सावन का महीना आते ही मिथिलांचल के लोकप्रिय पर्व मधुश्रावणी के गीत गूंजने लगे हैं। पर्व की तैयारियों में नवविवाहिताएं जुट गई हैं। पति की लंबी आयु की कामना के लिए चौदह दिवसीय यह पूजा सिर्फ मिथिलावासियों के बीच ही होती है। यह पर्व मिथिला की नवविवाहिता बहुत ही धूमधाम के साथ दुल्हन के रूप में सज धज कर मनाती हैं।
बताया जाता है कि शादी के पहले साल के सावन माह में नवविवाहिताएं मधुश्रावणी का व्रत करती हैं। सावन के कृष्ण पक्ष के पंचमी के दिन से मधुश्रावणी व्रत की शुरुआत हुई है और यह पर्व 14 दिनों का होगा।
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इस पर्व में मिट्टी की मूर्तियां, विषहरा, शिव-पार्वती बनायी जाती हैं।
जीवन में एक बार किया जाता है मधुश्रावणी पर्व
मधुश्रावणी जीवन में सिर्फ एक बार शादी के पहले सावन को किया जाता है। इस पर्व में नवविवाहिताएं 14 दिनों तक बिना नमक वाला भोजन ग्रहण करेंगी। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को विशेष पूजा-अर्चना के साथ व्रत की समाप्ति होती है।
इन दिनों नवविवाहिता व्रत रखकर गणेश, चनाई, मिट्टी एवं गोबर से बने विषहरा व गौरी-शंकर की विशेष पूजा करती हैं और महिला कथावाचक से कथा सुनती हैं। कथा का प्रारम्भ विषहरा के जन्म और राजा श्रीकर से होता है।
इस व्रत के द्वारा स्त्रियां अखंड सौभाग्यवती के साथ पति की दीर्घायु होने की कामना करती हैं। शुरू व अन्तिम दिनों में व्रतियों द्वारा समाज व परिवार के लोगों में अंकुरी बांटने की भी प्रथा देखने को मिलती है।
नवविवाहिता की ससुराल से आती है सारी सामग्री
शाम के समय नवविवाहिता अपनी सहेलियों के साथ एक समूह बनाकर पूजा के लिये बांस के डालिया में फूल तोड़ती हैं। साथ में महिलाएं गीत गाती हैं। लगातार तेरह दिनों तक नवविवाहिता अपनी ससुराल से अरवा भोजन प्राप्त करती हैं।
पूजा के अंतिम दिन नवविवाहिता की ससुराल से काफी मात्रा में पूजन की सामग्री, कई प्रकार के मिष्ठान, नए वस्त्र के साथ पांच बुजुर्ग लोग आशीर्वाद देने के लिए पहुंचते हैं। नवविवाहिता ससुराल पक्ष के बुजुर्गों से आशीर्वाद लेकर ही पूजा समाप्त करती हैं।

मधुश्रावणी पूजा के अंतिम दिन कई प्रकार से पूजन का कार्य किया जाता हैं। सुबह शाम महिलाएं समूह बनाकर घंटों गीत गाती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लगातार तेरह दिनों तक पूजा स्थल पर नवविवाहिता की देखरेख में अखंड दीप जलता रहता है। पंडितों का कहना है कि मधुश्रावणी पर्व कठिन तपस्या से कम नहीं है।
रोज सुनाई जाती हैं अलग-अलग कथाएं
मिथिला के पारम्परिक रीति-रिवाज के अनुसार चलने वाले लोग देश-विदेश में इस व्रत को करते हैं। नेपाल में इस पर्व को बड़े ही पावन तरीके से मनाया जाता है। पूजा स्थल पर मैनी के पत्ते पर विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनाई जाती हैं।
महादेव, गौरी, नाग-नागिन की प्रतिमा स्थापित कर व विभिन्न प्रकार के नैवेद्य चढ़ाकर पूजा शुरू होती है। इस व्रत में विशेष रूप से महादेव, गौरी, विषहरी व नाग देवता की पूजा की जाती है। रोज अलग-अलग कथाओं में मैना पंचमी, विषहरी, बिहुला, मनसा, मंगला गौरी, पृथ्वी जन्म, समुद्र मंथन, सती की कथाएं व्रती को सुनाई जाती हैं।
प्रात:काल की पूजा में गोसाई गीत व पावनी गीत गाए जाते हैं तथा शाम की पूजा में कोहबर तथा संझौती गीत गाए जाते हैं। व्रत के अंतिम दिन टेमी दागने की भी परंपरा है। इसमें जलते दीप की बाती से घुटने और पैर के पंजे दागे जाते हैं।
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