पटना हाईकोर्ट ने बिहार में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में एडमिशन में मिलने वाले 65 प्रतिशत आरक्षण के कानून को रद्द कर दिया है। दरअसल, “यूथ फॉर इक्वालिटी” नामक संस्था ने इस कानून को कोर्ट में चुनौती दी थी, जिस पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया है।
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि आरक्षण बढ़ाने संबंधी सरकार का यह कदम गैर-संवैधानिक और संविधान के आर्टिकल 14, 15 तथा 16 के तहत बराबरी के अधिकार का उल्लंघन है।
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हाईकोर्ट का मानना है कि सरकार ने आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से ऊपर बढ़ाने से पहले कोई गहन अध्ययन या विश्लेषण का प्रयास नहीं किया है। राज्य ने सिर्फ विभिन्न जातियों की आबादी की तुलना में सरकारी सेवाओं और शिक्षण संस्थानों में संख्यात्मक प्रतिनिधित्व के अनुपात के आधार पर यह फैसला लिया है।
नवंबर में बढ़ा था आरक्षण का दायरा
दरअसल, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार ने नवंबर में “बिहार पदों एवं सेवाओं की रिक्तियों में आरक्षण (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों के लिए) (संशोधन) अधिनियम-2023” और ‘बिहार (शैक्षणिक संस्थानों में नामांकन) आरक्षण अधिनियम-2023’ विधानसभा में सर्वसम्मति से पास कराया था।
विधेयक के अनुसार, सरकार ने बिहार में एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से बढ़ा कर 65 प्रतिशत कर दिया था। आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण पहले से ही था, जिससे बिहार में आरक्षण का कोटा 75 प्रतिशत हो गया था।
नए विधेयक के अन्तर्गत नियुक्तियों और शैक्षणिक संस्थानों में एडमिशन में पिछड़ा वर्ग के लिए 18%, अत्यंत पिछड़ा वर्ग के लिए 25%, अनुसूचित जाति के लिए 20%, अनुसूचित जनजाति के लिए 2% और ईडब्ल्यूएस के लिए 10% सीट आरक्षित हो गयी थी।
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