रेस ने हर पंचायत में एक विधायक को लगा दिया गया था। इससे स्थानीय नेतृत्व खुद को हाशिये पर महसूस करने लगा था और इसलिए उन्होंने अपनी पार्टी के उम्मीदवार को जिताने में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसके उलट कांग्रेस-वाममोर्चा के शीर्ष नेतृत्व ने स्थानीय नेतृत्व को अहम जिम्मेवारी दी थी। हालांकि, अधीर रंजन चौधरी, माकपा नेता मो. सलीम जैसे बड़े नेताओं ने भी रैलियां-जनसभाएं कीं, लेकिन चुनाव प्रबंधन स्थानीय नेताओं के हाथों में ही रहा।
वहीं, भाजपा की बात करें, तो स्थानीय लोगों का कहना है कि इस चुनाव को देखकर ऐसा लगा कि भाजपा मुकाबला करना ही नहीं चाहती है। स्थानीय लोग बताते हैं कि भाजपा इस बार न तो जमीन पर उतरी और न ही मजबूत प्रचार अभियान चलाया। अलबत्ता शुभेंदु अधिकारी ने कुछ सभाएं कीं, लेकिन उन्होंने भी स्थानीय मुद्दों की जगह ध्रुवीकरण करने की कोशिश की। उनकी यह चाल बहुत सफल नहीं हो पाई।
इन सबके अलावा भ्रष्टाचार और विकास कार्य जैसे मुद्दे तो थे ही। वाममोर्चा से जुड़े एक अन्य नेता ने कहा, “हमारे प्रचार अभियान के दौरान अक्सर लोग इलाके में विकास कार्यों की अनदेखी और भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाते थे। आम लोग वर्तमान सरकार की अनदेखी से खासा नाराज थे।”
सागरदिघी में मुस्लिम आबादी 64 प्रतिशत है। हाल के चुनावों से संकेत मिले कि मुस्लिम वोटरों का एक बड़ा तबका तृणमूल कांग्रेस को वोट दे रहा है। लेकिन, सागरदिघी विधानसभा सीट के चुनाव परिणाम से पता चलता है कि मुस्लिम वोटर दूसरी पार्टियों को भी मौका देने के मूड में हैं। खासकर वे उन उम्मीदवारों के पक्ष में वोट करने के तैयार हैं, जो तृणमूल उम्मीदवारों को कड़ी चुनौवी देने का माद्दा रखते हैं।
पंचायत चुनाव में कांग्रेस-वाममोर्चा अपनाएंगे यही फॉर्मूला!
सागरदिघी विधानसभा क्षेत्र में कुल 11 ग्राम पंचायत है। इनमें से 10 ग्राम पंचायतों में कांग्रेस-वाममोर्चा को बढ़त मिली है। कांग्रेस व वाममोर्चा के नेताओं में उत्साह चरम है।
इसी साल पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव भी होने वाला है। इसके तारीखों का ऐलान 10 मार्च को होने की उम्मीद है। माना जा रहा है कि वाममोर्चा और कांग्रेस सागरदिघी में अपनाए गए फॉर्मूले को पंचायत चुनाव में भी लागू कर सकते हैं।
हालांकि, आधिकारिक तौर पर इस बारे में अभी किसी भी तरफ से बयान नहीं आया है। माना यह भी जा रहा है कि कांग्रेस व वाममोर्चा आने वाले चुनावों के लिए भी सागरदिघी परिणाम का विश्लेषण कर रहे हैं। हालांकि, सागरदिघी का फॉर्मूला दूसरे चुनावों में भी इतना ही कारगर होगा, यह कहना अभी मुश्किल है।
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