‘मगध के गांधी’ कहलाने वाले सैयद फ़िदा हुसैन भारत की जंग ए आज़ादी के अज़ीम रहनुमा थे। साल 1904 में बिहार के जहानाबाद ज़िले के पिंजौरा गांव में पैदा हुए सैयद फ़िदा हुसैन के वालिद का नाम सैयद अहमद अब्दुल अज़ीज़ था।
शुरुआती तालीम घर पर हासिल करने के बाद फ़िदा हुसैन आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता गए; जहां से उन्होंने मैट्रिक और इंटरमीडिएट का एग्ज़ाम पास किया। ये वो दौर था जब कलकत्ता क्रांतिकारी गतिविधियों का एक बड़ा केंद्र था और इसका असर फ़िदा हुसैन पर भी पड़ा व छात्र जीवन से ही वो तहरीक ए आज़ादी में हिस्सा लेने लगे।
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बतौर स्वतंत्रता सेनानी
1917 में हुए कामयाब चम्पारण सत्याग्रह के बाद असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलन ने पूरे देश को एक नई ऊर्जा दी। महात्मा गांधी, स्वतंत्रता सेनानी बी अम्मा (आबादी बानो बेगम) के साथ पूरे भारत का दौरा कर रहे थे। इन लोगों का बिहार में आना हुआ। उस समय नौजवान फ़िदा हुसैन ने उनको भरपूर सहयोग दिया। 1920 में गया शहर में आयोजित हुए विभिन्न जलसों में हिस्सा लिया। उसी साल दिसम्बर में असहयोग तहरीक को कामयाब बनाने के लिए मौलाना शौकत अली, महात्मा गांधी, मौलाना आज़ाद, स्वामी सत्यदेव वग़ैरह के साथ गया और आसपास के इलाक़ों का दौरा किया।
1922 में देशबंधु चितरंजन दास की अध्यक्षता में गया में हुए कांग्रेस के 37वें अधिवेशन को कामयाब बनाने के लिए उन्होंने जी-जान लगा दिया। उनकी दिन रात की मेहनत की ख़ूब तारीफ़ भी हुई और मगध इलाक़े मे एक स्थापित कांग्रेसी युवा नेता के रूप में उन्हे जनमानस में ख्याति मिली। उन्होंने महात्मा गांधी के सामने ही खादी वस्त्र धारण किया और उसका आजीवन पालन भी किया।
1928 में फ़िदा हुसैन ने साइमन कमीशन का विरोध करते हुए अपने साथियों के साथ एक विशाल जुलूस निकाला। फिर उन्हीं के साथ बिहार की राजधानी पटना में सैयद हसन ईमाम की सदारत में हो रहे साइमन कमीशन विरोधी आयोजन में खुलकर हिस्सा लिया और अपनी मज़बूत उपस्तिथि दर्ज करवाई।
19 दिसम्बर 1929 को जवाहर लाल नेहरू की सदारत में हुए लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज की मांग करते हुए 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस मनाने का फ़ैसला किया गया। तब भला फ़िदा हुसैन कैसे ख़ामोश बैठने वाले थे! 26 जनवरी 1930 को उन्होंने बड़े ही धूमधाम से स्वतंत्रता दिवस का आयोजन किया।
इसी साल 1930 में गांधी की क़यादत में नमक सत्याग्रह छिड़ा और दांडी मार्च हुआ। फ़िदा हुसैन ने भी इसमें अपने तरीक़े से हिस्सा लिया और विदेशी सामान की होली जलाई; साथ ही भांग, गांजा, ताड़ी और शराब की दुकानों को शांतिपूर्ण ढंग से बंद करवा दिया। इसके नतीजे में फ़िदा हुसैन अपने साथियों सहित गिरफ़्तार कर लिए गए और छह माह जेल की चक्की पीसने के बाद आज़ाद हुए।
23 मार्च 1931 को लाहौर सेन्ट्रल जेल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को दी गई फांसी की गर्माहट बिहार सहित पूरे देश ने महसूस की और इसका असर फ़िदा हुसैन पर भी पड़ा, नतीजतन वो उग्र राष्ट्रीयता की ओर अग्रसर हुए। फांसी के विरोध में फ़िदा हुसैन की क़यादत में पूरे मगध मे विरोध सभाओं का आयोजन हुआ। इसी क्रम में 30 और 31 मई 1931 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद की सदारत में जहानाबाद अनुमंडल (अब ज़िला) में राजनीतिक सम्मेलन हुआ। इसमें फ़िदा हुसैन ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और उनकी सेवा भावना ने सभी का दिल जीत लिया। स्वंय डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उनकी तारीफ़ की।
क्रांतिकारी पत्रकारिता
1934 में आए भूकंप ने पूरे बिहार में तबाही मचा दी; तब फ़िदा हुसैन भूकंप पीड़ित लोगों की सेवा में दिन रात जुटे रहे और उनकी मदद के लिए चंदा भी इकट्ठा किया।
अंग्रेज़ों के ज़ुल्म से भारत को आज़ाद कराने के लिए फ़िदा हुसैन ने ना सिर्फ़ आंदोलन किया बल्कि क्रांतिकारी पत्रकारिता कर लोगों को जागरूक भी किया। आप क्रान्तिकारी पत्रिका लिखते थे जिसका नाम आपने “चिंगारी” रखा, जिसमें आप अंग्रेजों के ज़ुल्म की दास्तान लिखने के बाद आवाम से अंग्रेज़ों की मुख़ालफ़त करने की अपील करते थे। जहानाबाद से निकलने वाली इस पत्रिका के प्रकाशन और वितरण की ज़िम्मेदारी फ़िदा हुसैन ने अपने हाथ में ले रखी थी।
फ़िदा हुसैन, किसान आंदोलनों में भी आगे आगे रहे। सबसे पहले उन्होंने शाह मुहम्मद ज़ुबैर (कटिहार सांसद तारिक़ अनवर के दादा) की अध्यक्षता में किसान आंदोलन में हिस्सा लिया, फिर उनके भाई शाह मुहम्मद उमैर के साथ मिलकर भी काम किया। यदुनन्दन शर्मा, रामानन्द मिश्र, मोहनलाल गौतम जैसे किसान नेताओं के साथ मिलकर किसान हित में बहुत से काम अंजाम दिए।
इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना के स्वर्ण जयंती समारोह में डॉ राजेंद्र प्रसाद की सरपरस्ती में 28-30 दिसम्बर 1935 को जहानाबाद में प्रभातफेरी, खादी प्रर्दशनी, कांग्रेस की उपलब्धियों पर व्याख्यान, शहीदों की क़ुर्बानियां जैसे कई मुद्दों पर अनेक कार्यक्रमों के आयोजन में अहम भूमिका निभाई।
1938 में कांग्रेस के सदर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मगध दौरे को कामयाब बनाने में फ़िदा हुसैन आगे आगे रहे।
1940 में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस के 53वें अधिवेशन में फ़िदा हुसैन ने ना सिर्फ़ हिस्सा लिया बल्कि कई महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए।
अगस्त क्रांति को कामयाब बनाने में भी उन्होंने कोई क़सर नहीं छोड़ी। 8 अगस्त 1942 को गांधी जी की क़यादत में जैसे ही युसुफ़ जाफ़र मेहर अली ने ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो’ का नारा दिया पूरे भारत मे इंक़लाबी लहर दौड़ पड़ी; फ़िदा हुसैन ने भी अपने साथियों के साथ मिलकर पूरे मगध इलाक़े में इस आंदोलन में जान डाल दी। सरकारी दफ़्तर पर क़ब्ज़ा कर लिया; हथियार लूट कर पुलिस स्टेशन को आग के हवाले कर दिया। अरवल, कुर्था आदि जगहों पर आंदोलन काफ़ी हिंसक रहा। इस दौरान फ़िदा हुसैन के कई क्रांतिकारी साथी पुलिस की गोली का शिकार भी हुए। फ़िदा हुसैन को गिरफ़्तार कर भागलपुर सेंट्रल जेल भेज दिया गया।
अक्टूबर 1946 में कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा द्वारा बिहार में दंगा भड़काया गया, तो फ़िदा हुसैन ने इसे रोकने की बहुत कोशिश की, पर नाकामयाब हुए।। 1947 में दंगा पीड़ितों का हालचाल लेने गांधी फिर मगध इलाक़े में आए तब फ़िदा हुसैन ने उनके साथ पूरे इलाक़े का दौरा किया। स्थानीय नेता की हैसियत से जो भी हो सकता था फ़िदा हुसैन ने लोगों की मदद की; साथ ही बाहर से आए तमाम नेताओं को हालात से रूबरू करवाया। उस समय मगध पर पूरे भारत की नज़र थी और पूरे भारत से लोग यहां राहत कार्य के लिए आए थे। जवाहर लाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, सैफ़ुद्दीन किचलु, सरदार पटेल, ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान, जनरल शाहनवाज़ सहित सैंकड़ों चोटी के नेताओं ने इस इलाक़े में अपना डेरा डाल रखा था। आचार्य कृपलानी की अध्यक्षता में 1946 में हुए कांग्रेस के मेरठ अधिवेशन में फ़िदा हुसैन हिस्सा लेने वाले उन राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं में से थे जिन्होंने मुस्लिम लीग की टू नेशन थ्योरी का भरपूर विरोध किया था।
जहानाबाद के विधायक
आज़ादी के बाद फ़िदा हुसैन लगातार अपने इलाक़े में सक्रिय रहे। दो बार जहानाबाद के विधायक भी बने। 1952 के चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। लेकिन, 1957 में कांग्रेस के टिकट से उन्होंने चुनाव लड़ा और जहानाबाद सीट से विधायक बने। 1962 में जहानाबाद सीट आरक्षित हो गयी, तो वो कुर्था से चुनाव लड़े, लेकिन हार गए। 1967 में फिर जहानाबाद वापस लौटे और कांग्रेस के टिकट पर दूसरी बार विधायक चुने गए। उसके बाद 1969, 1972 और 1980 में तीन चुनाव जहानाबाद से ही लड़े, लेकिन जीत हासिल नहीं हुई। उनके देहांत के बाद सैयद असग़र हुसैन (फ़िदा हुसैन के परिवार से नहीं) 1985 में कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने। लेकिन 1985 के बाद जहानाबाद सीट से कोई मुस्लिम उम्मीदवार नहीं जीत पाया।
वर्ष | विधानसभा | पार्टी | वोट | परिणाम |
1951 | जहानाबाद | कांग्रेस | 7,256 | दूसरा स्थान |
1957 | जहानाबाद | कांग्रेस | 13,772 | जीते |
1962 | कुर्था | कांग्रेस | 10,953 | दूसरा स्थान |
1967 | जहानाबाद | कांग्रेस | 15,313 | जीते |
1969 | जहानाबाद | कांग्रेस | 12,560 | दूसरा स्थान |
1972 | जहानाबाद | कांग्रेस | 21,537 | दूसरा स्थान |
1980 | जहानाबाद | कांग्रेस (I) | 35,239 | दूसरा स्थान |
31 दिसम्बर 1980 को सैयद फ़िदा हुसैन का इंतक़ाल जहानाबाद में हुआ और इसके साथ ही मगध में गांधी युग के मज़बूत स्तंभ का अंत हो गया।
‘मगध के गांधी’ के नाम से मशहूर सैयद फ़िदा हुसैन हमेशा अवसरवाद, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता और पूंजीवाद से लड़ते रहे। अपनी ईमानदारी, सरलता आदर्शवादिता जैसे मानवीय गुणों की वजह से सैयद फ़िदा हुसैन हमेशा याद किए जाएंगे।
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