मुख्यमंत्री ममता बनर्जी 17 मई सोमवार को जहां एक ओर अपने मंत्रियों की गिरफ्तारी को लेकर सीबीआई दफ्तर में विरोध कर रही थी। तब इसी दौरान ममता ने एक वर्चुअल मीटिंग में बंगाल के लिए 1969 के बाद एक बार फिर से विधान परिषद बनाने को लेकर हामी भर दी है। विधान परिषद बनाने का वादा ममता ने सरकार बनने से पहले ही अपने घोषणापत्र में कर दिया था। इसलिए ममता के हामी भरने के बाद विधान परिषद बनाने की कार्रवाई शुरु कर दी जाएगी, लेकिन ये रास्ता बीजेपी के रहते इतना आसान नहीं होने वाला है।
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कैसे मिलेगा ममता को विधान परिषद का फायदा
बंगाल चुनाव के नतीजे के बाद ये साफ हो चुका था कि ममता नंदीग्राम से चुनाव हार चुकी है। लेकिन ममता ने 5 मई को तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो ऐसे में उनके पास छह महीनें है कि वो कहीं से चुनाव जीत के बंगाल विधान सभा का सदस्य बने। लेकिन अगर बंगाल में उससे पहले विधान परिषद का गठन हो जाता है तो उन्हें चुनाव लड़ने की जरूरत ही नहीं है। क्योंकि विधान सभा में ममता सरकार की बड़ी जीत के बाद विधान सभा सदस्य वोट के जरिए ममता को विधान परिषद का सदस्य आसानी से बना सकते हैं। बंगाल में विधान परिषद आ जाने से ममता को एक और फायदा मिलेगा क्योंकि जिन नेताओं को ममता ने टिकट नहीं दिया था और जो नाराज थे उन्हें भी विधान परिषद में लाकर सरकार का हिस्सा बना लिया जाएगा।
1969 में विधान परिषद थी तो उसका क्या हुआ
1952 में बंगाल में भी दो सदन वाली प्रणाली थी जिसके अंदर बंगाल में भी विधान परिषद काम कर रही थी। लेकिन उस समय की युनाइटेड फ्रंट की सरकार ने 1969 में संसद से कानून पास करके बंगाल में विधान परिषद को खत्म कर दिया था। अभी वर्तमान में भारत में छह राज्य है जहां विधान सभा और विधान परिषद दोनों है। इसमें आंध्र प्रदेश, तेलांगना, बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक शामिल है। जबकि पिछले कुछ समय में असम, राजस्थान और उड़ीसा संसद में प्रस्ताव के जरिए विधान परिषद बनाने की मांग कर चुके हैं।
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विधान परिषद बनाना जरूरी है क्या जनता के लिए?
भारत के संविधान में ये जरूरी नहीं है कि विधान परिषद किसी राज्य में बनाया जाए। जनता का काम तो विधान सभा चुनाव लड़ने वाले नेताओं को जीताने-हारने तक ही सीमित होता हैं तो जनता का इससे सीधा संबंध नहीं होता हैं। लेकिन विधना परिषद बनाने को लेकर कुछ विचार हमेशा से पक्ष में तो कुछ विपक्ष में रहे हैं।
पक्ष में: इसमें जो विचार आते है उसके अनुसार जनता के बीच में चुनाव लड़ने के लिए पार्टियां हर किसी को टिकट नहीं दे सकती है। लेकिन कुछ लोग जिनकों टिकट नहीं मिला सका और बाकी कलाकर, वैज्ञानिक, डॉक्टर जिनकों सलाह के लिए कोई सरकार अपने मंडल में जगह देना चाहती है तो वो विधान परिषद के जरिए उन्हें आसानी से शामिल कर सकती है। दूसरा कारण यह भी है कि जनता के लिए अगर कोई नियम विधानसभा से जल्दबाजी में पास कराया गया है तो विधान परिषद के होने से उस पर एक बार और विचार-विमर्श करा जा सकता है और नियम में सही बदलाव करके इसको भी बाद में परिषद से पास किया जा सकता है।
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विपक्ष में: इनमें जो विचार आते है उनका मानना है कि विधान परिषद गैर जरूरी है और न ऐसे लोगों को जनता चुनती है तो इनकों सरकार में शामिल करने से राज्य सरकार के बजट पर बोझ बढ़ेगा। और जनता का कीमती टैक्स विधान परिषद के सदस्यों को सैलरी और बाकी सुविधाएं देने में खर्च होगा।
ममता के लिए विधान परिषद का गठन नहीं होगा आसान
जैसा कि आप जानते होगे कि ममता बनर्जी ने भारी बहुमत से सरकार बनाई है तो बंगाल विधान सभा से विधान परिषद बनाने का प्रस्ताव पास करना बहुत आसान है। इसके बाद प्रस्ताव राज्य के गर्वनर पास जाता है और अगर यहां से मंजूरी मिलती है तो प्रस्ताव संसद पहुंचेगा। जहां से इसे लोकसभा और राज्यसभा में पास करवा के राष्ट्रपति कि मंजूरी भी चाहिए होती है।
केंद्र में तो बीजेपी की सरकार है और वो बहुमत में भी है तो ममता का यह प्रस्ताव इतनी आसानी से विधान परिषद बन नहीं पायेगा। क्योंकि बीजेपी इतनी बड़ी हार के बाद प्रस्ताव को आसानी से मजूरी दे दे तो ये चौकने वाली बात होगी। और अगर बीजेपी प्रस्ताव को मंजूरी नहीं देती है तो ममता बनर्जी भी राजनीति की मंझी हुई खिलड़ी है, वो बीजेपी पर हमला करने का एक भी मौका नहीं छोड़ेगी।
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