राहेना खातून के पति को गुज़रे लगभग 9 साल हो चुके हैं। तब से वह दो बेटे और एक शादी लायक बेटी की बड़ी जिम्मेवारी अपने कंधों पर ढो रही हैं। कटिहार जिले के कदवा प्रखंड अंतर्गत अलण्डा खाड़ी गांव की रहने वाली राहेना खातून जीवन यापन के लिए पिछले चार साल से गांव के ही प्राथमिक विद्यालय मध्याह्न भोजन पकाती आ रही हैं। लेकिन, इसके एवज में बहुत कम पैसा उन्हें मिलता है।
वह कहती हैं, “हर महीने 1650 रुपए देने की बात हुई थी, लेकिन पिछले चार सालों में अब तक मुझे 8200 रुपए ही मिले हैं। इसके बाद कोई पैसा नहीं आया।”
हर महीने 1650 रुपए की मजदूरी सरकारी दर है। एक महीने में स्कूल 26 से 27 दिन चलते हैं यानी कि इतने ही दिन खाना पकाना पड़ता है। इस मजदूरी को अगर प्रति दिन के हिसाब से देखा जाए, तो उन्हें रोजाना 63 रुपये मिलते हैं, जो महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार एक्ट (मनरेगा) के मुकाबले लगभग चार गुना कम मजदूरी है।
राहेना खातून कहती हैं, “पूरे दिन स्कूल में बिताने के बाद सिर्फ 1650 रुपये महीने मिलते हैं, जो काफी कम हैं।” लेकिन, उनके पास और कोई जरिया भी नहीं है ऐसे में यह मामूली कमाई उनके अनिवार्य हो गई है। “पति की मृत्यु के बाद मजबूरन यह काम करना पड़ा था। इतने कम पैसों में घर चलाना बहुत मुश्किल है। साथ ही जवान बेटी की शादी की चिंता भी खाए जा रही है। स्कूल के शिक्षकों को भी कहा गया, लेकिन कुछ नहीं हुआ,” वह उदास होकर कहती हैं।
राहेना खातून की तरह हजारों महिलाएं मध्याह्न भोजन योजना के तहत स्कूलों में खाना पकाती हैं, लेकिन इसके बदले उन्हें मजदूरी बेहद कम मिलती है। चूंकि स्कूल में करीब-करीब दिनभर का काम होता है, तो वे कमाई बढ़ाने के लिए दूसरा काम भी नहीं कर पाती हैं, लेकिन चूंकि रसोइया के रूप में होने वाली कमाई जरूरी कामों में खर्च हो जाती है, तो उसे भी छोड़ नहीं पा रही हैं।
बिहार में 70 हजार स्कूलों में चल रही मिड डे मील स्कीम
मध्याह्न भोजन यानी मिड डे मील योजना, जिसे अब पीएम पोषण के नाम से जाना जाता है, भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहा दुनिया का सबसे बड़ा स्कूल फीडिंग कार्यक्रम है। मध्याह्न भोजन योजना को अब पीएम पोषण के नाम से जाना जाता है।
इसके तहत सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त प्राइमरी और अपर प्राइमरी स्कूलों, मदरसों व मकतबों में पढ़ रहे 6 से 14 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों को बेहतर पोषण मूल्यों के साथ पका हुआ भोजन प्रदान किया जाता है।
देश में मिड डे मील जैसी स्कीम सबसे पहले साल 1930 में पुडुचेरी में वहां के फ्रेंच प्रशासन ने शुरू की थी। वहीं, साल 1960 में तमिलनाडु में भी इसी तरह की स्कीम शुरू हुई थी। इसके बाद एक के बाद केरल, गुजरात और अन्य राज्यों में भी ऐसी ही स्कीम लागू की गई। साल 1995 में 15 अगस्त को केंद्र सरकार ने यह स्कीम पूरे भारत में लांच की।
शिक्षा मंत्रालय द्वारा निगरानी और कार्यान्वित इस योजना को लागू करने में जो राशि खर्च होती है, उसका 60% हिस्सा केंद्र सरकार और 40% राज्य सरकार वहन करती है।
इस योजना का उद्देश्य स्कूल जाने वाले बच्चों के पोषण स्तर में सुधार करना, शिक्षा और पोषण में लैंगिक अंतर को कम करना, प्राथमिक शिक्षा में बच्चों के नामांकन, प्रतिधारण और उपस्थिति में वृद्धि करना और बच्चों में समानता को बढ़ावा देना है। क्योंकि, आंकड़ों के मुताबिक, भारत में विश्व के लगभग 30% अल्प विकसित बच्चे और पाँच वर्ष से कम उम्र के लगभग 50% गंभीर रूप से कमज़ोर बच्चे हैं। वहीं, वैश्विक भुखमरी सूचकांक, 2020 में भारत 107 देशों में 94वें स्थान पर रहा है।
इस स्कीम के तहत प्राथमिक सरकारी स्कूलों में बच्चों को रोजाना दोपहर को पका हुआ भोजना दिया जाता है। किस दिन किस तरह का भोजन दिया जाएगा, इसके लिए सरकार ने मीनू भी तैयार कर रखा है।
पीएम पोषण वेबसाइट के मुताबिक, रोजाना 11.80 करोड़ बच्चे मिड डे मील खाते हैं। साल 2020-2021 में केंद्र सरकार ने इस स्कीम पर 24,400 करोड़ रुपये खर्च किए हैं।
मध्याह्न भोजन योजना को सफल बनाने के लिए स्कूलों में कूक (रसोइयों) की नियुक्ति की गई। सरकार ने इस नियुक्ति में विधवाओं और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली महिलाओं को प्राथमिकता देने का नियम बनाया। इसके पीछे वजह आर्थिक तौर पर पिछड़ी महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त भी करना था।
फिलहाल देश के 127 लाख सरकारी स्कूलों में यह स्कीम चल रही है, जिसका मतलब है कि इतनी ही महिलाएं पूरे देश में कूक के तौर पर काम कर रही हैं। बिहार में 70,332 स्कूलों में मिड डे मील स्कीम चल रही है। अगर यह मान लें कि हर स्कूल में एक रसोइया नियुक्त हैं, तो लगभग इतनी ही रसोइयां इस स्कीम को सफल बनाने में लगी हुई हैं।
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लेकिन, रसोइया का काम करने वाली महिलाओं का कहना है कि वे आर्थिक तौर पर सशक्त नहीं हो पा रही हैं क्योंकि काम का मेहनताना नितांत कम है।
रसोइयों को महीने में महज 1650 रुपये मानदेय
बताया जाता है कि बिहार में इस योजना के तहत काम पर रखे गए रसोइए-सह-सहायकों को साल में 10 महीने के लिए मात्र 1650 रुपये का मासिक “मानदेय” मिलता है।
बहुत सारे स्कूलों में पहले लकड़ी पर खाना बना करता था। चूल्हे के धुएं ने कई महिलाओं को बीमार भी बना दिया है।
आरेफा खातून अपने पति की मृत्यु के बाद पिछले 15 सालों से लगातार अलण्डा खाड़ी गांव के प्राथमिक विद्यालय में भोजन पकाती हैं। उनका कहना है कि इतने वर्षों तक स्कूल के चूल्हे में खाना पकाने के दौरान धुएं से उनकी आंखों में परेशानी हो रही है। “लेकिन, इलाज नहीं करवा पा रहे हैं, क्योंकि मध्याह्न भोजन पकाने के एवज में जो राशि प्रदान की जाती है, उससे परिवार का भरण पोषण नहीं हो पाता है, तो इलाज कहां से करें,” उन्होंने कहा।
कटिहार जिले के बलिया बेलौन थाना अंतर्गत उत्क्रमित मध्य विद्यालय बघवा के कैंपस में तीन स्कूल चलते हैं। इनमें से एक सिफ्टेड स्कूल है। बावर्ची खाने में रोज़ी खातून, मंगनी खातून, साहेना खातून और कई महिलाएं हैं, रसोइया का काम करती हैं। सभी महिलाएं गरीब व विधवा हैं।
साहेना खातून लगभग 13 वर्षों से स्कूल में खाना पकाती हैं। इसी पैसे से उनके चार बेटे और चार बेटियों का भरण पोषण होता है। उनके तीन बेटे शारीरिक तौर पर अक्षम हैं। साहेना कहती हैं, “इतने कम पैसों में घर चलाना मुश्किल हो जाता है। अपने इन विकलांग बच्चों को कैसे पालूं? चारों बेटियों की शादी करवानी है। बहुत मुश्किल में जी रहे हैं हम लोग।”
स्कूल में रसोइयों का काम सिर्फ खाना पकाने तक ही महदूद नहीं है। उन्हें स्कूलों की तरफ से दूसरे तरह के काम भी कराते जाते हैं जिनमें झाड़ू लगाना, पोंछा लगाना, बर्तन धोना आदि शामिल हैं।
रोज़ी खातून लगभग दस वर्षों से उसी स्कूल में खाना पकाती हैं। आठ साल पहले पति की मृत्यु हो जाने के बाद अब छह बच्चों को वही संभाल रही हैं। वह बताती हैं, “हमलोग स्कूल में खाना पकाने के अलावा बर्तन धोते हैं और स्कूल में झाड़ू भी लगाते हैं, जबकि झाड़ू लगाने के पैसे नहीं दिए जाते हैं। लेकिन, शिक्षकों के दबाव की वजह से ऐसा करना पड़ता है। पूरा दिन काम करने के बाद सिर्फ 1650 रुपये देना अन्याय है।”

मंगनी खातून कहती हैं कि वह बहुत कष्ट से जीवन गुजार रही हैं। “इतनी कम तनख्वाह में हम अपने बच्चों को बेहतर तरीके से पढ़ा नहीं सकते हैं। हम लोग जब स्कूल आते हैं, तो झाड़ू लगाते हैं। पोछा लगाते हैं। खाना बनाते हैं। बच्चों को खिलाते हैं। प्लेट धोते हैं। सारा काम करते हैं, इसलिए सरकार हम लोगों का मानदेय बढ़ाए, ताकि जीवन कुछ बेहतर हो सके। कोई खेत में भी मजदूरी करता है, तो उसे दो सौ रुपये रोज मिलता है,” उन्होंने कहा।
मिड डे मील बनाना छोड़ महिलाएं कर रहीं मजदूरी
ज्यादा काम और कम पैसे ने मध्याह्न भोजन के प्रति महिलाओं का मोहभंग कर दिया और नतीजतन महिलाएं मध्याह्न भोजन बनाने की जगह मजदूरी को तरजीह दे रही हैं। सीमांचल में कई महिलाओं ने मध्याह्न भोजन बनाना छोड़ दिया है।
बारसोई प्रखंड अंतर्गत मध्य विद्यालय खेमपुर में रीता देवी और एक अन्य महिला लगभग 12 वर्षों से मध्याह्न पका रही थीं। लेकिन, एक महिला ने खाना पकाना छोड़ दिया, क्योंकि वह बीमार हो गई थी और उनके पास इलाज के पैसे नहीं थे, तो मजबूर होकर उन्होंने मध्याह्न भोजन बनाना छोड़ा दिया और अब वह मजदूरी करती हैं।
वहीं, रीता देवी को स्कूल में खाना पकाने के अलावा छोटी मोटी मजदूरी भी करनी पड़ती है। उनकी मांग है कि कम से कम दस हजार हर महीने मानदेय दिया जाए।

सुकनी देवी कटिहार जिले के बलरामपुर विधानसभा क्षेत्र अंतर्गत प्राथमिक विद्यालय आलेपुर में लगभग 12 वर्षों से मध्याह्न भोजन पका रही हैं। वह भी मिड डे मील पकाना छोड़कर मजदूरी करने के बारे में सोच रही हैं। उनका कहना है कि स्कूल में खाना पकाने से पहले वह मजदूरी किया करती थी, जिसके एवज में वह लगभग ₹100 से ज्यादा हर दिन कमाई कर लेती थी। लेकिन, जब से उनकी बहाली स्कूल में हुई है, सिर्फ ₹50 दिन ही मजदूरी करने जा पाती हैं। उनसे कहा गया है कि अब वह काम नहीं छोड़ सकती, क्योंकि उनका नाम सरकारी रजिस्टर में लिखा गया है।
दुलारी देवी, गुल्ली देवी और बुधिया देवी कटिहार जिले के आजमनगर प्रखंड अंतर्गत उत्क्रमित मध्य विद्यालय पिंढाल में वर्षों से मध्यान भोजन पकाने का काम करती हैं। तीनों महिलाओं का कहना है, “हम लोग सुबह नौ बजे से दोपहर चार बजे तक स्कूल में रहते हैं और खाना पकाने के अलावा भी कई काम करते हैं। लेकिन, इतनी कम मजदूरी मिलती है कि जीवन यापन के लिए अलग से काम करना पड़ता है। सरकार को जल्द से जल्द हम लोगों का पैसा बढ़ाना चाहिए।”

मिड डे मील बनाने के प्रति महिलाओं की उदासीनता से इस स्कीम को लागू करने में कठिनाई होने की आशंका बढ़ गई है क्योंकि नई महिलाएं इस काम में दिलचस्पी नहीं ले रही हैं।
स्कूल के एक शिक्षक का कहना है कि कोई भी दूसरी महिला अब काम करना नहीं चाहती है, क्योंकि सरकार द्वारा मानदेय बहुत कम दिया जा रहा है। अगर ऐसा रहा तो स्कूल में मिडे डे मील स्कीम चलाना मुश्किल हो जाएगा।
दक्षिण के राज्यों के मुकाबले बिहार में कम मानदेय
शिक्षा मंत्रालय ने 2018 और 2020 में वेतन में 2,000 रुपये की बढ़ोतरी की वकालत की थी, लेकिन इस प्रस्ताव को वित्त मंत्रालय ने खारिज कर दिया था।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने मानदेय को संशोधित करने के लिए मार्च 2019 में कैबिनेट के समक्ष एक प्रस्ताव रखा था, लेकिन इस पर विचार नहीं किया गया। उसके बाद से अबतक यह ठंडे बस्ते में है।
‘द वायर’ की एक खबर के मुताबिक, दक्षिणी राज्य और केंद्रशासित प्रदेश पुडुचेरी, तमिलनाडु और केरल रसोइयों और सहायकों को सैलरी देने में काफी आगे हैं। इन राज्यों में प्रति महीने क्रमश: 21,000 रुपये, 12,000 रुपये और 9,000 रुपये का भुगतान किया जाता है, जो बिहार के मुकाबले कई गुना अधिक है।
मानदेय में इजाफे को लेकर रसोई का काम करने वाले महिलाएं अक्सर धरना प्रदर्शन करती रही हैं, लेकिन उनकी आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुईं। बिहार के कटिहार जिले में बीते 24 मार्च को बिहार राज्य विद्यालय रसोइया संघ के द्वारा जिला मुख्यालय पर एक दिवसीय धरना प्रदर्शन किया गया। वे अपनी मांगों को लेकर कुछ देर के लिए सड़क पर भी उतर आए।
इसकी सूचना पर वरीय अधिकारियों की टीम भी पहुंची, मगर प्रदर्शनकारी सुनने के लिए तैयार नहीं थे।
रसोइया संघ के उप महासचिव मो. मूसा ने बताया कि विद्यालयों में कार्यरत रसोइया महिला-पुरुष काफी गरीब तबके के हैं, जिन्हें मात्र 1650 रुपये पगार पर साधनविहीन स्थिति में काम करने को विवश होना पड़ता है। ये आठ घंटे कठोर परिश्रम कर स्कूली बच्चों के पोषण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, मगर जो मजदूरी मिलती है, वह उनकी मेहनत के साथ भद्दा मजाक है।
अररिया जिले में भी 28 मार्च को मिड डे मील वर्कर्स यूनियन से जुड़ी सैंकड़ों रसोइया ने अपनी मांगों और पहचान को लेकर समाहरणालय परिसर में नारेबाजी और प्रदर्शन किया था। उनकी मांग थी कि उन्हें भी चतुर्थवर्गीय कर्मचारी के अनुसार न्यूनतम मानदेय 18 हजार रुपये महीना दिया जाए व पहचान पत्र तथा नियुक्ति पत्र भी मिले।
मिड डे मील वर्कर्स यूनियन की अध्यक्ष कामायनी स्वामी ने कहा कि केंद्र सरकार रसोइयों से बेगारी करवा रही है। यह असंवेदनहीन सरकार है, जो केवल 1650 रुपये प्रति माह में गांवों की गरीब बेसहारा महिलाओं से काम ले रही है। वहीं, अररिया मिड डे मील वर्कर्स यूनियन के सचिव चंद्रिका सिंह चौहान ने कहा, “हमें पहचान पत्र और नियुक्ति पत्र दिया जाए। ऐसा करने में स्थानीय प्रशासन ही सक्षम है।”
जिला कार्यक्रम पदाधिकारी (एमडीएम) ने उनकी मांगों को संज्ञान में लेते हुए प्रदर्शन में शामिल रसोइयों को आश्वस्त किया कि 15 दिनों के अंदर उन्हें पहचान पत्र निर्गत किया जाएगा। सभा के अंत में एक प्रतिनिधिमंडल ने जिला पदाधिकारी से मिल कर मुख्यमंत्री के नाम का एक ज्ञापन सौंपा।
एमडीएम संघ से जुड़े एक पदाधिकारी ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के मुताबिक, जो न्यूनतम मजदूरी तय है, उस हिसाब से वेतन दिया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा न कर सरकार की तरफ से घोर अपराध किया जा रहा है। “रिटायरमेंट को लेकर यह तय किया गया है कि रसोईया को साठ वर्ष की उम्र में रिटायर कर देना है। लेकिन, रिटायरमेंट के बाद इनके लिए पीएफ और पेंशन जैसे लाभों की व्यवस्था नहीं है। गांव-समाज में जो सबसे गरीब तबका है, जो सबसे निचले पायदान पर हैं, वही लोग इसमें काम करते हैं,” उन्होंने कहा।
इस मामले को लेकर कटिहार जिले के डीपीओ रवींद्र प्रसाद ने मैं मीडिया को बताया कि मानदेय बढ़ाने का फैसला सरकार का होता है। “जब सरकार के द्वारा मानदेय बढ़ाने का आदेश आएगा तो विभाग उसका पालन करेगा,” उन्होंने कहा।
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