साल 1988 की बात है। दिव्यांग बच्चों को कक्षा सात तक रोजगार परक शिक्षा मुहैया करवाने के उद्देश्य से भारत सरकार के तत्कालीन कल्याण राज्य मंत्री राजेन्द्र कुमार वाजपेयी द्वारा इस संस्थान का उद्घाटन किया गया था। संस्थान का नाम रखा गया ‘कोसी विकलांग कल्याण संस्थान।’
संस्थान बिहार की राजधानी पटना से करीब 300 किलोमीटर दूर पूर्णिया जिले के गढ़बनैली के हाजी नगर में स्थित यह संस्थान विकलांगों को रोजगार से जोड़ने वाली यह उस वक्त की इकलौती संस्था थी।
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मैं मीडिया ने 34 साल पुराने इस संस्थान के निशान ढूंढे, तो पता चला कि यह संस्थान लगभग खंडहर बन चुका है और धूल फांक रहा है।
कैसे हुई स्थापना
10 अगस्त 1986 को स्थानीय कसबा प्रखंड कार्यालय में तत्कालीन उप विकास आयुक्त अजित कुमार की अध्यक्षता में एक बैठक हुई। बैठक में कई बुद्धिजीवी तथा स्थानीय लोग इकट्ठा हुए। इसी बैठक में स्थानीय हाजी कमालुद्दीन तथा नसीम फानी ने संस्था के नाम पर 3 एकड़ जमीन दी।
संस्था के भवन निर्माण तथा दूसरी सुविधाओं के लिए तत्कालीन कसबा विधायक मो. गुलाम हुसैन तथा पूर्णिया लोकसभा के सांसद माधुरी सिंह द्वारा मदद की गई थी। 11 फरवरी 1987 को तत्कालीन कोसी प्रमंडल आयुक्त एम के मंडल द्वारा भवन का शिलान्यास किया गया था।
संस्था के निबंधन के पश्चात जिला पदाधिकारी को मुख्य संरक्षक अध्यक्ष, उप विकास आयुक्त तथा अनुमंडलाधिकारी और जिला कल्याण पदाधिकारी को उपाध्यक्ष और प्रखंड विकास पदाधिकारी को सदस्य बनाया गया था।
संस्थान की शुरुआत के बाद कल्याण विभाग द्वारा दो किस्तों में 15-15 हजार रुपये भी मुहैया करवाए गए थे। मगर आगे से सरकार द्वारा सहयोग नहीं मिल पाने के कारण संस्थान अक्टूबर 1998 से बंद पड़ा है।
सरकारी उदासीनता है संस्थान के बंद होने की वजह
संस्थान के संस्थापक सचिव तथा एमएल आर्य कॉलेज के नेत्रहीन प्राध्यापक डॉ अनिल कुमार संस्थान के बंद होने की वजह सरकारी उदासीनता को बताते हैं। उन्होंने बताया कि इस संबंध में समाज कल्याण विभाग से लेकर राज्यपाल तक को पत्र लिखकर जानकारी दी गई है। साथ ही संस्थान के समुचित रखरखाव तथा संचालन के लिए सरकार द्वारा ही इसे चलाने की मांग भी की गई है। मगर संस्थान की हालत लगातार बद-से-बदतर होती गई है।
अनिल कुमार ने कहा, ‘एक ओर बिहार सरकार ने राज्य में 14 वर्षों तक के बच्चों के शिक्षा को अनिवार्य बना दिया है, लेकिन इस संस्थान पर किसी तरह का कोई ध्यान नहीं दिया गया।’ इस कारण पूर्वोत्तर बिहार के लाखों दिव्यांग बच्चे सामान्य शिक्षा से भी वंचित हैं।
डॉ अनिल कुमार आगे बताते हैं कि शुरुआत में आसपास के क्षेत्र से अनाज मांगकर किसी तरह संस्थान को चलाया गया। साथ ही इसे चलाने के लिए एक चैरिटी शो का आयोजन भी किया गया था। उम्मीद थी कि सरकार से 10 लाख रुपये का ग्रांट मिलेगा।
मगर धीरे-धीरे संस्थान भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। हालत ऐसी हो गई कि नीचे से ऊपर तक पैसों की मांग होने लगी। बाद के दिनों में जो भी इससे जुड़े उनका ध्येय बस पैसा बनाना रहा। इसी कारण 1998 में यह संस्थान पूरी तरह बंद हो गया।
स्थापना के समय बहुत बड़ा था प्लान
डॉ अनिल कुमार ने बताया कि संस्थान की स्थापना के समय इसको लेकर बड़े सपने देखे गए थे। संस्थान का मकसद मूक-बधिर और नेत्रहीनों को सभी तरह की शिक्षा मुहैया करवाना था।
वोकेशनल ट्रेनिंग के साथ ही यहां कृत्रिम अंगों के निर्माण का भी प्लान था। एक तरफ तो संस्थान पब्लिक सहयोग से चल रहा था, मगर ऊपर से नीचे तक पैसों के बंदरबांट की मांग होने लगी। उन्होंने बताया कि यह अपने तरह का एकमात्र ऐसा संस्थान है जिसके पास अपनी तीन एकड़ की जमीन, छात्रावास तथा पुस्तकालय भवन है।
सरकार ही है संस्थान की बर्बादी के जिम्मेदार
संस्थान के छात्रावास अधीक्षक सोहनलाल ठाकुर ने बताया कि इस संस्थान की बर्बादी का जिम्मेदार सरकार ही है। उन्होंने बताया कि एक समय के बाद सरकार द्वारा सहायता नहीं मिलने के कारण यहां पढ़ रहे विद्यार्थियों को अपने-अपने घर भेज दिया गया।
सोहनलाल खुद दिव्यांग हैं तथा संस्थान को निःस्वार्थ अपनी सेवा देते रहे हैं। उन्होंने संस्थान के बर्बाद होने का कारण सरकार द्वारा दिव्यांगों के प्रति उदासीनता को बताया। अब हाल यह है कि संस्थान की जमीन पर जबरन फसलों की बुआई कर दी जा रही है। अब जमीन मालिक तथा पदाधिकारियों की मिलीभगत से संस्थान के जमीन को हड़पने की साजिश चल रही है।
उन्होंने बताया कि कई दफा बिहार सरकार को पत्र लिखकर संस्थान को चलाने की कोशिश की गई है। मगर हर दफा निराशा ही हाथ लगी है।
इसी तरह के एक पत्र के आलोक में समाज कल्याण विभाग के निदेशक के पत्रांक संख्या 10/11/2007-944 में कहा गया कि प्रस्ताव के अनुशंसा पत्र में जिस राशि का प्रावधान किया गया है, उसका 10 फीसदी खाते में नहीं रहने के कारण संस्थान बंद है।
ज्ञात हो कि कोसी विकलांग संस्थान स्थापना के समय राज्य का तीसरा तथा कोसी प्रमंडल का एकमात्र ऐसा संस्थान था जो दिव्यांगों को सामान्य शिक्षा के साथ-साथ आवास तथा पुस्तकालय प्रदान करता था।
कुछ वर्षों तक इसका संचालन पूरी तरह से जनता के सहयोग से होता रहा। मगर इससे जुड़े पदाधिकारियों तथा लोगों को यह पैसा उगाही का केंद्र नजर आने लगा। आज हालत यह है कि संस्थान नशेड़ियों का अड्डा मात्र बनकर रह गया है।
संस्थान को चलाने को लेकर कई बार बैठक हो चुकी है। इसी तरह की एक बैठक दिसंबर 2019 में भी हुई थी। बैठक में इसे फिर से चलाने के लिए प्रस्ताव भी पारित हुआ था, मगर कुछ नहीं हुआ। साल 1988 से 1998 तक बिना सरकारी सहायता से चलने वाला यह संस्थान आज अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है।
बंद होने के बाद कई दफा जांच टीम द्वारा संस्थान का परीक्षण किया गया। कई दफा लोगों में उम्मीद जगी कि संस्थान फिर से शुरू होगा, मगर मामला जस-का-तस है। कई बार सरकारी सुविधाओं को लेकर आश्वासन दिया गया। मगर, तमाम जांचों और आश्वासनों के बावजूद संस्थान के हालत में कोई परिवर्तन नहीं आया।
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