मखाना, जिसे गॉर्गन नट या फॉक्स नट के नाम से भी जाना जाता है, बिहार का एक अनूठा और महत्वपूर्ण जलीय फसल है। यह राज्य की एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पहचान है और 2020 में इसे भौगोलिक संकेत (GI) टैग भी मिला है। मखाना एक अत्यधिक पौष्टिक और आसानी से पचने वाला भोजन है, जिसे बिहार और भारत के अन्य हिस्सों में स्नैक्स, डेजर्ट, स्वास्थ्य पूरक और विभिन्न व्यंजनों में इस्तेमाल किया जाता है। इसके बढ़ते पोषण मूल्य और स्वास्थ्य लाभों के कारण इसकी मांग लगातार बढ़ रही है। हालांकि, इस महत्वपूर्ण फसल की खेती करने वाले लाखों संसाधन-विहीन किसानों और प्रसंस्करणकर्ताओं को कई अवसर और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
बीते वर्षों में जलवायु परिवर्तन ने न केवल इस खेती के स्वरूप को बदल दिया है, बल्कि इससे जुड़े लाखों किसानों के जीवन और भविष्य को भी गंभीर संकट में डाल दिया है।
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हाल ही में जारी ASAR और Regenerative Bihar की रिपोर्ट Climate Change and Makhana Farmers of Bihar से मखाना की खेती पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का पता चलता है। मंगलवार को पटना में बिहार के सहकारिता मंत्री प्रेम कुमार ने यह रिपोर्ट लांच की।
क्या कहते हैं किसान?
मधुबनी जिले के किसान रामवृक्ष सहनी बताते हैं, “पहले हम जानते थे कब बारिश आएगी, कब पानी भरेगा। अब या तो सूखा पड़ता है, या बाढ़ आ जाती है। लंबे समय तक पड़ने वाली गर्मी और असमान बारिश ने तालाबों के प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ दिया है, जिससे मखाना की उत्पादकता में भारी गिरावट आई है।”
रूपलाल सहनी इस बात पर ध्यान दिलाते हैं कि केवल मौसम ही नहीं, बल्कि इंसानी लापरवाही भी उतनी ही ज़िम्मेदार है। “तालाबों में अब सीवेज और नगरपालिका का कचरा डाला जाता है। जब हम पानी में जाते हैं तो कांच की बोतलें और जंग लगे डिब्बे मिलते हैं,” वे बताते हैं। इसके कारण जहां एक ओर कटाई का काम जोखिम भरा हो गया है, वहीं दूसरी ओर पानी की गुणवत्ता इतनी गिर चुकी है कि वह मखाना के लिए उपयुक्त नहीं रह गई।
सीताराम सहनी, जो वर्षों से पारंपरिक तौर-तरीकों से मखाना की खेती करते आए हैं, बताते हैं कि अब वे कटाई के मौसम में पानी में उतरने से डरते हैं। “कटे हुए शीशे, प्लास्टिक और गंदगी से पैर कट जाते हैं, और बीमारी का भी डर बना रहता है,” वे कहते हैं। यह स्थिति उस पारंपरिक ज्ञान और मेहनत पर सीधा प्रहार है जिसे सहनी समुदाय ने पीढ़ियों से संजो कर रखा था।
इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन ने नदियों की स्थिति को भी बदल दिया है। मखाना उत्पादक और मत्स्यपालक महादेव सहनी बताते हैं कि नदियों में गाद भर गई है, जिससे जलधारा अवरुद्ध होती जा रही है। “गंगा के तल में गाद जमा होने से नदियाँ उथली हो गई हैं और अचानक आई बाढ़ अब आम बात हो गई है,” वे कहते हैं। फरक्का बांध को वे ‘धीमा ज़हर’ बताते हैं, जिसने प्रवासी मछलियों की आवाजाही रोक दी है और पूरे जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित कर दिया है।
इस अस्थिरता के बीच, पारंपरिक खेती और आधुनिक खेती के बीच टकराव भी देखने को मिलता है। जहां परंपरागत किसान तालाबों में प्राकृतिक तरीके से मखाना उगाते हैं, वहीं नए किसान खेतों में सिंचाई और उर्वरकों की मदद से खेती को वाणिज्यिक स्तर पर ले गए हैं। हेमचंद्र ठाकुर जैसे किसान मानते हैं कि “आधुनिक खेती ज़रूर ज्यादा पैदावार देती है, लेकिन उसका खर्च भी कई गुना ज़्यादा है।” सिंथेटिक उर्वरक, बार-बार निराई, और पानी की मोटरें — ये सब छोटे किसानों के बस की बात नहीं।
मखाना की इस बदलती खेती में भूमिहीन समुदाय जैसे मल्लाह और सहनी सबसे अधिक संकट में हैं। वे जिन तालाबों में पीढ़ियों से मखाना उगाते आए थे, आज उन्हें प्रभावशाली लोग या ठेकेदार हथिया लेते हैं। पट्टे केवल पांच साल के लिए दिए जाते हैं और अच्छे उत्पादन के बाद इन्हें रिन्यू नहीं किया जाता। सरकारी योजनाएं — जैसे प्रति एकड़ अनुदान या बीमा — इन पारंपरिक किसानों तक शायद ही कभी पहुंचती हैं। इसका नतीजा यह है कि किसान साहूकारों से ऊंची ब्याज पर कर्ज लेकर खेती करते हैं और फिर औने-पौने दाम पर मखाना बेचने को मजबूर होते हैं।
भौगोलिक जड़ें
भारत में कुल मखाना उत्पादन का लगभग 85% बिहार में होता है। विशेष रूप से बिहार का मिथिला क्षेत्र मखाना उत्पादन के लिए पारंपरिक रूप से जाना जाता है, हालांकि पूर्णिया, कटिहार, अररिया और किशनगंज जैसे जिले भी अब मखाना की खेती के प्रमुख केंद्र बन रहे हैं। ये सभी क्षेत्र पानी से भरपूर हैं और सैकड़ों छोटी-बड़ी नदी धाराओं द्वारा सिंचित होते हैं। मखाना तालाबों, भूमि अवसादों, गोखुर झीलों, दलदल और खाइयों जैसे स्थिर बारहमासी जल निकायों में उगता है। इसके समुचित विकास के लिए 20-35°C की अनुकूल हवा का तापमान, 50-90% की सापेक्ष आर्द्रता और 100-250cm की वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है।
बिहार में मखाना उत्पादन की रीढ़ मुख्य रूप से मल्लाहों (या साहनी) के उप-जातियों जैसे कोल्स, चैन्स और वनपर्स जैसे समुदायों से आती है। इन समुदायों के पास विभिन्न प्रकार के सतही जल, जैसे नदियां, निचले इलाके, झीलें, तालाब और समुद्रों से संबंधित विशेष कौशल और ज्ञान है। उनका ज्ञान पीढ़ियों से मौखिक रूप से हस्तांतरित होता रहा है, और पानी हमेशा उनकी आय का स्रोत रहा है।
पारंपरिक रूप से मखाना की खेती तालाबों और झीलों में की जाती है। किसान नवंबर में बीज बोते हैं, और आवश्यकतानुसार मार्च-अप्रैल में पौधे लगाते हैं। मखाना के पौधे के सभी हिस्से कांटेदार होते हैं, जिससे काम जोखिम भरा होता है। जुलाई और अगस्त में भारी बारिश के साथ, पौधे गलने लगते हैं और बीज तालाब के तल में जमा हो जाते हैं।
पारंपरिक विधि में, बीजों की कटाई के लिए तालाब में गोता लगाना पड़ता है। एक एकड़ तालाब से बीज निकालने में 30 से 40 मानव-दिवस लगते हैं। कटाई अगस्त के अंत से अक्टूबर तक सबसे अच्छी होती है, हालांकि दिसंबर तक जारी रह सकती है, लेकिन अत्यधिक ठंड के कारण हाइपोथर्मिया का खतरा होता है।
प्रसंस्करण का कार्य चैन्स समुदाय द्वारा किया जाता है, जिसमें उच्च कौशल की आवश्यकता होती है। इसमें बीजों को पैरों से साफ करना, उन्हें धूप में सुखाना, सात अलग-अलग आकारों की चलनी से छांटना, और फिर उन्हें 250°C पर भूनना और गरम रहते हुए लकड़ी के हथौड़े से तोड़ना शामिल है ताकि वे ‘लावा’ (फुले हुए मखाना) बन सकें। इस प्रक्रिया में गर्मी का रखरखाव बहुत महत्वपूर्ण है।
शोध और भविष्य
इस बीच दरभंगा में स्थापित राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र (NRC-M) मखाना की वैज्ञानिक खेती पर कई वर्षों से काम कर रहा है। ICAR-RCER के अंतर्गत काम कर रहा यह संस्थान अब तक 112 प्रकार के मखाना जर्मप्लाज्म एकत्र कर चुका है और ‘स्वर्ण वैदेही’ जैसी अधिक उत्पादक किस्मों का विकास किया गया है। हालांकि, इन तकनीकों और शोध का लाभ ज़मीनी स्तर तक पहुंचाने में अभी कई बाधाएँ हैं। एक ओर पारंपरिक किसान नई तकनीकों से दूरी बनाए हुए हैं, तो दूसरी ओर मशीनों और वैज्ञानिक प्रक्रियाओं का व्यावहारिक परीक्षण सीमित स्तर पर ही हुआ है।
कृषि वैज्ञानिक डॉ. मंगलानंद झा मानते हैं कि पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक वैज्ञानिक सोच से जोड़े बिना इस संकट से बाहर निकलना मुश्किल है। “कीटनाशकों की जगह नीम का तेल, मिट्टी में जैविक पदार्थ, और जलस्तर बनाए रखने के लिए फलदार पेड़ों की बाड़बंदी — ये छोटे बदलाव बड़े असर डाल सकते हैं,” वे बताते हैं। वहीं ICAR-RCER के डॉ. अमिताभ डे मानते हैं कि यदि हम अब भी भूजल का अंधाधुंध दोहन बंद नहीं करेंगे, तो मखाना का भविष्य और भी अंधकारमय हो जाएगा।
विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकियों का अभिसरण (convergence) महत्वपूर्ण है।
रिपोर्ट के अनुसार मखाना खेती को किसानों के लिए अधिक लाभकारी, टिकाऊ और जलवायु-अनुकूल बनाने के लिए, विभिन्न हितधारकों की सिफारिशों को एकीकृत करना आवश्यक है। साथ ही साथ किसानों का आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण ज़रूरी है। सभी सरकारी योजनाओं और लाभों को मल्लाह समुदाय के पारंपरिक किसानों तक पहुँचाया जाना चाहिए, भले ही वे भूमिहीन हों।
मखाना किसानों, खेत मजदूरों, प्रसंस्करणकर्ताओं और स्थानीय व्यापारियों के लिए स्वयं सहायता समूह (SHGs) या किसान उत्पादक संगठन (FPOs) बनाए जाने चाहिए और उन्हें संस्थागत ऋण और वित्तपोषण प्रदान किया जाना चाहिए।
इन संगठनों का राज्य स्तर पर एक संघ बनना चाहिए जो नीति निर्माण और कार्यक्रमों की निगरानी में सलाहकार के रूप में कार्य करे। मखाना के लिए एक न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की घोषणा की जानी चाहिए ताकि दरों को मानकीकृत किया जा सके। फसल बीमा और फसल हानि मुआवजे की योजनाएं मखाना उत्पादकों तक पहुंचाई जानी चाहिए।
किसानों के लिए स्वास्थ्य बीमा सुनिश्चित किया जाना चाहिए, क्योंकि यह काम स्वास्थ्य जोखिमों से भरा है। युवाओं को विपणन, ब्रांडिंग और पैकेजिंग में कौशल निर्माण का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
साथ ही साथ स्थायी जल प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण भी ज़रूरी है। झीलों और तालाबों के पट्टे की अवधि लंबी होनी चाहिए ताकि किसानों की आजीविका सुरक्षित हो सके। तालाबों की नियमित गाद निकालने और सफाई के लिए सरकारी सहायता मिलनी चाहिए। झीलों, तालाबों और चौर (निचले और जलजमाव वाले खेत) को ताजे पानी से नियमित रूप से रिचार्ज करने के लिए जोड़ा जाना चाहिए।
नये तटबंधों का निर्माण या विस्तार नहीं किया जाना चाहिए, और नदियों को स्वतंत्र रूप से बहने दिया जाना चाहिए; पुराने तटबंधों को धीरे-धीरे हटाया जाना चाहिए। अधिक उपज प्राप्त करने के लिए जैव विविधता से समझौता किए बिना, कीट प्रबंधन के वैकल्पिक तरीकों पर अधिक शोध किया जाना चाहिए, जो कीटनाशकों का उपयोग न करें।
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