पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर जिला स्थित गोवागांव पंचायत में सदियों पुराना इतिहास समय के साथ धुँधला पड़ गया है। दशकों पहले गोवागांव एक एस्टेट हुआ करता था। यहां के जागीरदारों के पास सैकड़ों एकड़ में फैली लंबी-चौड़ी रियासत थी जो आसपास के क्षेत्र में सबसे बड़ी जमींदारियों में से एक थी।
गोवागांव एस्टेट का इतिहास करीब 250 वर्ष पुराना बताया जाता है। सदियों पहले एस्टेट संस्थापक के पूर्वज गोवागांव के पास किसी जगह आकर बस गए थे। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ये लोग गोवागांव आये और फिर जमींदार कहलाये। एस्टेट के सबसे प्रभावशाली जागीरदार के तौर पर जाने जाने वाले शेख़ मौला बख़्श ने एस्टेट में कई निर्माण कराये। कहा जाता है कि वह गोवागांव एस्टेट तीसरे ज़मींदार थे।
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एस्टेट की निशानी के तौर पर आज भी गोवागांव में पुरानी जामा मस्जिद मौजूद है जिसे कमोबेश 200 वर्ष पूर्व बनाया गया था। मस्जिद के अलावा एस्टेट में कुछ पुरानी इमारतें हैं जिनमें जागीरदारों के वंशज रहते हैं। उन्हीं इमारतों में एक खंडहरनुमा ढांचा भी मौजूद है। कभी इस इमारत में जमींदार शेख़ मौला बख़्श के बेटे गयासुद्दीन सरकार रहते थे। उनकी मृत्यु के बाद परिवार के लोग पास में बनी दूसरी इमारतों में रहने लगे और देखते देखते भव्य महल खंडहर में तब्दील हो गया।
एस्टेट के जमींदार गयासुद्दीन सरकार के परपोते मोहम्मद अबु नसर ने हमें बताया कि उनके पूर्वज अज़मत अली करीब 300 वर्ष पहले गोवागांव आकर बस गए थे। उनके बेटे शेख़ मौला बख़्श गोवागांव के प्रभावशाली जमींदार हुए। उनके जमाने में गोवागांव एस्टेट शिखर पर रहा।
उनके तीन बेटे गयासुद्दीन सरकार, अब्दुल ख़ालिक़ और अब्दुल जलील थे। उनकी जमींदारी ग्वालपोखर, चाकुलिया और करणदिघी के तीन थाना क्षेत्र में फैली हुई थी। तब गोवागांव बिहार का हिस्सा हुआ करता था और पूर्णिया जिले के अंदर आता था। अंग्रेजी शासनकाल में जमींदारी मिली और गोवागांव एस्टेट अस्तित्व में आया।
एस्टेट के संस्थापक कहां से आये थे इसको लेकर कई धारणाएं हैं। कुछ लोग मानते हैं कि ये लोग अफ़ग़ानिस्तान से भारत आये और फिर गोवागांव आकर बस गए। शेख़ मौला बख़्श के परपोते एजाज़ अहमद मोहम्मद हारून ने बताया कि गोवागांव एस्टेट की जामा मस्जिद 1830 के आसपास बनकर तैयार हुई। यह जामा मस्जिद क्षेत्र की सबसे पहली मस्जिद थी जो आज तक उसी रंग-ओ-रूप में मौजूद है।
मस्जिद की दीवार पर धुंधली सी कुछ तारीखें लिखी गई हैं लेकिन स्थानीय लोगों के लिए उसे पढ़ पाना कठिन है। मस्जिद के सहन को थोड़ा विस्तार दिया गया है हालांकि गुम्बद और बाकी ढांचा पुराना ही है जो गुज़रे वक्तों की याद दिलाता है।
एस्टेट ने मंदिर व मदरसे के लिए जमीनें दान कीं
एजाज़ अहमद मोहम्मद हारून के अनुसार, ज़मींदार गयासुद्दीन सरकार के समय गोवागांव एस्टेट का एक बड़ा भाग भूदान में दिया गया। वह कहते हैं, “एस्टेट के ज़मींदार गयासुद्दीन साहब मुत्तक़ी परहेज़गार आदमी थे। नमाज़ और मज़हब के बहुत पाबंद थे। वह बहुत दान किया करते थे।”
शेख़ मौला बख्श की पाँचवीं पीढ़ी मोहम्मद कौनैन बताते हैं कि गोवागांव हाई स्कूल और गुवागांव पूर्व प्राथमिक स्कूल के लिए एस्टेट ने ज़मीन दान की थी। इसके अलावा गोवागांव पंचायत भवन, अस्पताल और कर्बला के लिए भी ज़मीनें एस्टेट ने दीं।
एस्टेट ने मदरसा दारुल इस्लाहुल मुसलमीन के लिए करीब 7 बीघा ज़मीन दान की, जबकि गोवागांव क़ब्रिस्तान, जो 20 बीघा में फैला है, भी एस्टेट की ही देन है। एस्टेट ने पास के दुर्गा मंदिर के लिए भी ज़मीन दान की थी, जो जामा मस्जिद से करीब चंद सौ मीटर की दूरी पर स्थित है।
ज़मींदार गयासुद्दीन सरकार के बेटे बदरुद्दीन और अब्दुल ख़ालिक के परिवार के कुछ सदस्य आज भी गोवागांव एस्टेट में रहते हैं, हालांकि अधिकांश लोग गांव छोड़कर किशनगंज और अररिया के विभिन्न इलाकों में बस चुके हैं।
कैसे आबाद हुआ छिपी एस्टेट
गोवागांव एस्टेट से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित उत्तर छिपी गांव कभी छिपी एस्टेट के रूप में आबाद था। मौला बख़्श के भाई मुंशी कलीमुद्दीन ने इस एस्टेट की नींव रखी थी। कहा जाता है कि सैकड़ों एकड़ में फैले इस एस्टेट से सालाना एक लाख रुपये से अधिक कर वसूला जाता था। चूंकि ज़मींदार कलीमुद्दीन की कोई संतान नहीं थी, इसलिए उनके भतीजे गयासुद्दीन ने एस्टेट की बागडोर संभाली।
आज उनके बेटे शहाबुद्दीन का परिवार छिपी एस्टेट में रहता है। शहाबुद्दीन के बेटे जलालुद्दीन मोहम्मद सालिक ने हमें एस्टेट की पुरानी इमारत दिखाई। कुछ साल पहले तक वह और उनके भाई इसी महलनुमा इमारत में रहते थे, लेकिन महल के जर्जर होने के कारण उन्होंने पास में नया घर बनाकर रहना शुरू कर दिया।
छिपी एस्टेट में अब खंडहर हो चुकी पुरानी इमारत के अलावा एक जामा मस्जिद भी है, जिसका निर्माण 1871 में हुआ था। इसकी बनावट गोवागांव एस्टेट की जामा मस्जिद से काफी मिलती-जुलती है। मस्जिद के सामने वज़ू-खाना और मुख्य द्वार हुआ करता था, जो अब टूट चुका है।
“मुंशी कलीमुद्दीन ने 1870 के आसपास छिपी एस्टेट को आबाद किया और 1871 में यह मस्जिद बनवाई। उस समय एस्टेट करीब 1200 एकड़ में फैली थी और यहां सालाना 1 लाख रुपये तक टैक्स जमा होता था। उस दौर में यह काफी बड़ी रकम थी,” मोहम्मद सालिक बोले।
कैसी थी दोनों एस्टेट की शान-ओ-शौकत
गोवागांव और छिपी एस्टेट की यह शान-ओ-शौकत, समय के साथ इतिहास बन गई लेकिन इसकी कहानियाँ एस्टेट के लोग आज भी खूब सुनाते हैं।
“एस्टेट में गाड़ियाँ, हाथी, घोड़े और ट्रैक्टर हुआ करते थे। जब ट्रैक्टर आया, तो उसे देखने के लिए आसपास के गांवों की भीड़ लग गई। एस्टेट में दो ट्रैक्टर थे, जो उस समय एक बड़ी बात थी,” गोवागांव एस्टेट के एजाज़ अहमद हारून ने कहा।
मोहम्मद अबू नसर ने गोवागांव एस्टेट की सुरक्षा व्यवस्था के बारे में बताया, “एस्टेट चारदीवारी से घिरी हुई थी और यहां सिपाही रहते थे। वे खेतीबाड़ी की सुरक्षा और देखरेख का जिम्मा संभालते थे। आज़ादी के बाद भी कई वर्षों तक सिपाही यहां मौजूद थे।”
वहीं, छिपी एस्टेट के बारे में ज़मींदार गयासुद्दीन के पोते सैफुद्दीन मोहम्मद मालिक बताते हैं, “हमारे यहाँ भोला सिंह नामक एक सिपाही थे, जो अन्य 5-6 सिपाहियों के साथ एस्टेट की खेती-बाड़ी और रखरखाव किया करते थे। एस्टेट में हाथी और कई घोड़े थे। हम बचपन में घोड़ों को देखा करते थे।”
जमींदारी का अंत, मुआवज़ा विवाद और बदली तकदीर
पश्चिम बंगाल में 1951 जमींदारी प्रथा का अंत हुआ। सरकार ने जमींदारों की भूमि का एक बड़ा भाग अपने अधीन लिया। “बंगाल में जब लेफ्ट की सरकार आई तो उन्होंने राज्य आधी पट्टा सिस्टम करवा दिया, “मोहम्मद अबु नसर ने कहा।
“एक परिवार को 50 बीघा जमीन मिली बाकी सरकार ले ली। जो खाने की ज़मीन दी उसे आधा पट्टा कहा गया। जमीन हमारे नाम से है लेकिन कागज़ दूसरे के नाम से। 4 आना खेत हमारा और 12 आना जोतने वाले को मिला। हमलोगों को मुआवज़े की रकम तय की गई जो आज 25-30 साल से बंद है। काफी आवाज़ उठाये लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई,” वह आगे बोले।
इस पर जागीरदार शेख़ मौला बख्श के वंशज एजाज़ अहमद हारून ने कहा, “मोहम्मद गयासुद्दीन ने बहुत जमीनें खरीदीं। उनके समय बहुत बड़ी जमींदारी थी। फिर 1976- 77 में जमीन जोतने वालों ने अपना एक समूह बनाया और हमारी काफी जमीनें ले लीं। 1980 के आस पास तक सरकार की तरफ से हमें मुआवज़े की रकम मिली, लेकिन फिर बंद हो गई।”
आगे उन्होंने कहा कि ज़मींदारी प्रथा ख़त्म होने के बाद गोवागांव एस्टेट के लोगों ने शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। बेहतर तालीम की तलाश में लोग बड़े शहरों की ओर रुख़ करने लगे। हारून कहते हैं, “मेरे दादा गयासुद्दीन बच्चों की पढ़ाई के लिए काफ़ी आगे रहे। उन्होंने किसी को कोलकाता, किसी को अलीगढ़, किसी को दरभंगा और किसी को भागलपुर भेजा। सभी ने अच्छी जगह नौकरियाँ कीं, कई शिक्षक और प्रोफेसर बने।”
“जमीन अब नहीं बची है, 6-7 बीघा है। थोड़ी बहुत खेती है। बच्चों को पढ़ाया लिखाया, अब वे अच्छी जगह नौकरी कर रहे हैं। जब सीपीएम की सरकार आई तो उसने झंडा गाड़ना और जमीन दखल करना शुरू कर दिया। हमलोग को 24-25 एकड़ मिली तो आधा पट्टा के हिसाब से हमको 2 भाग और जमीन पर खेती करने वालों को 3 भाग मिला,” छिपी एस्टेट के जलालुद्दीन मोहम्मद सालिक बोले।
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