टुन्नी कुमारी कक्षा चार की छात्रा है। वह हर दिन अकेली अपने घर से लगभग 4 किलोमीटर पैदल चलकर पढ़ने के लिए स्कूल जाती है। स्कूल जाने के लिए वह कच्ची सड़क का इस्तेमाल करती है, जो पूरी तरह धूल और जंगलों से भरी होती है। सुबह के 11 बज चुके हैं और स्कूल में छुट्टी हो चुकी है। आज का दिन गर्म है और धूप तेज होने के कारण वह खेतों से होकर जा रही है, ताकि जल्दी से घर पहुंच जाए।
कटिहार जिले के कदवा प्रखंड अंतर्गत मंझोक गांव की जिंदगी बाकी जगहों की जिंदगी से थोड़ी अलग है।
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महानंदा नदी ने यहां कदर कहर ढाया कि पूरा का पूरा गांव नदी में समा गया। यह गांव दो पंचायतों में बंटा था और सिर्फ भौनगर पंचायत के वार्ड नंबर 1 में लगभग 365 परिवार रहा करते थे। लेकिन, आज वहां महानंदा नदी बहती है। ज्यादातर लोग गांव छोड़कर जा चुके हैं।
लेकिन, अभी भी उस गांव में कुछ भूमिहीन परिवार ऐसे हैं, जो दूसरी जगह जाने में असमर्थ हैं। उन परिवारों की आर्थिक स्थिति काफी खराब है।
5000 रुपये वार्षिक किराया देकर रहते हैं भूमिहीन विस्थापित परिवार
टुन्नी कुमारी के पिता दिलीप शर्मा मजदूरी करते हैं। लगभग सात साल पहले वह खुद की जमीन पर घर बनाकर रहते थे, लेकिन महानंदा नदी ने अपना रुख मोड़ा और उनका गांव तबाह कर दिया, जिसके बाद उन्होंने दूसरी जगह घर बनाया। 2 साल बाद फिर से नदी ने अपना मुख मोड़ा और वह घर भी निकल गया।
अब दिलीप शर्मा पूरी तरह से भूमिहीन हो चुके हैं और दूसरे की जमीन पर 5000 रुपये वार्षिक किराया देकर रह रहे हैं। दिलीप शर्मा को डर है कि फिर से नदी उनका यह घर भी खत्म ना कर दे।
दिलीप शर्मा बताते हैं कि उनका घर प्राथमिक विद्यालय मंझोक के पास हुआ करता था, जो एक दो मंजिला भवन था। लेकिन अब यहां कोई विद्यालय नहीं बचा, इसीलिए उनकी बेटी इन बालू भरे रास्ते से होकर हर दिन पैदल 4 किलोमीटर दूर अकेले स्कूल जाती है।
दिलीप एक कच्चे फूस के मकान में रहते हैं, जो जर्जर स्थिति में है। बीती रात तेज़ आंधी की वजह से घर का छप्पर टूट चुका है जिसकी मरम्मत कर रहे हैं। आंगन में एक साइकिल रखी है जिससे वह सामान लाने के लिए कई किलोमीटर दूर चौक जाते हैं। गांव में बिजली नहीं है, इसीलिए मोटरसाइकिल की दो छोटी बैटरी को सोलर प्लेट से जोड़ दिया गया है ताकि मोबाइल चार्ज किया जा सके।
मुफ्त शिक्षा के लिए दूसरे जिलों में जाना मजबूरी
उनके बगल में मिनहाज आलम का घर है। वह एक मजदूर हैं और महानंदा नदी में उनका गांव समा जाने के कारण भूमिहीन हो चुके हैं। उन्होंने 6 साल से 5000 रुपये बीघा किराए पर जमीन लेकर फूस का घर बनाया है।
मिनहाज आलम के दो बेटे हैं। बड़ा बेटा सिवान जिले में स्थित एक मदरसे में रहकर पढ़ाई कर रहा है। दूसरा बेटा जाकिर आलम 8 साल का हो गया है और अब वह भी सिवान जाने के लिए उत्सुक है।
मिनहाज आलम कहते हैं, मजदूरी कर अपना घर चलाते हैं और जमीन का किराया देते हैं इसलिए बच्चों को पढ़ाने के लिए मेरे पास पैसा नहीं है। गांव में स्कूल भी नहीं है कि बच्चे पढ़ सकें।”
“इसीलिए मजबूरन बच्चों को बाहर मदरसे में भेजना पड़ा क्योंकि वहां खाने रहने और पढ़ने के लिए कोई पैसा नहीं लगता है। छोटा बेटा भी बड़ा हो गया है। अब उसे भी वहां भेज देंगे ताकि कम से कम ठीक-ठाक खाना और कुछ पढ़ाई कर लेगा,” उन्होंने कहा।
इस संबंध में कदवा के प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी ने बताया कि गांव पूरी तरह से महानंदा की चपेट में आ गया है। मंझोक गांव का प्राथमिक विद्यालय भवन नदी में गिर जाने के बाद उसे रोशनगंज स्थित एक विद्यालय में शिफ्ट कर दिया गया है। सब बच्चे वहां पढ़ने आते हैं। स्कूल की पुरानी जगह पर अब नदी बहती है।
बाढ़ के दिनों में पढ़ने नहीं जाते बच्चे
मिनहाज आलम की पत्नी कहती हैं कि पूरे गांव में एकमात्र छोटा सा आंगनबाड़ी केंद्र बचा है, जहां छोटे बच्चे पढ़ने के लिए जाते हैं। जो बच्चे बड़े हो जाते हैं वे पढ़ने के लिए 4 किलोमीटर से ज्यादा दूर दूसरे गांव के स्कूल जाते हैं। वहां भी बाढ़ के दिनों में नहीं जा पाते।
“चुनाव के समय वोट मांगने बहुत नेता आए थे और वादा कर गए थे कि तुम लोगों को जमीन दिलाएंगे, लेकिन कुछ नहीं हुआ। वोट खत्म होने के बाद कोई देखने भी नहीं आया,” उन्होंने कहा।
गांव की पगडंडियों पर दौड़ते हुए 3 बच्चियां खेत की तरफ जा रही थीं, जिनमें 8 वर्षीय टिपली कुमारी, 6 वर्षीय बिजली कुमारी और क्रांति कुमारी अपने पिता की मदद करने के लिए खेत जा रही हैं। तीनों में से कोई भी स्कूल नहीं जाती है, क्योंकि स्कूल बहुत दूर है और जाने के लिए कोई रास्ता भी नहीं है। इसलिए वह पिता के साथ मक्का सुखाने का काम करती है।
उसी गांव के 65 वर्षीय गुलाम हैदर 2017 की प्रलयकारी बाढ़ में बह गए थे। 3 दिन और तीन रात तक भूखे प्यासे एक पेड़ में चढ़कर अपनी जान बचाई थी। महानंदा नदी की वजह से तीन बार उनका घर बह जाने के कारण वह अब भूमिहीन हो गए और वर्तमान में 8000 रुपये वार्षिक किराया देकर घर बनाकर रह रहे हैं।
गुलाम हैदर और उनकी पत्नी रहमती बेगम प्रलयकारी बाढ़ के मंजर को याद कर सिहर उठते हैं कि किस तरह उनका घर बह गया था। इसके साथ ही पानी की तेज धारा में अनाज और कपड़ों के अलावा एक गर्भवती गाय, दो बड़े बछड़े और एक बकरा उनकी आंखों के सामने बह गया था।
उनका कहना है कि अगर समय रहते सरकार और बांध विभाग जरूरी कदम उठाते, तो आज उन्हें यह दिन नहीं देखना पड़ता और पूरा का पूरा गांव सलामत रहता।
चिकित्सा के लिए कोई सुविधा नहीं
आज गांव में कोई भी बीमार होने पर उसे 10 किलोमीटर दूर बलिया बेलौन या उसे ज्यादा दूर सालमारी जाना पड़ता है। गर्भवती महिलाओं के लिए सबसे कठिन और चुनौती भरा होता है। कोई रास्ता ना होने के कारण पैदल, बैलगाड़ी या ट्रैक्टर से जाना होता है।
कुछ ही दूरी पर सलावत हुसैन अपना पक्का मकान तोड़ रहे थे। उनसे पूछने पर बताया कि यहां पर उनका पूरा परिवार रहा करता था उनके पास काफी जमीन भी थी, लेकिन आज वह इस जगह को छोड़कर जाने के लिए मजबूर हैं। ज्यादातर जमीन नदी में समा चुकी है, इसलिए आज उनके नाम पर जमीन रहने के बावजूद भूमिहीन होते जा रहे हैं।
उन्होंने 10 किलोमीटर दूर दूसरे गांव में 10 डिसमिल जमीन खरीदी है और रहने लायक कच्चा मकान बनाया है। अब यहां से सब कुछ तोड़ कर वहां ले जा रहे हैं। पूरा गांव खत्म हो गया।
“यहां सिर्फ मेरे वार्ड में 300 से ज्यादा घर हुआ करता था, लेकिन आज वीरान हो गया है जो सक्षम लोग हैं, वे दूसरी जगह अपना घर बसा रहे हैं और जो भूमिहीन हैं वे आज भी यही रह कर जीने को विवश हैं,” उन्होंने कहा।
“हमने यहां पर बगीचा लगाया था, लेकिन आज सब खत्म हो गया। गांव को बचाने के लिए सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं की गई।”
“गांव में एक भी किराना दुकान नहीं है। जरूरी सामान लाने के लिए लोग बालू भरे रास्ते से होकर 5 किलोमीटर दूर दूसरे गांव जाते हैं। बाढ़ के समय नाव से सब्जियां लाने जाते हैं और उस समय बच्चे पढ़ने के लिए स्कूल नहीं जाते हैं। इसलिए अब इस गांव में जीवन बिताना काफी मुश्किल हो गया है इसलिए हम लोग यहां से छोड़कर जा रहे हैं,” उन्होंने आगे कहा।
स्थानीय समाजसेवी और कदवा विधायक प्रतिनिधि सनोवर आलम कहते हैं, “उस गांव में मेरा भी घर हुआ करता था लेकिन महानंदा नदी के कटाव की वजह से गांव छोड़ना पड़ा। अब उस गांव में कोई नहीं रहता सिर्फ कुछ ही घर बचे हैं। स्कूल को रोशनगंज में शिफ्ट कर दिया गया है। गांव के ज्यादातर लोग बांध की दूसरे तरफ बस गए हैं।”
वहीं, शेखपुरा पंचायत के मुखिया पति मोहम्मद अरब ने बताया कि उनकी पंचायत का कुछ हिस्सा उस गांव में पड़ता था, लेकिन अब सभी लोग बांध की दूसरी तरफ बस चुके हैं। उन लोगों पर पंचायत की तरफ से विशेष ध्यान रखा जाता है।
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