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भेदभाव, संघर्ष और आशाओं से भरी बिहार में डाउन सिंड्रोम पीड़ितों की ‘रियल लाइफ’ स्टोरी

आम आदमी में 46 क्रोमोज़ोम होते हैं लेकिन डाउन सिंड्रोम में यह संख्या 47 हो जाती है। डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों को बोलने में और चीज़ों को सही ढंग से करने में काफी दिक्कतें होती हैं जबकि कुछ को चलने या दौड़ने में भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। आईक्यू स्तर कम होने के कारण पढ़ाई में मुश्किलें पेश आती हैं।

syed jaffer imam Reported By Syed Jaffer Imam |
Published On :
real life story of down syndrome victims in bihar filled with discrimination, struggle and hope
डाउन सिंड्रोम से जूझ रहे अथर्व सेठ, छोटू रजक और रेज़बी खातून

बीते 20 जून को आमिर खान की फिल्म सितारे ज़मीन पर (Sitaare Zameen Par) रिलीज़ हुई। यह फिल्म स्पेनिश फिल्म कैम्पियनीज़ (Campeones) की रीमेक है जिसमें डाउन सिंड्रोम (Down syndrome) से जूझते लोगों की कहानी दिखाई गई है। फिल्म के परदे पर आने के बाद देशभर में इस मानसिक अवस्था के बारे में बात होनी शुरू हो गई है हालांकि अभी भी इसे लेकर अधिकतर लोग बहुत जागरूक नहीं हैं।


डाउन सिंड्रोम से जूझ रहे लोगों और उनके परिवारों को क्या क्या कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं, यह जानने के लिए हमने डाउन सिंड्रोम से ग्रसित लोगों के जीवन को करीब से देखने का प्रयास किया। इससे पहले कि हम उनके बारे में जानें, आइये इस सिंड्रोम को अच्छे से समझ लेते हैं।

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बैचलर इन मेंटल रिटार्डेशन और साइकोलॉजी में स्नातकोत्तर, डॉक्टर धर्मेंद्र कुमार बौद्धिक दिव्यांगता से जूझ रहे बच्चों के लिए पटना में पुनर्वास केंद्र चलाते हैं। ‘मैं मीडिया’ से बातचीत में उन्होंने बताया कि डाउन सिंड्रोम का मुख्य कारण एक अतिरिक्त क्रोमोज़ोम होता है। आम आदमी की हर कोशिका (Cell) में कुल 46 क्रोमोज़ोम (Chromosome) होते हैं लेकिन डाउन सिंड्रोम में यह संख्या 47 हो जाती है। डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों को बोलने में और चीज़ों को सही ढंग से करने में काफी दिक्कतें होती हैं जबकि कुछ को चलने या दौड़ने में भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। आईक्यू स्तर कम होने के कारण पढ़ाई में मुश्किलें पेश आती हैं।


डाउन सिंड्रोम के मामलों में मां की उम्र भी एक अहम कारण हो सकता है, खासकर बहुत कम उम्र या अधिक उम्र में गर्भधारण करने पर इसका खतरा बढ़ जाता है। डॉ. धर्मेंद्र कुमार बताते हैं कि अब लोगों में जागरूकता बढ़ी है, जिससे डाउन सिंड्रोम के मामलों में कमी देखी जा रही है।

उनके अनुसार कुछ वर्ष पहले तक डाउन सिंड्रोम का पता जन्म के 2 या 3 वर्ष के बाद चलता था लेकिन चिकित्सा विज्ञान के तरक्की होने से अब गर्भावस्था के पहले 3 महीने के अंदर भी इसका पता लगाया जा सकता है। अगर डाउन सिंड्रोम से ग्रसित बच्चों की शुरुआत से ही सही जांच और देखभाल की जाए तो अच्छे नतीजे मिल सकते हैं। ऐसे बच्चों को जन्म के बाद से ही ख़ास देख-रेख और उपचार की ज़रूरत होती है। वज़न का घटना या दूसरी चिकित्सीय पेंचीदगी भी आ सकती है।

“पहले से पांचवें वर्ष तक इन बच्चों को अगर सही थेरेपी दी जाए तो आगे चलकर ऐसे बच्चे बहुत अच्छा कर सकते हैं। डाउन सिंड्रोम के बच्चों को स्वतंत्र रूप से अपने काम करने में कठिनाइयां आती हैं इसलिए उन्हें शुरू से सही देख रेख और मार्गदर्शन की ज़रूरत होती है,” डॉक्टर धर्मेंद्र ने बताया।

मानसिक दिव्यांगता के विशेषज्ञ डॉक्टर उमा शंकर सिन्हा पिछले दो दशक से बौद्धिक दिव्यांगता से ग्रसित बच्चों को प्रशिक्षण दे रहे हैं। उन्होंने बताया कि डाउन सिंड्रोम जेनेटिक कंडीशन है जिसमें बच्चों का समय पर विकास नहीं हो पाता। इन बच्चों के चेहरे का आकार समतल और आंखों का आकार तिरछा होता है। इसके अलावा इनकी छोटी गर्दन और हाथ पैर भी छोटे होते हैं और कद भी अक्सर कम रहता है।

डाउन सिंड्रोम में जीना

किशनगंज जिले की चकला पंचायत स्थित सिंघिया सुल्तानपुर निवासी रेज़बी खातून दिखने में गांव के बाकी बच्चों से थोड़ी अलग है। वह बोल भी नहीं पाती हालांकि छोटे-मोटे काम और चलने फिरने में उसे कोई तकलीफ नहीं है।

रेज़बी के जन्म के महीनों बाद परिवार को पता चला के वह मानसिक दिव्यांगता की शिकार है। पेशे से प्लाईवुड कारीगर सरफ़राज़ आलम ने बताया कि उनकी बहन रेज़बी ने काफी देरी से चलना सीखा। वह बचपन से बोल नहीं पाती, परिवार ने जब किशनगंज के सदर अस्पताल में दिखाया तो उन्हें बड़े अस्पताल ले जाकर गले का ऑपरेशन कराने को कहा गया। पैसे न होने के कारण परिवार ने दुआ-तावीज़ कराई लेकिन रेज़बी कभी बोल नहीं सकी।

जब हम रेज़बी से मिले तो वह बार बार अपने गले की तरफ इशारा कर हमें बताना चाह रही थी कि गले में तकलीफ है और इसी कारण वह बोल नहीं पाती।

“दिमाग़ तो सही है बस बोल नहीं पाती है। सब समझती है, जो कहिएगा वो लाकर देती है। खुद से रिश्तेदारों के घर आती जाती है,” बड़े भाई सरफ़राज़ ने कहा।

स्कूल में भेदभाव

रेज़बी खातून अब 16 वर्ष की है। माता पिता ने उसे बचपन से ही बहुत पढ़ाने की कोशिश की लेकिन पास के सरकारी स्कूल में उसे बच्चों के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा।

सरफ़राज़ आलम कहते हैं, “यह स्कूल भी जाती थी लेकिन वहां स्कूल में सब परेशान करते थे। बच्चे इसको मोटी-मोटी चिढ़ाते थे। इसका चलने का अंदाज़ दूसरा है तो चिढ़ाते होंगे। इसलिए अब इसको घर पर रखते हैं, वैसे कोई रोकटोक नहीं है, दिल में आता है तो कभी कभी स्कूल चली जाती है। हमारे किशनगंज में ऐसे बच्चे बहुत हैं। सरकार कुछ कर सकती है तो अच्छी बात है कि बच्चा सही हो जाये, मेरा नहीं सबका बच्चा सही हो जाए।”

किशनगंज नगर परिषद स्थित लाइन धोबीपट्टी के रहने वाले 32 वर्षीय छोटू रजक को उनके परिवार का बचपन से साथ मिला। छोटू रजक के जन्म के समय किशनगंज सदर अस्पताल में डॉक्टरों ने परिवार को डाउन सिंड्रोम के बारे में बताया।

“जब पैदा हुआ तो डॉक्टर ने बताया था कि यह बच्चा विकलांग जैसा है, इसका शरीर का विकास कम होगा और मानसिक तौर पर कमज़ोर रहेगा। हम अपने खर्च पर इसकी देखभाल करते हैं,” छोटू के बड़े भाई राजू कुमार रजक ने कहा।

15 वर्ष की उम्र में घर वालों ने छोटू को पास के एक सरकारी स्कूल में भेजना शुरू किया। स्कूल में दूसरे छात्र उसके साथ बुरा बर्ताव करते थे जिसके बाद परिवार ने तंग आकर 6 महीने के भीतर छोटू का स्कूल जाना बंद करा दिया। बड़े भाई राजू ने हमें एक घटना के बारे में बताया।

“हमने पढ़ाई लिखाई की बहुत कोशिश की थी। सरकारी स्कूल में भेजे तो दूसरे बच्चे इसके साथ मारपीट करते थे। एक दफा एक बच्चा सीने में मार दिया था तो इसकी तबीयत खराब हो गई, तो फिर हमलोग इसका स्कूल बंद करा दिए। एक महीने इलाज चला, खाने पीने पर ध्यान दिए, पैसा खर्च किये तो छोटू एक महीने में ठीक हो गया। उसके बाद से कोई तकलीफ नहीं है,” पेशे से धोबी राजू कुमार बोले।

डाउन सिंड्रोम के बच्चों से भेदभाव सिर्फ छोटे शहरों तक सीमित नहीं है। बिहार की राजधानी पटना के रहने वाला अथर्व सेठ दूसरी कक्षा का छात्र है। पहले परिवार ने एक बड़े स्कूल में उसका दाखिला कराया लेकिन स्कूल प्रशासन ने उसे ‘अलग’ बताकर कहीं और पढ़ाने के लिए कह दिया। इसके बाद घर वालों ने अथर्व को अपेक्षाकृत छोटे स्कूल में दाखिल कराया।

राष्ट्रीय खिलाड़ी बना अथर्व

अथर्व राज्य के उन चुनिंदा बच्चों में से एक है जो स्पेशल ओलंपिक्स में राष्ट्रीय स्तर पर बिहार का नाम रोशन कर रहा है। दस वर्षीय अथर्व पिछले लगभग 3 वर्षों से स्पेशल ओलंपिक्स में भाग ले रहा है। अथर्व की माता पल्लवी सोनी ने हमें बताया कि जन्म के बाद उन्हें पता चला कि अथर्व डाउन सिंड्रोम से ग्रसित है। जाँच में उसके दिल में छेद पाया गया जिसके बाद महज़ डेढ़ महीने की आयु में उसके ह्रदय का ऑपरेशन किया गया।

atharva has been participating in special olympics at the national level since the age of 8 and has won several medals.
अथर्व 8 साल की उम्र से विशेष ओलंपिक्स में राष्ट्रीय स्तर पर खेल रहा है और कई पदक जीत चुका है।

“जब अथर्व 15 दिन का था तो तेज़ी से उसका वज़न घटने लगा, हमलोग डॉक्टर को दिखाएं तो पता चला दिल में छेद है। ज़्यादा तबीयत खराब होने लगी तो डेढ़ महीने में ऑपरेशन करना पड़ा। उसका जीवन काफी मुश्किल था, उसके लिए भी और हमारे लिए भी। पहले तो हमलोग के लिए समझना बहुत मुश्किल था, हमलोग नहीं जानते थे डाउन सिंड्रोम होता क्या है,” पल्लवी सोनी बोलीं।

डाउन सिंड्रोम की वजह से अथर्व ने जन्म के दो साल बाद चलना शुरू किया हालांकि, उसके माता-पिता ने 6 महीने की आयु से ही उसकी फिजियोथेरेपी शुरू कर दी थी। साढ़े 3 साल की आयु में अथर्व को सामान्य स्कूल में भेजना शुरू किया गया और फिर बाद में उसे स्पेशल एजुकेशन और स्पीच थेरेपी भी दी गई।

अथर्व ने 2022 में 8 वर्ष की उम्र से विशेष ओलंपिक्स में राष्ट्रीय स्तर पर खेलना शुरू किया। वह विशेष रूप से बोचे खेलता है। हालांकि वह बैडमिंटन समेत कई और खेलों में भी भाग ले चुका है। इसी महीने अहमदाबाद में हुए ‘स्पेशल ओलंपिक्स भारत’ में अथर्व ने राष्ट्रीय बैडमिंटन प्रतियोगिता में कांस्य पदक हासिल किया।

“उसको आत्मनिर्भर बनाने के लिए जो कर सकते हैं वो हमलोग करते हैं। बहुत लोग बोलते हैं यह पढ़ेगा नहीं लिखेगा नहीं लेकिन वह पढ़ता है, उसको बाकी बच्चों से अधिक ज्ञान है। अगर उसे बिठाकर पूछें तो वह सब कुछ बता सकता है,” अथर्व की मां पल्लवी ने कहा।

अथर्व के दो छोटे जुड़वाँ भाई और एक छोटी बहन है जो कराटे खेलती है। अथर्व की माता का कहना है कि वह अपने भाई बहनों से काफी प्यार करता है और उन सबसे सीखता है और उन्हें काफी प्रेरणा भी देता है। इनसब के बावजूद सामजिक रूप से परिवार वालों को अथर्व को लेकर काफी कुछ सुनना पड़ता है।

“हम लोग शुरू से अथर्व को लेकर हर जगह गए। शादी हो या कोई और इवेंट, हर जगह उसको साथ लेकर जाते हैं। हम जहां जाएंगे वहां अथर्व जाएगा, ऐसा नहीं है कि मेरा ऐसा बच्चा है तो कहीं नहीं जाएगा। हमलोग ऐसी जगह जाते ही नहीं हैं जहां (लोग) अथर्व को पसंद न करें।”

वह आगे कहती हैं कि डाउन सिंड्रोम या इस तरह की मानसिक या शारीरिक अवस्था में पैदा होने वाले बच्चों के माता-पिता को इस स्थिति को स्वीकार करना चाहिए।

“मेरा बच्चा ऐसा ही है यह स्वीकार करना चाहिए। कहीं पर नहीं ले जाना शर्म से कि मेरा बच्चा ऐसा है, यह बंद करना चाहिए। हम पहले जब अथर्व को पार्क में ले जाते थे तो अथर्व बैठता था तो दूसरे लोग झूले को धो कर बैठते थे। पार्क सबके लिए होता है, आपको दिक्कत है तो आप धोकर बैठिये या मत बैठिये यह आपकी समस्या है हमारी नहीं है,” पल्लवी ने कहा।

सरकारी योजनाएं कितनी कारगर?

भारत सरकार के सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय की एक शाखा ‘दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग’ बौद्धिक विकलांगता से जूझने वाले लोगों की सहायता करती है। भारत सरकार बौद्धिक रूप से दिव्यांगजनों को 400 रुपये पेंशन के तौर पर देती है। इसके अलावा डाउन सिंड्रोम के बच्चों को केंद्र सरकार हर साल इलाज के लिए एक लाख रुपये की सहायता देती है। विशिष्ट विकलांगता आईडी (UDID) कार्ड बनने के बाद दिव्यांगजनों को सशक्तिकरण विभाग के अधीन नेशनल ट्रस्ट से पंजीकरण करना होता है। डॉ उमा शंकर सिन्हा इसी शाखा में बिहार के सचिव रह चुके हैं।

वह कहते हैं, “डाउन सिंड्रोम में बच्चे कई तरह की समस्याओं के साथ जन्म लेते हैं। सही समय पर पूरी जांच होने से बच्चों का पुनर्वास बेहतर हो सकता है। इनमें दवाओं का बहुत रोल नहीं होता इसलिए पुनर्वास बहुत ज़रूरी है। यह समस्या जीवन भर रहती है इसलिए इसे उसी तरह से डील करना होता है। ऐसे बच्चे भी सामान्य जीवन जीते हैं लेकिन क्योंकि वे बहुत नाज़ुक होते हैं तो उन्हें उसी तरह से देखभाल की ज़रूरत होती है।”

देश में दिव्यांगजनों के लिए नौकरियों में पहले 3% आरक्षण था जो अब 4% हो चुका है। केंद्र सरकार के दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग ‘बढ़ते कदम’ नाम से एक जागरूकता कार्यक्रम चलाता है। इस योजना के तहत डाउन सिंड्रोम के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए सरकार स्थानीय एनजीओ को 20,000 रुपये के राशि देती है।

भारत सरकार ‘स्पेशल ओलंपिक्स भारत’ जैसे मंचों के जरिए दिव्यांग बच्चों को राज्य, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने के मौके दे रही है। पदक विजेताओं को इनामी राशि भी दी जाती है।

वहीं बिहार में बौद्धिक दिव्यांगता को लेकर राज्य सरकार की भूमिका पर डॉ धर्मेंद्र कुमार कहते हैं, “बिहार में डॉ. शिवाजी कुमार के कार्यकाल में दिव्यांगता को लेकर कई अहम पहल हुईं। उन्होंने गांव-गांव जाकर जागरूकता फैलाई लेकिन उनके जाने के बाद सारे प्रयास ठंडे बस्ते में चले गए।”

सरकारी प्रक्रिया से परिवार नाखुश

16 वर्षीय रेज़बी खातून का विशेष विकलांगता कार्ड अभी तक नहीं बन सका है। पिता नूर आलम ने बताया कि कई बार सरकारी कागज़ात बनाने वाले दुकानदारों और सरकारी दफ्तरों से मदद मांगी, पैसे भी दिए लेकिन अब तक कार्ड नहीं बना।

“एक सरकारी आदमी है। मेरे से 500-600 रुपये ले चुका है लेकिन अभी तक काम नहीं किया, बोलता है कल आएगा परसो आएगा लेकिन वह कुछ नहीं करता है। जहां भी जाते हैं कार्ड बनाता ही नहीं है, काग़ज़ जमा करके कहीं पर रख देता है,” नूर आलम बोले।

वह चाहते हैं कि औरों की तरह उनकी बेटी रेज़बी खातून को भी सरकारी योजनाओं का लाभ मिले। आगे उन्होंने बताया कि रेज़बी के गले में सामान्य रूप से अधिक मांस होने के कारण वह बोल नहीं पाती है। परिवार के पास इतना पैसा नहीं कि उसका इलाज करा सके। कुछ समय पहले रेज़बी ने पेट दर्द की शिकायत की तो उसका अल्ट्रासाउंड कराया गया जिसमें कुछ नहीं निकला। कुछ दिन दवाएं दी गईं हालांकि, वह अभी भी कभी कभी पेट दर्द की शिकायत करती है।

4 वर्ष पहले परिवार ने छोटू रजक का विशेष दिव्यांगता कार्ड बनवाया जिससे उसे प्रति माह 400 रुपये की सरकारी मदद मिलती है।

छोटू कुछ छोटे-मोटे काम खुद कर लेता है, लेकिन कपड़े पहनने जैसे कई कामों के लिए अब भी उसे परिवार के सदस्यों की मदद लेनी पड़ती है।

बड़े भाई राजू कुमार रजक चाहते हैं कि छोटू की तरह जितने बच्चे डाउन सिंड्रोम से पीड़ित हैं उनके लिए किशनगंज शहर में विशेष स्कूल बने। सरकार की मासिक सहायता में बढ़ोतरी की मांग करते हुए वह कहते हैं, “सरकार इनको सहायता देना चाहे तो बहुत कुछ कर सकती है। मासिक सहायता की रकम को थोड़ा बढ़ा देना चाहिए ताकि वह किसी और पर निर्भर न हो। आज के महंगाई के दौर में 400 में कुछ नहीं होता।

बढ़ती महंगाई को देखते हुए 24 जून, 2025 को बिहार सरकार ने ‘बिहार निःशक्तता पेंशन योजना’ के तहत 40% या उससे अधिक दिव्यांगता वाले सभी दिव्यांगजनों को 400 रुपये प्रतिमाह पेंशन की जगह 1100 रुपये देने की घोषणा की। यह संशोधित राशि जुलाई 2025 से लागू होगी।

अथर्व सेठ के माता पिता, पल्लवी सोनी और उनके पति सौरभ सोनी स्नातकोत्तर हैं। उनके पढ़े लिखे होने का फायदा उनके बेटे को मिला। अथर्व को छोटी आयु से ही सही चिकित्सक सहायता मिली। हालांकि, हमसे बातचीत में पल्लवी सोनी ने बिहार में इस तरह के बच्चों को लेकर बहुत अधिक सुविधा न होने की शिकायत भी की।

वह कहती हैं, “यहां (बिहार में) विशेष बच्चों के लिए बहुत अधिक सुविधाएं नहीं है। हमें यहां थेरेपिस्ट ढूंढ़ने में भी काफी दिक्कत आती है खासकर विशेष शिक्षा के लिए बहुत अच्छे विकल्प नहीं मिल पाते हैं। सरकार की योजनाओं के बारे में जागरूकता की कमी भी एक बड़ी समस्या है। विशेष विकलांगता कार्ड बनाने में भी लोगों को बहुत परेशानी होती है।”

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सैयद जाफ़र इमाम किशनगंज से तालुक़ रखते हैं। इन्होंने हिमालयन यूनिवर्सिटी से जन संचार एवं पत्रकारिता में ग्रैजूएशन करने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया से हिंदी पत्रकारिता (पीजी) की पढ़ाई की। 'मैं मीडिया' के लिए सीमांचल के खेल-कूद और ऐतिहासिक इतिवृत्त पर खबरें लिख रहे हैं। इससे पहले इन्होंने Opoyi, Scribblers India, Swantree Foundation, Public Vichar जैसे संस्थानों में काम किया है। इनकी पुस्तक "A Panic Attack on The Subway" जुलाई 2021 में प्रकाशित हुई थी। यह जाफ़र के तखल्लूस के साथ 'हिंदुस्तानी' भाषा में ग़ज़ल कहते हैं और समय मिलने पर इंटरनेट पर शॉर्ट फिल्में बनाना पसंद करते हैं।

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