सिलीगुड़ी: सन् 1941 की वह 16-17 जनवरी के बीच की रात थी। कलकत्ता के एल्गिन रोड स्थित अपने पुश्तैनी मकान में नजरबंद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक नेता जी सुभाषचंद्र बोस ब्रिटिश सरकार के प्रहरियों को चकमा देकर बच निकल जाने के ‘द ग्रेट एस्केप’ को अंजाम देने वाले थे। इसकी योजना उन्होंने बहुत पहले दार्जिलिंग की पहाड़ियों में ही बनाई थी। इसीलिए उन्होंने अपने घर में नजरबंदी की अवस्था में ही अपनी दाढ़ी बढ़ानी शुरू कर दी थी।
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उस रात उन्होंने अपने तन पर भूरे रंग का एक लंबा सा कोट व लंबा-चौड़ा पायजामा चढ़ाया। एक पठान का रूप धरा और देर रात अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की मदद से अंग्रेजों के कड़े पहरे को धता बता कर नजरबंदी से बाहर निकल पाने में कामयाब रहे। वह अपनी कार (नंबर बीएलए 7169) की पिछली सीट पर बैठे। उनके भतीजे शिशिर कुमार बोस ने ड्राइवर बन कर उन्हें कार से रातों-रात धनबाद के निकट गोमोह रेल स्टेशन पहुंचाया। वहां से ट्रेन पकड़ कर नेता जी पेशावर (अब पाकिस्तान में) चले गए।
वहां उन्होंने अपना परिचय एक मुस्लिम इंश्योरेंस एजेंट जियाउद्दीन के रूप में ही रखा। पेशावर से वह अपनी पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक के नेता मियां अकबर शाह की मदद से काबुल पहुंचे। काबुल में इटली के एंबेसी गए और फिर, वहां से इटली के पासपोर्ट से रूस के मॉस्को सफर किया। फिर, मॉस्को से इटली होते हुए जर्मनी पहुंचे।
वह ब्रिटिश हुकूमत से भारत की आजादी के लिए जर्मनी की मदद चाहते थे। इसके लिए उन्होंने जर्मनी के सर्वेसर्वा हिटलर से मुलाकात कर बातचीत भी की। जर्मनी से उन्हें बहुत मदद भी मिली। फिर, जापान से भी उन्हें पूरी मदद प्राप्त हुई। उन्होंने आज़ाद हिंद फौज गठित कर हिन्दुस्तान की आजादी में अहम किरदार अदा किया।
ब्रिटिश हुकूमत से भारत की आजादी के लिए नेता जी की जर्मनी से मदद की चाहत व गतिविधियों को अंग्रेज सरकार भी भांप गई थी, इसलिए उन्हें आए दिन गिरफ्तार किया जाता था। आखिरी बार, 1940 में उन्हें गिरफ्तार कर कलकत्ता की जेल में डाला गया था। मगर, नेता जी को आजादी का मंसूबा पूरा करना था, जो कि जेल में रह कर कर पाना मुश्किल था। इसलिए उन्होंने जेल से रिहाई के लिए वहां आमरण अनशन शुरू कर दिया। उस दबाव में अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल से रिहा तो कर दिया लेकिन कलकत्ता के एल्गिन रोड स्थित उनके पुश्तैनी मकान में ही उन्हें नजरबंद कर दिया। वहां से ‘द ग्रेट एस्केप’ को अंजाम देते हुए कलकत्ता से काबुल हो कर जर्मनी व जापान पहुंच नेता जी ने हिन्दुस्तान की आजादी की ग़ज़ब की इबारत लिखी।
यह कहा जाता है कि नेता जी ने यहां सिलीगुड़ी के निकट दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र के कर्सियांग में गिद्धा पहाड़ी स्थित अपने ‘होलीडे होम’ यानी अवसर कालीन आवास में ही ‘द ग्रेट एस्केप’ की योजना बनाई थी। अपने इस घर पर नेता जी अंतिम बार 1939 में आए थे। सिलीगुड़ी से 30 किलोमीटर दूर कर्सियांग के गिद्धा पहाड़ पर लगभग पौने दो एकड़ जमीन पर नेता जी सुभाष चंद्र बोस का वह ऐतिहासिक घर आज भी मौजूद है, जो अब नेताजी म्यूजियम बन गया है।
इस बाबत उपलब्ध रिकॉर्ड से पता चलता है कि यह घर नेता जी के भैया अधिवक्ता शरतचंद्र बोस ने 1922 में एक अंग्रेज राउली लैस्सेल्स वार्ड से खरीदा था। अपने 14 भाई-बहनों में शरत चंद्र बोस चौथे व सुभाषचंद्र बोस नौवें थे। यह घर नेता जी सुभाष चंद्र बोस के परिवार का एक ‘हाॅली-डे होम’ था। उनका परिवार अक्सर गर्मी व पूजा उत्सव आदि की छुट्टियां बिताने यहीं आता था। कहते हैं कि नेता जी के परिवार का ड्राइवर उनकी कार लेकर कलकत्ता से सड़क मार्ग से दो-चार रोज पहले ही यहां आ जाता था। फिर, नेता जी व परिवार के लोग सियालदह से दार्जिलिंग मेल के जरिये सिलीगुड़ी जंक्शन (अब सिलीगुड़ी टाउन स्टेशन) पहुंचते थे। वहां से उनका ड्राइवर कार से उन्हें कर्सियांग के गिद्धा पहाड़ स्थित उनके घर ले जाता था। वह घर अब म्यूजियम है।
इस म्यूजियम के कार्यालय प्रभारी गणेश कुमार प्रधान बताते हैं कि इस म्यूजियम में नेता जी के बेड, फर्नीचर, पारिवारिक फोटो एल्बम व कई सामान और विशेष रूप से उनके बहुत सारे ऐतिहासिक पत्र, बहुत सारी यादें दस्तेयाब हैं। एक यह कि ब्रिटिश सरकार ने अक्टूबर 1936 में उन्हें यहां कर्सियांग के गिद्धा पहाड़ स्थित उनके घर पर ही सात महीने के लिए नजरबंद कर दिया था। इसी दौरान देश में वंदे मातरम् गान को लेकर उत्पन्न विवाद के सिलसिले में गिद्धा पहाड़ से ही नेता जी ने रवींद्रनाथ टैगोर व पंडित जवाहरलाल नेहरू संग पत्राचार किया था। एक दिलचस्प बात यह भी है कि नेता जी ने उस दौरान 26 पत्र लिखा जिनमें 11 पत्र एमिली शेंकल के नाम थे। वहीं, उन्हें भी यहां एमिली के 10 पत्र प्राप्त हुए। ये सारे पत्र सुभाष चंद्र बोस व एमिली शेंक्ल के बीच के खास निजी संबंधों की गवाही देते हैं। इसी घर में नेता जी से पहले उनके भैया स्वतंत्रता सेनानी अधिवक्ता शरत चंद्र बोस को भी अंग्रेज सरकार ने 1933 से 1935 के बीच दो साल के लिए नजरबंद किया था।
यहां कर्सियांग के गिद्धा पहाड़ स्थित उनके घर से जुड़ी यादों को लेकर यह भी कहा जाता है कि 1938-39 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने गुजरात के हरिपुरा अधिवेशन में जो ऐतिहासिक भाषण दिया था वह भाषण भी उन्होंने यहीं तैयार किया था। 1945 में जेल से छूटने के बाद शरत चंद्र बोस सपरिवार अक्सर इसी घर में रहा करते थे। नेता जी को भी यहां दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र की हसीन वादियों में रहना बहुत पसंद था।
एक दफा लड़कपन में उन्होंने कहा था कि ‘मेरी ज़िंदगी का सबसे खुशी भरा दिन तब होगा जब मैं आज़ाद हो जाऊंगा और जब मैं दार्जिलिंग जाऊंगा’। दार्जिलिंग व यहां के गोरखाओं ने भी नेता जी को बहुत सम्मान दिया। ब्रिटिश फौज की गुलामी छोड़ कर भारत की आज़ादी के लिए अनेक गोरखा नेता जी की आजाद हिंद फौज से जुड़े।
इधर, 1950 के दशक में भी शरतचंद्र बोस की पत्नी विभावती देवी अपने परिवार के सदस्यों के साथ यहीं कर्सियांग के गिद्धा पहाड़ स्थित अपने घर पर छुट्टियां बिताती थीं। 1954 तक उनके परिवार के यहां रहने के साक्ष्य मिलते हैं। उसके बाद, तीन दशकों से अधिक समय तक यह घर अप्रयुक्त ही रहा। 1996 में पश्चिम बंगाल सरकार के उच्च शिक्षा विभाग ने इस घर के अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की। इसका जीर्णोद्धार व नवीनीकरण किया गया। फिर, इसे नेताजी इंस्टीट्यूट फॉर एशियन स्टडीज (कोलकाता) को सौंप दिया गया जिसने इस ऐतिहासिक घर को ‘नेताजी म्यूजियम एंड सेंटर फॉर स्टडीज इन हिमालयन लैंग्वेजेज, सोसाइटी एंड कल्चर’ में तब्दील कर दिया।
इसका औपचारिक उद्घाटन 23 अप्रैल 2000 को हुआ। यहां सिलीगुड़ी, जलपाईगुड़ी, दार्जिलिंग व कर्सियांग से जुड़ी नेता जी की बहुत सी खास यादें संजोकर रखी हुई हैं। आखिर में यही कि, 18 अगस्त 1945 को यह खबर आई कि ताइवान के ताइपे में जहाज के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के चलते उसमें सवार 48 वर्षीय नेता जी बुरी तरह जल गए थे और उनकी मृत्यु हो गई। हालांकि, अभी तक उनके जीवित होने या उनकी मृत्यु हो जाने को लेकर तरह-तरह के रहस्य बरकरार ही हैं।
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