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उत्तर बंगाल: अलग राज्य का मुद्दा, राजनीति और हकीकत

उत्तर बंगाल की अपेक्षा के चलते अलग राज्य का मुद्दा बीते कई वर्षों से उठता आ रहा है। मगर हालिया प्रस्ताव के संदर्भ में देखें तो यह पश्चिम बंगाल प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और दक्षिण दिनाजपुर जिला अंतर्गत बालुरघाट लोकसभा क्षेत्र से सांसद व मोदी सरकार में राज्यमंत्री सुकांत मजूमदार के प्रयासों व बयानों का ही परिणाम माना जा रहा है।

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north bengal issue of separate state, politics and reality

यह इसी अगस्त महीने की पांच तारीख की बात है। सोमवार का दिन था और पश्चिम बंगाल विधानसभा के वर्तमान मानसून सत्र का अंतिम दिन भी था। उसी दिन विधानसभा ने पश्चिम बंगाल राज्य को विभाजित करने के किसी भी प्रयास के विरोध में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया।


उस दो पंक्तियों के प्रस्ताव में कहा गया कि ‘हम किसी भी प्रकार के विभाजन से बंगाल की रक्षा करेंगे’ और ‘हम अखंड बंगाल के विकास के लिए काम करेंगे’। राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की ओर से नियम 185 के तहत पेश किए गए इस प्रस्ताव को विपक्षी भाजपा ने भी अपना पूरा समर्थन दिया जो अपने आप में दुर्लभ था।

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इस प्रस्ताव पर अपने भाषण के दौरान पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जोर देते हुए कहा‌ कि ‘हम किसी भी कीमत पर पश्चिम बंगाल का विभाजन नहीं होने देंगे।’


पश्चिम बंगाल विधानसभा द्वारा इस तरह के प्रस्ताव को पारित किए जाने को अलग राज्य ‘उत्तर बंगाल’ गठित किए जाने की संभावनाओं के विरुद्ध एहतियाती कदम माना जा रहा है।

क्यों उठा अलग राज्य ‘उत्तर बंगाल’ का मुद्दा?

उत्तर बंगाल की अपेक्षा के चलते अलग राज्य का मुद्दा बीते कई वर्षों से उठता आ रहा है। मगर हालिया प्रस्ताव के संदर्भ में देखें तो यह पश्चिम बंगाल प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और दक्षिण दिनाजपुर जिला अंतर्गत बालुरघाट लोकसभा क्षेत्र से सांसद व मोदी सरकार में राज्यमंत्री सुकांत मजूमदार के प्रयासों व बयानों का ही परिणाम माना जा रहा है।

यह बात इस हालिया बंग-भंग यानी बंगाल विभाजन की कवायद के विरुद्ध पारित प्रस्ताव में भी उल्लिखित थी। उसमें कहा गया था कि मोदी सरकार के राज्यमंत्री उत्तर बंगाल को पूर्वोत्तर परिषद में शामिल कराना चाहते हैं जिससे उत्तर बंगाल को राज्य के बाकी हिस्सों से अलग करने की छुपी हुई कोशिशों का संकेत मिलता है।

प्रस्ताव की ऐसी भाषा पर भाजपा विधायकों ने अपनी कड़ी आपत्ति दर्ज कराई थी और विरोध करना शुरू कर दिया था। उन्होंने प्रस्ताव की भाषा में संशोधन की मांग की। विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने कहा कि अगर सत्तारूढ़ पार्टी प्रस्ताव को सरल रखती है और उसमें केवल बंगाल के विभाजन के खिलाफ प्रस्ताव का उल्लेख करती है तो भाजपा पूरा समर्थन देगी। विपक्षी नेता के इस प्रस्ताव को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मान लिया। उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष बिमान बनर्जी से अपील की कि वह पहले के प्रस्ताव को दो पंक्तियों से बदल दें। उसमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख कर दें कि ‘सभी विधायक राज्य के किसी भी प्रकार के विभाजन के खिलाफ हैं।’ ममता बनर्जी ने यह भी कहा कि, ‘मैं एकीकृत बंगाल का समर्थन करती हूं, इसलिए मैं विपक्ष के नेता के प्रस्ताव का स्वागत करती हूं और बंगाल का विभाजन न करने के प्रस्ताव की दूसरी पंक्ति में उनकी पंक्ति ‘अखंड बंगाल का विकास’ को जोड़ना चाहती हूं।’ इस संशोधन के बाद ही प्रस्ताव पारित हो सका।

‘उत्तर बंगाल’ राज्य के मुद्दे पर आरोप-प्रत्यारोप

बंगाल विभाजन की कोशिशों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित होने के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय सेक्युलर मजलिस पार्टी (आरएसएमपी) के विधायक मोहम्मद नौशाद सिद्दीकी ने भी कहा कि ‘हम बंगाल के विभाजन का कभी समर्थन नहीं करते। कुछ लोग विभाजन के पक्ष में हैं जिन्होंने केंद्र शासित प्रदेश और अलग उत्तर बंगाल की बात कही है।’ उनका इशारा भाजपा के लोगों की ओर था। उसी अवसर पर पश्चिम बंगाल राज्य सरकार की मंत्री चंद्रिमा भट्टाचार्य ने सुकांत मजूमदार का नाम लेकर कहा था कि भाजपा की शर्मनाक सोच है जो बंगाल को बांटना चाहती है।

वहीं, विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने यह स्पष्ट किया कि राज्यमंत्री (सुकांत मजूमदार) का दृष्टिकोण उत्तर बंगाल को पश्चिम बंगाल राज्य से अलग करना नहीं बल्कि उत्तर बंगाल के विकास के लिए पूर्वोत्तर राज्यों को आवंटित निधि से एक हिस्सा प्राप्त करना था।

उन्होंने पश्चिम बंगाल राज्य सरकार द्वारा उत्तर बंगाल की घोर उपेक्षा का आरोप लगाते हुए यह भी कहा कि दरअसल हम राज्य के उत्तरी क्षेत्र (उत्तर बंगाल) का विकास चाहते हैं। वहीं, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कहा कि “हम भी ‘सहकारी संघवाद’ (को-ऑपरेटिव फेडेरलिज्म) में यकीन करते हैं। हम राज्य को विभाजित करने की किसी भी कोशिश के खिलाफ हैं।

भाजपा नेता व केंद्रीय राज्यमंत्री ने क्या कहा था

केंद्र सरकार में पूर्वोत्तर विकास मामलों के मंत्री सुकांत मजूमदार ने बीते जुलाई महीने के अंत में उत्तर बंगाल को लेकर एक संवेदनशील बयान दिया था जिसके विरुद्ध पश्चिम बंगाल विधानसभा को हफ्ता-10 दिन के अंदर ही प्रस्ताव पारित करना पड़ा।

सुकांत मजूमदार का बयान था कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल कर उनके समक्ष उत्तर बंगाल की समस्याओं को रखा। उसके समाधान हेतु उत्तर बंगाल क्षेत्र को पूर्वोत्तर विकास मंत्रालय के अधीन कर देने का भी प्रस्ताव दिया जिस पर प्रधानमंत्री ने भी सहमति जताई और जल्द ही समाधान का आश्वासन दिया।

उनके इस बयान को लेकर बंगाल में राजनीति गर्मा गई। इसे लेकर भाजपा व तृणमूल कांग्रेस आमने-सामने आ गए। सुकांत मजूमदार ने तब यह भी कहा था कि ‘मैंने पूर्वोत्तर और उत्तर बंगाल दोनों क्षेत्रों की समानताओं के आधार पर ही उत्तर बंगाल को पूर्वोत्तर में शामिल करने का प्रस्ताव रखा। अगर उत्तर बंगाल को बंगाल का हिस्सा बरकरार रखते हुए पूर्वोत्तर में शामिल किया जाता है तो इस क्षेत्र को अधिक केंद्रीय धन मिलेगा जिससे विकास सुनिश्चित होगा।’

उनकी इस बात पर सबसे पहले खुद उनकी ही पार्टी भाजपा के कर्सियांग से विधायक बी.पी. बजगाईं ने विरोध जताया था। उन्होंने कहा था कि ‘अगर इस क्षेत्र (उत्तर बंगाल) को अलग राज्य में विभाजित कर दिया जाए और पूर्वोत्तर परिषद में शामिल कर दिया जाए तो हमें खुशी होगी। मगर सुकांत मजूमदार उत्तर बंगाल को पश्चिम बंगाल का अभिन्न अंग बनाए रखते हुए ही पूर्वोत्तर में शामिल करने की बात कह रहे हैं जो कि संभव नहीं है।’

उन्होंने आगे कहा, ‘यह एक काल्पनिक विचार है। यह कभी संभव ही नहीं हो सकता है। हम विकास नहीं चाहते, हम बंगाल से अलग होना चाहते हैं।’

बी.पी. बजगाईं ही एकमात्र भाजपा विधायक रहे जिन्होंने पश्चिम बंगाल विधानसभा में भी बंगाल विभाजन विरोधी प्रस्ताव का बहिष्कार किया और सदन से वाकआउट कर गए।

उत्तर बंगाल, अलग राज्य और भाजपा

उत्तर बंगाल में भाजपा का प्रवेश अलग राज्य की मांगों को पूरा करने के वादे के साथ ही हुआ था। भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने बिहार को बांट कर झारखंड, उत्तर प्रदेश को बांट कर उत्तराखंड व मध्य प्रदेश को बांट कर छत्तीसगढ़ राज्य बनाया था, जिसे देखते हुए ही उत्तर बंगाल के अलगाववादी राजनीतिक संगठनों ने भाजपा को भरपूर समर्थन देना शुरू किया।‌

वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र की उस समय की सबसे बड़ी शक्ति गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने अलग राज्य गोरखालैंड के सपने को साकार करने के लिए ही भाजपा को समर्थन दिया और दार्जिलिंग लोकसभा सीट उसकी झोली में डाल दी।

तब, पूरे 10 वर्षों बाद बंगाल में दोबारा भाजपा का खाता खुल पाया था। पश्चिम बंगाल में भाजपा का खाता पहली बार 1998 में दमदम से खुला था। उस लोकसभा चुनाव में दमदम से सांसद निर्वाचित होकर तपन सिकदर बंगाल के पहले भाजपाई सांसद बने थे। वही फिर दोबारा 1999 के लोकसभा चुनाव में भी दमदम से ही सांसद निर्वाचित हुए।

मगर, 2004 में दमदम लोकसभा सीट भाजपा के हाथ से निकल गई जो अब तक वापस नहीं आ पाई है। उसके बाद से ही भाजपा बंगाल से एक तरह से निर्वासित हो गई थी। बंगाल में भाजपा का पुनर्जन्म 2009 के लोकसभा चुनाव में दार्जिलिंग से तब हुआ, जब बिमल गुरुंग के गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने दार्जिलिंग की सीट उसकी झोली में डाल दी।

फिर, 2014 में दार्जिलिंग के साथ ही साथ आसनसोल जीत कर भाजपा बंगाल में एक से दो हो गई। उसके बाद, 2019 के लोकसभा चुनाव में तो वह बंगाल में 2 से बढ़ कर 18 हो उठी। इस दौरान गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के समर्थन की बदौलत दार्जिलिंग में अपनी जीत की हैट्रिक भी लगा ली।

2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर बंगाल की आठ में से 7 लोकसभा सीटें भाजपा की रहीं। इधर 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर बंगाल में एक सीट तृणमूल जीती और भाजपा सात से घट कर छह हो गई, जबकि एक सीट कांग्रेस के हाथ में बरकरार है।

विधानसभा की बात करें तो उत्तर बंगाल में विधानसभा की कुल 54 सीटें हैं। वर्ष 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में 54 में से 30 सीटों पर भाजपा की जीत हुई थी। राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को 23 सीटें मिलीं जबकि एक सीट गोरख जनमुक्ति मोर्चा (बिनय तामांग गुट) के हाथ में गई। हालांकि, बाद में दल-बदल व उपचुनाव आदि के चलते इन आंकड़ों में बदलाव भी हो गया।

अलग राज्य का लॉलीपॉप दिखा कर भाजपा उत्तर बंगाल में मजबूत हो गई है और राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है। मगर, भाजपा के एक धड़े का कहना है कि भाजपा सांसद ने क्षेत्र के लिए कुछ खास नहीं किया गया।

भाजपा विधायक बी.पी. बजगाईं ने कहा था, “मुख्य वायदे – 11 जनजातियों को मान्यता और पहाड़, तराई व डुआर्स का स्थायी राजनीतिक समाधान नहीं करने तक माना जाएगा कि हम (भाजपा) झूठ की बुनियाद पर ही खड़े हैं।”

उत्तर बंगाल, अलग राज्य और अतीत

पश्चिम बंगाल राज्य के उत्तरी भाग को उत्तर बंगाल कहा जाता है। पश्चिम बंगाल राज्य के कुल 23 जिलों में से 8 जिले इसी क्षेत्र में आते हैं। उनमें दार्जिलिंग, कालिम्पोंग, जलपाईगुड़ी, अलीपुरद्वार, कूचबिहार, उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर व मालदा जिला शामिल हैं।

इन क्षेत्रों में कुल 54 विधानसभा और आठ लोकसभा सीटें हैं। इस एक उत्तर बंगाल क्षेत्र को लेकर कई अलग राज्यों की मांगें की जाती रही हैं। यहां के दार्जिलिंग जिले को केंद्रित कर अलग राज्य ‘गोरखालैंड’ की मांग 115 वर्षों से भी अधिक पुरानी है।

वहीं, राजवंशियों के कोच समुदाय के ग्रेटर कूचबिहार पीपुल्स पार्टी की ओर से कूचबिहार को केंद्रित कर अलग राज्य ‘ग्रेटर कोचबिहार’ की मांग भी दशकों से होती आ रही है।

ऐसे ही राजवंशियों के कामतापुरी समुदाय की ओर से भी लगभग-लगभग इसी समान क्षेत्र को लेकर अलग राज्य ‘कामतापुर’ का दावा भी दशकों पुराना है।

इधर, बीते दशक भर से अधिक समय से अलग राज्य उत्तर बंगाल का भी मुद्दा उठने लगा है। आज से लगभग डेढ़ दशक पहले जब भाजपा के तत्कालीन कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी उत्तर बंगाल आए थे तो उन्होंने गोरखालैंड आंदोलन करने वालों को सलाह दी थी, ‘अलग राज्य का नाम स्वदेशी तर्ज पर रखें। ‘गोरखालैंड’ न कर ‘गोरखा-आदिवासी प्रदेश’ नाम बेहतर होगा।’ उनका छोड़ा गया वह शिगूफा भी तब कुछ दिनों तक काफी गर्मी भरे रहा था। फिर, बात आई-गई हो गई।

वैसे छोटे राज्यों की हिमायती माने जाने वाली भाजपा को डेढ़ दशक पहले दार्जिलिंग और फिर धीरे-धीरे पूरे उत्तर बंगाल में इसीलिए समर्थन मिलने लगा कि वह विभिन्न गुटों के छोटे राज्यों के सपने पूरे कर देगी। हालांकि, वे सपने अभी तक सपने ही हैं।

‘यूनाइटेड फ्रंट फार सेपरेट स्टेट’ ने भी उठाया मुद्दा

पहले भाजपा के रहे फिर तृणमूल कांग्रेस के हो गए और फिर उससे भी अलग हुए गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) के संस्थापक अध्यक्ष बिमल गुरुंग ने बीते लोकसभा चुनाव 2024 से कुछ महीने पहले अपने संयोजन में ‘यूनाइटेड फ्रंट फार सेपरेट स्टेट’ गठित किया। उस समय उन्होंने अलग राज्य गोरखलैंड की जगह एक एकदम नया अलग राज्य ‘उत्तर बंगाल’ का बड़ा मुद्दा उछाल दिया। इसे हालांकि उनके लगभग समाप्त हो चुके अपने जनाधार को वापस बनाने के प्रयासों के रूप में ही ज्यादा देखा गया।

वैसे उनके संयोजन में गठित नए यूनाइटेड फ्रंट यानी संयुक्त मोर्चा में गोरखाओं के अलावा राजवंशी, कामतापुरी व आदिवासी समूहों के भी आ जाने को लेकर केंद्र व राज्य दोनों की सत्तारूढ़ पार्टियों यथा भाजपा व तृणमूल कांग्रेस के माथे पर खूब बल भी पड़ गए।

उस यूनाइटेड फ्रंट यानी संयुक्त मोर्चा में बिमल गुरुंग गुट का गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो), कामतापुर पीपुल्स पार्टी यूनाइटेड (केपीपी-यू), कामतापुर प्रोग्रेसिव पार्टी (केपीपी), प्रोग्रेसिव पीपुल्स पार्टी (पीपीपी), ग्रेटर कूचबिहार पीपुल्स एसोसिएशन (जीसीपीए) का एक गुट, वीर बिरसा मुंडा उलगुलान पार्टी, एससी-एसटी-ओबीसी मूवमेंट मंच और भूमिपुत्र मूवमेंट पार्टी समेत कुल नौ राजनीतिक संगठन शामिल रहे। इन दिनों वह फ्रंट एकदम ठंडा है।

वहीं, इसी वर्ष बीते लोकसभा चुनाव में बिमल गुरुंग फिर से भाजपा के हो गए लेकिन इन दिनों राजनीतिक तौर पर वह उतने सक्रिय नहीं हैं जैसा कि पहले हुआ करते थे।

इधर, पश्चिम बंगाल विधानसभा के बंगाल विभाजन विरोधी प्रस्ताव पर जहां कर्सियांग से भाजपा विधायक बी.पी. बजगाईं ने विरोध जताया है। वहीं, दार्जिलिंग से भाजपा विधायक, गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के नीरज जिम्बा ने भी अलग ही बात कही है। वह यह कि ‘पश्चिम बंगाल से दार्जिलिंग का विभाजन बिना किसी हिंसा के होगा, ठीक वैसे ही जैसे आंध्र प्रदेश से तेलंगाना का विभाजन हुआ। यहां ऐतिहासिक गलती बहुत लंबे समय से चली आ रही है और भारतीय गोरखाओं के लिए न्याय बहुत जरूरी है।’

दार्जिलिंग के सांसद ने क्या कहा

भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता और दार्जिलिंग से लगातार दूसरी बार, इस बार भी निर्वाचित सांसद राजू बिष्ट ने भी सुकांत मजूमदार की बातों का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि ‘नेता जब भी बोलता है जनता के मन की बात बोलता है। उनकी (सुकांत मजूमदार) बातों में कुछ भी गलत नहीं। उनकी बातों में दम है और लाॅजिक भी है। वह जनभावना की बात कर रहे। मैं उनकी बातों का समर्थन करता हूं।”

वह आगे कहते हैं, “मैं यह भी कहता हूं कि दार्जिलिंग पहाड़, तराई व डूआर्स के लोगों की उपेक्षा का स्थायी राजनीतिक समाधान बहुत जरूरी है। इसे लेकर गंभीरतापूर्वक चर्चा जारी है। देश के संविधान में हर समस्या का समाधान है। उसी के तहत हमें इस बाबत भी न्याय मिलेगा यह तय है।’

उन्होंने यह भी कहा कि, पूर्वोत्तर भारत की भांति उत्तर बंगाल क्षेत्र के विकास के लिए भी विशेष आर्थिक पैकेज मिलना चाहिए। क्योंकि, उत्तर बंगाल शुरू से अब तक उपेक्षित ही रहा है। पश्चिम बंगाल राज्य में चाहे कांग्रेस या वाममोर्चा की पूर्व सरकारें रही हों या फिर वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस की ही सरकार हो, सबने इस क्षेत्र को उपेक्षित ही रखा है।

उन्होंने आगे कहा कि वर्तमान में पश्चिम बंगाल राज्य का बजट 3.78 लाख करोड़ रुपये का होता है और उत्तर बंगाल विकास परिषद को मात्र 860 करोड़ रुपये ही आवंटित किए जाते हैं। उसमें भी मात्र 50 प्रतिशत राशि का ही उपयोग हो पाता है बाकी राशि वापस ही चली जाती है। जबकि, राज्य के राजस्व में उत्तर बंगाल के आठ जिलों से भागीदारी 25 प्रतिशत से ज्यादा ही है। मगर, अब ऐसा नहीं चलेगा। अब जनभावना के अनुरूप काम होगा। उसी अनुरूप समाधान होगा।

उल्लेखनीय है कि इधर बीते कई वर्षों से उत्तर बंगाल को लेकर ‘स्थायी राजनीतिक समाधान’ की बातें बहुत उठती आ रही हैं। विशेष कर भाजपा यह मुद्दा खूब उठा रही है। मगर कभी भी उसने यह स्पष्ट नहीं किया है कि वह ‘स्थायी राजनीतिक समाधान’ आखिर होगा क्या?

इसकी सबसे अहम वजह यह है कि बंगाल में ‘बंग-भंग’ यानी बंगाल विभाजन की बात करना आग से खेलने के बराबर है। यह आज ही नहीं बल्कि अंग्रेजों के जमाने से ही जगजाहिर है। इसीलिए यहां बंगाल विभाजन की बात करने को लेकर कोई भी राजनीतिक दल व नेता एक नहीं बल्कि सौ-सौ बार सोचता है। अब आगे क्या होगा? यह तो वक्त ही बताएगा।

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