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मुआवजे के पेंच में फंसा बंधुआ मज़दूरों का पुनर्वास

बंधुआ मजदूरी उन्मूलन कानून 1976 के बावजूद, पीड़ितों को मुआवजा मिलने की शर्त दोषसिद्धि से जुड़ी होने के कारण अधिकतर मामलों में वे इसका लाभ नहीं उठा पाते। आंकड़ों के अनुसार, बंधुआ मजदूरी के मामले बढ़ रहे हैं, लेकिन दोषियों को सजा दिलाने और पीड़ितों के पुनर्वास में पेंच बरक़रार है।

Reported By Umesh Kumar Ray |
Published On :
rehabilitation of bonded labourers stuck in compensation issues
बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 में बंधुआ मजदूरी से बचाये गये नाबालिगों को 2 लाख रुपये, बालिगों को 1 लाख रुपये और महिलाओं को 3 लाख रुपये देने का प्रावधान है। लेकिन, ज्यादातर बच्चों को ये रकम नहीं मिलती। (फाइल फोटो)

देवेंद्र मांझी को जब साल 2016 में बंगलुरू में जूते का सोल बनाने वाली एक फैक्टरी में बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया गया था, तो उनकी उम्र महज 13 साल थी। घर लौटने के बाद उन्हें मामूली मदद मिली, जो उनके जीवनस्तर को सुधारने में नाकाफी थी। नतीजतन, थोड़े बड़े हुए, तो उन्हें पलायन करना पड़ा। फिलहाल वह चेन्नई में मामूली तनख्वाह पर एक होटल में काम कर रहे हैं।


“रोजाना 10 से 11 घंटे काम करते हैं, तो 15000 रुपये महीना मिलता है,” देवेंद्र मांझी ने कहा। वह बिहार के सीतामढ़ी जिले के ढेंग के रहने वाले हैं और उनके दो बच्चे व पत्नी हैं, जिनकी याद उन्हें सताती रहती है।

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“पिछले 6 महीने से मैं चेन्नई में काम कर रहा हूं। बीवी बच्चों की खूब याद आती है, लेकिन काम छोड़कर जा भी नहीं सकते,” वह कहते हैं।


बंधुआ मजदूरी से मुक्त होकर जब वह घर लौटे थे, तो उन्हें मदद के तौर पर सरकार से 25,000 रुपये मिले थे, लेकिन उससे बहुत फायदा नहीं हुआ। उन्होंने कहा, “हम अपने गांव में ही कुछ कर लेते अगर आर्थिक मदद मिल जाती, लेकिन वो नहीं मिली। 25,000 रुपये मिले, लेकिन उतने कम पैसे में क्या होता!” चूंकि वह बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराये गये थे, तो उन्हें 2 लाख रुपये और मिलना चाहिए था, लेकिन वो रकम उन्हें नहीं मिली क्योंकि उनके मामले में जो केस हुआ था, उसमें आरोपियों को बाइज्जत बरी कर दिया गया था।

देवेंद्र इकलौते व्यक्ति नहीं हैं। सीतामढ़ी जिले के 34 बच्चे साल 2023 में ही चेन्नई की बैग फैक्टरी में बंधुआ मजदूरी से बचाये गये थे, लेकिन उनका केस भी अभी अदालत में लंबित है।

बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराये गये इन बच्चों में से एक 18 वर्षीय राहुल कुमार (बदला हुआ नाम) ने बताया कि वह अपने घर पर था, जब एक जान-पहचान का व्यक्ति आया और उसे काम कराने की बात कह चेन्नई चलने को कहा। “उस व्यक्ति ने कहा था कि 3000 रुपये रुपये हर महीने मिलेगा।”

राहुल, मुसहर समुदाय से आता है, जो बिहार में अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल है। राहुल के माता-पिता दैनिक मजदूर हैं। उसने काम करने के लिए चेन्नई जाने की बात अपने माता-पिता से बताई तो, वे तुरंत तैयार हो गये। लेकिन, वहां जाकर उसे अहसास हुआ कि वो संकट में फंस गया है। वहां बच्चों के साथ अमानवीय तरीके से काम कराया जाता था। “वहां एक ही रूम में काम करते थे और उसी में सोते थे। सुबह 9 बजे से रात 12 बजे तक काम कराया जाता था। काम थोड़ा भी खराब होता था, तो ठेकेदार हमें पीटता था,” राहुल ने बताया। वहां उसने 4 महीने तक काम किया, लेकिन इन महीनों की कोई मजदूरी उसे नहीं मिली।

minor children doing bonded labour at a bangle factory in rajasthan
राजस्थान की एक चूड़ी फैक्टरी में बंधुआ मजदूरी करते नाबालिग बच्चे (फाइल फोटो)

बंधुआ मजदूरी के मामलों में सजा की स्थिति

उल्लेखनीय हो कि भारत में सदियों से चली आ रही बंधुआ मजदूरी कुप्रथा को खत्म करने के लिए बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 लाया गया था। इस अधिनियम के मुताबिक, किसी व्यक्ति को धमकी, दबाव या हिंसा के तहत उसकी इच्छा के विरुद्ध काम करवाना बंधुआ मजदूरी की श्रेणी में आता है।

इस अधिनियम में बंधुआ मजदूरी से बचाये गये नाबालिगों को 2 लाख रुपये, बालिगों को 1 लाख रुपये और महिलाओं को 3 लाख रुपये देने का प्रवधान है, लेकिन इसके साथ एक शर्त भी जुड़ी हुई है।

बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम में ये प्रावधान है कि मुआवजे के तौर पर 2 लाख रुपये बचाये गये बंधुआ मजदूर को तभी मिलेंगे, जब इस मामले में गिरफ्तार आरोपियों पर दोष सिद्ध होगा। अगर, आरोपी बाइज्जत बरी हो जाते हैं, तो ऐसी सूरत में उन्हें मुआवजा नहीं मिलेगा। देवेंद्र मांझी के मामले में भी यही हुआ। देवेंद्र मांझी ने कोर्ट में गवाहियां भी दीं, लेकिन आखिरकार आरोपी कोर्ट से बरी हो गये, जिसके चलते देवेंद्र मुआवजे से वंचित रह गये।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, बंधुआ मजदूरी के मामलों में इजाफा हो रहा है। वर्ष 2020 में इस एक्ट के तहत 1231 मामले दर्ज हुए थे, जो वर्ष 2022 में बढ़कर 1315 हो गये। हालांकि, जानकारों का मानना है कि असल संख्या बहुत अधिक है, लेकिन ज्यादातर मामलों में अधिकारी रिलीज सर्टिफिकेट जारी करते वक्त सर्टिफिकेट में बंधुआ मजदूर नहीं लिखते हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, देश के 36 जिलों में से 21 जिलों में साल 2022 में बंधुआ मजदूरी का एक भी मामला सामने नहीं आया।

बंधुआ मजदूरी उन्मूलन पर काम कर रहे एक एनजीओ से जुड़े एक कर्मचारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, “बंधुआ मजदूरी से बचाये गये बच्चों से एसडीएम मुलाकात करते हैं और बच्चों से एक दर्जन से अधिक सवाल पूछते हैं। इन सवालों के जवाबों के आधार पर वे तय करते हैं कि मामला सिर्फ बाल मजदूरी का है या बंधुआ मजदूरी का। ये बच्चे अव्वल तो पहले से ही डरे हुए होते हैं और दूसरी बात ये है कि उन्हें पता नहीं है कि किस सवाल का क्या जवाब देना है। इस वजह से बंधुआ मजदूरी की श्रेणी में आने के बावजूद उन्हें बंधुआ मजदूरी सर्टिफिकेट नहीं मिल पाता है।”

वहीं, दोषसिद्धि की बात करें, तो बहुत कम मामलों में दोषियों को सजा मिल पाती है। यूएस डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट की तरफ से प्रकाशित एक रिपोर्ट ‘2024 ट्रैफिकिंग इन पर्संस रिपोर्ट: इंडिया’ बताती है कि साल 2022 में 94 प्रतिशत मामलों में दोषी बाइज्जत बरी हो गये थे।

मुआवजे को दोषसिद्धि से जोड़ने की दिक्कतें

ज्यादातर मामलों में पीड़ितों को मुआवजा नहीं मिल पाने के पीछे मुख्य वजह यही है कि मुआवजे को दोषसिद्धि से जोड़ दिया गया है। यानी कि मुआवजे की रकम पीड़ित को तभी मिल पाएगी, जब कोर्ट आरोपियों को दोषी पाएगा। अगर कोर्ट से आरोपी बरी हो जाते हैं, तो ऐसी स्थिति में पीड़ितों को मुआवजा नहीं मिल पाएगा। लेकिन, बंधुआ मजदूरी के ज्यादातर मामलों में दोषसिद्धि मुश्किल होती है क्योंकि इन मामलों में पीड़ितों व अन्य गवाहों की गवाहियां बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। पर, पीड़ित, जो गरीब व समाज के हाशिये से आने वाले बच्चे होते हैं, गवाही के लिए दूसरे राज्य जाने में असमर्थ होते हैं या फिर कई बार उन्हें आरोपियों की तरफ से जानलेवा धमकियां दी जाती हैं या फिर पैसे का लालच देकर गवाही से मुकर जाने को कह दिया जाता है, जिससे वे गवाही देने जाने से कतराते हैं। ऐसे में दोषसिद्धि नहीं हो पाती और जिसके चलते मुआवजा भी नहीं मिल पाता।

बाल मजदूरी व बंधुआ मजदूरी से जुड़े मामले देख रहे राजस्थान के वकील विवेक शर्मा कहते हैं, “हत्या जैसे मामलों में हत्या का दोषी न भी मिले, तो यह साबित हो जाता है कि हत्या हुई है। लेकिन बंधुआ मजदूरी के मामलों में ऐसा नहीं हो पाता है। बंधुआ मजदूरी से बचाये गये बच्चे कई बार दबाव में अपना बयान बदल देते हैं। जिस वजह से कोर्ट में ये साबित नहीं हो पाता है और आरोपी निर्दोष साबित हो जाते हैं।” “इस तरह के मामले कोर्ट में इतना लंबा खिंच जाते हैं कि किसी को इसमें दिलचस्पी ही नहीं रहती है इसलिए मुआवजे का मामला अटक जाता है,” उन्होंने कहा।

साल 2023 में जो 34 बच्चे बचाये गये थे, उनमें से किसी भी बच्चे को बयान देने के लिए कोर्ट से अब तक कोई नोटिस नहीं आया है, जबकि इस घटना को दो साल गुजर चुके हैं।

मुआवजे को दोषसिद्धि से अलग करना इस समस्या का एक समाधान हो सकता है, लेकिन इसकी अपनी सीमाएं हैं। “दोषसिद्धि से मुआवजे को जोड़ना बुरा नहीं है। अगर ऐसा नहीं होगा और बंधुआ मजदूरी से मुक्त होते ही मुआवजा मिलने लगेगा, तो इसका दुरुपयोग होने का खतरा रहेगा। संभव है कि जो मामले बंधुआ मजदूरी से नहीं जुड़े होंगे, वैसे मामलों को भी बंधुआ मजदूरी बताकर भ्रष्टाचार किया जाने लगेगा। अतः जरूरी है कि ऐसे मामलों की जांच अच्छे से और त्वरित गति से हो और दोषियों को सजा मिले।”

the indian government has set a target to rehabilitate the country's 1.84 crore bonded labourers by the year 2030, but rehabilitation data shows that achieving this target will be a distant dream.
भारत सरकार ने वर्ष 2030 तक देश के 1.84 करोड़ बंधुआ मज़दूरों को पुनर्वासित करने का लक्ष्य रखा है, लेकिन पुनर्वास के आंकड़े बताते हैं कि ये लक्ष्य हासिल करना दूर की कौड़ी होगी। (फाइल फोटो)

यहां ये भी बता दें कि बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम में बंधुआ मजदूरी कराने वाले लोगों पर दोष साबित होने पर अधिकतम तीन वर्षों की सजा का प्रावधान है।

बंधुआ मजदूरी से जुड़े मामलों में एक और पेंच है, जिसकी वजह से ये केस लम्बा खिंचता है और आखिरकार आरोपी दोषमुक्त हो जाते हैं।

दरअसल, पुलिस जब रेड कर बच्चों को बरामद करती है, तो एफआईआर में बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम की धाराओं के साथ ही भारतीय न्याय संहिता की भी धाराएं लगा देती है, जिस वजह से लम्बा ट्रायल चलता है। अगर, एफआईआर में भारतीय न्याय संहिता से जुड़ी धाराएं न लगे, तो इन मामलों का समरी ट्रायल (सारांश परीक्षण) कराकर दोषसिद्धि कराई जा सकती है।

सारांश परीक्षण के तहत हलफनामा, विशेषज्ञ रिपोर्ट और लिखित साक्ष्य का अध्ययन कर पूर्ण परीक्षण के बिना मामलों पर फैसला लिया जाता है। इस प्रक्रिया में कोर्ट का काफी समय बच जाता है क्योंकि इसमें गवाह की गवाही और जिरह की आवश्यकता नहीं पड़ती है व फैसला जल्दी आ जाता है।

विवेक शर्मा कहते हैं, “समरी ट्रायल होने से मामला जल्दी निपट जाएगा क्योंकि इसमें गवाहों के बयान पर ज्यादा तवज्जो नहीं होती है। आप देखिए, तो बंधुआ मजदूरी से जुड़े केसों के लंबा खिंचने की सबसे बड़ी वजह ये होती है कि लोग कोर्ट में जाकर गवाही नहीं देते हैं। अगर इस प्रावधान को छोड़ दिया जाए, तो मामले का निबटारा बहुत जल्द हो जाएगा।”

बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास की स्थिति

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1978 में बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम लागू होने के बाद से लेकर साल 2023 तक देश में 3,15,302 लोगों को बंधुआ मजदूरी के चंगुल से मुक्त कराया गया है और इनमें से 98 प्रतिशत लोगों को पुनर्वासित किया जा चुका है। बिहार में पुनर्वासित किये गये बंधुआ मजदूरों की संख्या 14577 है।

केंद्र सरकार मानती है कि बंधुआ मजदूरी की समस्या की वजह सामाजिक प्रथा व आर्थिक विवशता है और उनमें बदलाव आना अब भी बाकी है।

केंद्र सरकार ने साल 2016 में राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में कहा कि केंद्र सरकार ने 15 वर्षों का एक विजन दस्तावेज तैयार किया है जिसमें वर्ष 2030 तक 1.84 करोड़ बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराकर भारत को बंधुआ मजदूर करने का लक्ष्य रखा है।

हालांकि पुनर्वास के आंकड़े बताते हैं कि पुनर्वास की रफ्तार धीमी है और यही रफ्तार जारी रही तो भारत 2030 तक बंधुआ मजदूर मुक्त भारत बनाने का लक्ष्य हासिल करना नामुमकिन होगा। राज्यसभा में 2 फरवरी 2023 को दिये गये आंकड़ों के मुताबिक, साल 2020-2021 से 30 जनवरी 2023 तक महज 2650 बंधुआ मजदूरों को ही मुक्त कराकर पुनर्वास कराया जा सका है जो 2030 तक लक्षित 1.84 करोड़ के आंकड़ों का 0.014 प्रतिशत है।

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Umesh Kumar Ray started journalism from Kolkata and later came to Patna via Delhi. He received a fellowship from National Foundation for India in 2019 to study the effects of climate change in the Sundarbans. He has bylines in Down To Earth, Newslaundry, The Wire, The Quint, Caravan, Newsclick, Outlook Magazine, Gaon Connection, Madhyamam, BOOMLive, India Spend, EPW etc.

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