ग्रामीण बसावटों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए पक्क्की सड़कों का होना सबसे महत्वपूर्ण जरूरतों में से एक है। जब किसी गाँव को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए सड़क बनाई जाती है तब वहां की आबादी स्वतः तरह-तरह की सेवाएँ प्राप्त करने में सशक्त हो जाती है।
जैसे गर्भवती महिलाएं या कोई मरीज आसानी से अस्पताल जा सकता है। बच्चे स्कूल जा सकते हैं। किसानों को उनके अनाज के अच्छे दाम मिल सकते हैं। कुटीर उद्योग से लेकर लघु व्यापार को भी बल मिलता है। और ये सभी संभावनाएं किसी भी गांव में एक अदद सड़क न होने से ठहर और सहम जाती है।
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भारत सरकार ने देश के कोने-कोने की सड़कों का विस्तार करने के लिए वर्ष 2005 में “प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना” नाम की एक योजना का शुभारम्भ किया। इसके लिए नियम बनाया गया कि यदि किसी गाँव की आबादी 500 से अधिक और मुख्य सड़क से कम से कम आधे किलोमीटर की दूरी पर स्थित हो तो उस गाँव को जोड़ने के लिए सड़क नियमतः बनाई जायेगी।
यही नहीं, बिहार सरकार ने भी वर्ष 2013 में “मुख्यमंत्री ग्राम सड़क योजना” की शुरुआत की। मोटा-मोटी देखें तो यह मुख्यामंत्री ग्राम सड़क योजना भी PMGSY की तरह ही काम करती है। इसके अलावा भी दो बसावटों को सड़क के माध्यम से जोड़ने के लिए मुख्यमंत्री टोला संपर्क योजना भी चलाई जाती है।
इन तमाम योजनाओं की जानकारी लेने के बाद अपनी आख बंद कर बिहार की सड़कों के जाल को महसूस करने में भले ही सिलिकॉन वैली जैसी अनुभूति होने लगे, लेकिन आँखें खोल कर बिहार के सुदूर गांवों में जायेंगे तो आपका भ्रम जरूर टूटेगा। इसी भ्रम को तोड़ने के लिए आपको लिए चलते हैं किशनगंज जिले के पोठिया प्रखंड अंतर्गत जहांगीरपुर पंचायत के वार्ड संख्या पांच और छह को मिलाकर बने सात टोलों के गाँव महिसमारा हिन्दू बस्ती।
आबादी दो हज़ार से भी ज्यादा और मुख्य सड़क से लगभग 2 किलोमीटर से भी दूर होने के बावजूद सरकार की महत्वाकांक्षी सड़क योजना 17 बरस बाद भी उतरने में नाकाम रही है। पेशे से यहाँ की ज्यादा आबादी विस्थापित मजदूर है जो पंजाब के खेतों से लेकर केरल में गद्दा बनाने की फैक्ट्री तक में पसीना बहाते मिल जायेंगे। बचीखुची अधेड़ आबादी में ज्यादा लोग 300 रुपए की दिहाड़ी पर आसपास के गांवों में मजदूरी करते हैं और कुछ लोग दूसरों की जमीनों पर खेतीबाड़ी।
अपनी समस्याओं से दो चार यहाँ की आबादी सरकार और यहाँ के जनप्रतिनिधियों से पूरी तरह से नाउम्मीद होकर भगवान भरोसे जीने को मजबूर हैं।
दिलमणी देवी इसी गांव की रहने वाली हैं। वह बताती हैं कि सड़क नहीं होने के कारण गॉंव में महिलाओं को कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। सड़क की मज़बूरी के कारण अच्छी रिश्तेदारियां नहीं मिलती और अगर मिल भी जाती है तो हमेशा ताना सुनना होता है।
जूगनू पंडित अपने बचपन के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि यहाँ घुटना भर पानी हुआ करता था, इसीलिए हम ज्यादा पढ़ाई-लिखाई नहीं कर सके, लेकिन अब दुनिया के इतना बदल जाने के बाद भी हमारे बच्चों को यही देखना पड़े तो बहुत दुःख की बात है। वह चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ाई-लिखाई करें लेकिन सड़क का नहीं होना उनकी उम्मीदों के रास्ते में रोड़ा बना हुआ है।

गांव के किसान सुमरीत को अपने अनाजों का सही मूल्य नहीं मिल पाता है। गांव की सड़क ख़राब होने के कारण कोई भी गाड़ी वाला उनके गांव नहीं आता, जिस कारण इन्हें अपने अनाजों को कम दर पर बेचना होता है या फिर खुद रिक्शा के माध्यम से निकट के बाज़ार में ले जाना होता है। ऐसा करने से किसानों की लागत बढ़ जाती है और कृषि में उन्हें नुकसान होता है।
सत्यवान पंडित बताते हैं कि मामूली हाटबाजार करने के लिए लोगों के खेतों से होकर जाना पड़ता है।
खगेन्द्र मालाकार पेशे से माली हैं, शादी-विवाह के लिए मुकुट आदि बनाकर बेचते हैं और इसी से अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। सड़क नहीं होने से इनके घर तक लोगों की पहुँच नहीं हो पाती है। उन्हें लगता है कि सड़क बन जाने से इनका काम दौड़ पड़ेगा और परिवार पटरी पर आ जायेगा।
सड़क के सवाल पर पथ निर्माण विभाग के अभियंता अरविन्द कुमार ने बताया कि सड़क का लोकेशन भेज दिया गया है।
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