बिहार के किशनगंज जिला स्थित पदमपुर गांव कुछ दशकों पहले अपनी जागीरदारी के लिए मशहूर था। दिघलबैंक प्रखंड की जागीर पदमपुर पंचायत का पदमपुर गांव कभी पदमपुर एस्टेट हुआ करता था। पदमपुर एस्टेट के संस्थापक ने कुछ सालों के अंदर ही क्षेत्र के एक बड़े हिस्से को एस्टेट में शामिल कर लिया। कहा जाता है कि पदमपुर एस्टेट बहादुरगंज और कोचाधामन के कई हिस्सों तक फैला था। एस्टेट के जागीरदार की कुछ जमीनें किशनगंज शहर में भी थी।
समय के साथ पदमपुर एस्टेट का इतिहास धूमिल हो चुका है। आज जागीर पदमपुर पंचायत स्थित पदमपुर गांव में एस्टेट की निशानी के तौर बहुत कुछ नहीं बचा है। पदमपुर गांव में एक पुराना कुआं और एक खंडहर है।
87 वर्षीय मोहम्मद शफ़ीउर रहमान पदमपुर एस्टेट की शान-ओ-शौकत देखने वाले एकलौते व्यक्ति बचे हैं। वह एस्टेट के संस्थापक मोहम्मद फ़ज़्लुर्रहमान के पुत्र हैं। मोहम्मद शफ़ीउर रहमान ने पदमपुर एस्टेट के इतिहास के बारे में ‘मैं मीडिया’ से बात की।
ऐसे हुई थी पदमपुर में जागीरदारी की शुरुआत
उन्होंने बताया कि उनके दादा हसन अली की कोई संपत्ति नहीं थी। उनके पिता मोहम्मद फ़ज़्लुर्रहमान ने बीसवीं सदी की शुरुआत में पदमपुर एस्टेट स्थापित किया था। उस समय पूर्णिया सिटी के ज़मींदार राजा पीसी लाल की जागीरदारी पूर्णिया जिले के कई क्षेत्रों में फैली हुई थी। किशनगंज के पौआखाली स्थित राजा पीसी लाल के दफ्तर में लोगों की कमी थी। राजा पीसी लाल को पता चला कि पदमपुर गांव में एक व्यक्ति है जिसे कैथी हिंदी लिखना व पढ़ना आता है।
राजा ने उन्हें बुलाया और दफ्तर में प्रबंधक के तौर पर रहने को कहा। वह व्यक्ति मोहम्मद फ़ज़्लुर्रहमान थे जो बाद में पदमपुर एस्टेट के संस्थापक बने। मोहम्मद फ़ज़्लुर्रहमान, जो बाद में हाजी फ़ज़्लुर्रहमान के नाम से मशहूर हुए, उर्दू और कैथी हिंदी में अच्छी पकड़ रखते थे।
पदमपुर एस्टर अस्तित्व में कैसे आया इस बारे में शफ़ीउर रहमान बताते हैं कि धनतोला (अभी पश्चिम बंगाल का हिस्सा) के पास राजा पीसी लाल का कुछ इलाका पड़ता था। वहां के लोग राजा पैसी लाल को भूमिकर नहीं देते थे। राजा जिसे भी वहां भेजते थे उन्हें स्थानीय लोग वहां से भगा देते थे।
यह बात प्रचलित हुई कि उस इलाके के लोग जादू टोना का सहारा लेकर राजा पीसी लाल के दूत को हर बार खाली हाथ लौटने पर मजबूर कर देते हैं। उस इलाके को हाथ से निकलता देख राजा पीसी लाल ने हाजी फ़ज़्लुर्रहमान को वहां भेजा।
इस घटना के बारे में शफ़ीउर रहमान ने बताया, “मेरे पिता से राजा पीसी लाल बोले कि आप वह इलाका ले लीजिए जो पैसा दीजियेगा धीरे धीरे दे दीजिये। वालिद साहब बोले, ‘हाँ हम ले लेंगे, देखें कौन जादू वाला है?’ वह वहां जाकर कर जमा करने लगे। उनपर कोई जादू नहीं चला। वो बहुत बड़ा इलाका था, उस पैसे से उन्होंने राजा पीसी लाल को इलाके की कीमत अदा कर दी।”
आगे उन्होंने कहा, “वह वहीं रहते रहे और कई और जमी खरीद ली। अंग्रेज़ के ज़माने में ‘चुंगी’ देना पड़ता था, बहुत से एस्टेट दे नहीं पाते थे तो एस्टेट की नीलामी होती थी। इसी तरह वह जमीनें खरीदते गए और बहुत बड़ी संपत्ति बना लिए। बहादुरगंज, टेढ़ागाछ तक उनकी जमींदारी थी।”
किशनगंज के लाइन मोहल्ले में पदमपुर एस्टेट के जमींदारों ने घर बनाये थे। पदमपुर लॉज एस्टेट की चंद पुरानी निशानियों में से एक है। शफीउर रहमान ने बताया कि पदमपुर एस्टेट के मैनेजर ने किशनगंज के दिलावर पैलेस को नीलामी में खरीद लिया था। हालांकि बाद में एस्टेट के लोगों ने उस इमारत को बेच दिया।
एस्टेट संस्थापक के भाई बहादुरगंज के पहले विधायक बने
पदमपुर एस्टेट के संस्थापक हाजी फ़ज़्लुर्रहमान के छोटे भाई मोहम्मद एहसान कांग्रेस के नेता रहे थे। उन्होंने 1952 में बहादुरगंज की सीट से बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल कर बहादुरगंज के पहले विधायक बने। 1952 से 1957 तक वह विधायक रहे। उन्होंने अलीगढ़ से पढ़ाई की थी और गांव वापस आ कर राजनीति से जुड़े।
नदी कटाव में बह गया एस्टेट का अस्तित्व
पदमपुर एस्टेट के संस्थापक हाजी फ़ज़्लुर्रहमान के पिता हसन अली का परिवार कनकई नदी के उस पार हांडीपोखर में रहता था। पदमपुर एस्टेट के शुरुआती दिनों में एस्टेट के लोग वहीं रहे लेकिन नदी कटाव के कारण उन्हें गांव छोड़कर पदमपुर आकर बसना पड़ा।
शफ़ीउर रहमान ने इस पर कहा, “नदी कटाव के बाद हमलोग हांड़ीपोखर छोड़ कर पदमपुर आ गए। फिर नदी कटी तो हमलोग सड़क के इस पार आ गए। एस्टेट के कुछ लोग किशनगंज जाकर बस गए लेकिन हम यहीं रहे और तब से यहीं हैं। दो तीन साल पहले नदी से हमारे पुराने मकानों के लोहे के बीम वगैरह निकले।”
उन्होंने आगे बताया कि एस्टेट की पुरानी मस्जिद, हवेली और मकान जमींदोज़ हो गए। पदमपुर गांव की पुरानी निशानियां नदी कटाव का शिकार हो गईं। करीब सवा सौ साल पुराना पदमपुर एस्टेट आज पूरी तरह से वीरान हो चुका है।
“यादगार के लिए अब कुछ नहीं बचा है। सब नदी में बह गया, ख़त्म हो गया। बस समझिए हम ही बचे हुए हैं यादगार के तौर पर। मेरे सब भाई, बहन इंतेक़ाल कर गए। हम घर में सबसे बड़े थे बस हम ही रह गए हैं। अभी मेरी उम्र 87 साल हो रही है,” एस्टेट संस्थापक हाजी फ़ज़्लुर्रहमान के बेटे शफ़ीउर रहमान ने कहा।
कैसा हुआ करता था पदमपुर एस्टेट
शफ़ीउर रहमान बताते हैं कि 1900 के दशक में उनके पिता हाजी फ़ज़्लुर्रहमान ने पदमपुर एस्टेट की स्थापना की थी। उस समय पदमपुर गांव में बड़ी जागीरदारी थी। ठाकुरगंज, बहादुरगंज और आस पास के कई क्षेत्रों में पदमपुर एस्टेट की जमींदारी थी। किशनगंज शहर में भी एस्टेट की जमीनें थीं। उनकी मानें तो साल में एक दिन पदमपुर में एस्टेट के सभी इलाकों से रैयत आते थे और एस्टेट का टैक्स जमा करते थे जिसे, ‘नज़राना’ कहा जाता था।
“कोई चावल लेकर आता था, कोई मिठाई, कोई दही, कोई बकरी वग़ैरह लाकर देता था। पूरा टेंट लगाया जाता था, एक हफ्ते तक हुजूम रहता था यहां। उनको खिलाया पिलाया जाता था। रिश्तेदारों को भी दावत देकर बुलाया जाता था। हिन्दू, मुस्लमान सब लोग आते थे। एक हफ्ते तक मेला लगा रहता था। वो लोग चांदी का सिक्का नज़राना देते थे। टोकड़ा भर जाता था सिक्के से,” शफ़ीउर रहमान ने कहा।
जागीर पदमपुर गांव में आज एक पुराने खंडहर और कुंआ के अलावा एस्टेट के साक्ष्य के तौर पर कुछ नहीं बचा है। 87 वर्षीय शफ़ीउर रहमान ने बताया कि गांव में कई इमारतें हुआ करती थीं। एस्टेट वालों के लिए हवेली और बाकी कर्मचारियों के लिए कई मकान बनाये गए थे। पदमपुर एस्टेट में कुल 16 सिपाही थे जो कर वसूलते थे और एस्टेट की सुरक्षा व्यवस्था देखते थे।
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शफ़ीउर रहमान बताते हैं, “यहां पूरा बाउंड्री घेरा हुआ था। 16 सिपाही एस्टेट में थे, सबके लिए घर बना हुआ था। उन्हें राशन वगैरह मिलता था। वे यहीं रहते थे और खाना बनाते थे। उनमें कई राजपूत सिपाही थे। शहदेव सिंह सिपाहियों के हेड थे। वह बहुत ईमानदार व्यक्ति थे। उनका राजपुताना लिबास होता था। बहुत ठाठ-बाट था। हम अपनी आँख से एस्टेट की शान-ओ-शौकत देखे हैं।”
शफ़ीउर रहमान ने अपने बचपन की एक घटना का ज़िक्र किया। एक बार गांव में कुछ डाकू घुस आए थे और एस्टेट के काफी जेवर चोरी करते हुए पकड़े गए थे। एस्टेट में दरोगा की पत्नी ने पकड़े गए हारों में से एक हार छुपा रख लिया था। जेवरों की सूची मिलाई गई तो एक हार कम था। जब दरोगा की पत्नी की बात गांव में फैली तो दरोगा ने खुद टंको गोली मार ली।
“इस घटना के बाद कलेक्टर आये थे पदमपुर एस्टेट में। जब वह यहां पहुंचे तो बाउंड्री के उस पार ही घोड़े से उतर गए। उस समय बहुत लंबी बाउंड्री थी एस्टेट की। कलेक्टर और उसके साथी पैदल आये। आकर उन्होंने अपना हैट उतार कर वालिद साहब को सलाम किया। यह चीज़ हमको अभी भी याद है। एस्टेट की बाउंड्री सब खत्म हो गई। नदी सब काट के ले गई,” शफ़ीउर रहमान बोले।
खंडहर में खो गया पदमपुर का इतिहास
कहा जाता है कि एस्टेट संस्थापक हाजी फ़ज़्लुर्रहमान के दादा पूर्णिया जिले के खुड़ियाल गांव से आए थे। जागीर पदमपुर गांव आने के बाद उन्होंने जमींदारी शुरू की और कुछ सालों में एक बड़े रकबे के जागीरदार बन गए।
शफ़ीउर रहमान ने बताया कि एक समय उनके पिता हाजी फ़ज़्लुर्रहमान क्षेत्र के सबसे मशहूर लोगों में से एक हुआ करते थे। उन्हें अंग्रेज़ों द्वारा एक तमग़ा दिया गया था जिसमें अंग्रेजी वॉयसरॉय माउंटबेटन का चित्र बना था। 1950 के बाद जब एस्टेट ख़त्म हो गया तो उस मेडल को और भी कई चीज़ों के साथ पुराने संदूकों में रखा गया था। सालों पहले एस्टेट में चोरी हुई और कई महंगी चीज़ें गुम हो गईं। चोरी होने वाली चीज़ों में माउंटबेटन की तस्वीर वाला वो मेडल भी शामिल था।
जागीर पदमपुर गांव में हमें एक खंडहर नुमा मकान दिखा। दशकों पुराने इस मकान में कभी एस्टेट के जागीरदार का परिवार रहता था जो अब जर्जर हो चुका है। मकान में जगह जगह से पेड़ उग आये हैं और छत टूटकर गिर हो चुकी है। खंडहर के अंदर टूटी मेज़, कुर्सियां रखीं थीं। कहा जाता है कि जागीर पदमपुर पंचायत का नाम बिर्टिश काल में अंग्रेजी शासकों द्वारा रखा गया था हालांकि पदमपुर के खंडहर और सपाट मैदानों में जागीरदारी का साक्ष्य ढूंढ पाना संभव नहीं रहा।
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