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मुहर्रम में अक़ीदतमंदों का केंद्र हुआ करता था किशनगंज का सैयद असग़र रज़ा वक़्फ़ एस्टेट

कहा जाता है सैयद असग़र रज़ा वक्फ एस्टेट के इतिहास पर कुछ किताबें लिखी गई थीं जो एस्टेट के वीराने के साथ तबाह हो गईं।

syed jaffer imam Reported By Syed Jaffer Imam |
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kishanganj's syed asghar raza waqf estate used to be the center of devotees during muharram
सन् 1866 में बनी सैयद असग़र रज़ा वक़्फ़ एस्टेट की पाँच गुंबद वाली मस्जिद

बिहार के किशनगंज जिले में नगर परिषद वार्ड संख्या 4 में मौजूद क़ुतुबगंज हाट, दशकों पुराने राजाओं के ठाठ-बाठ और आलीशान जीवन का चश्मदीद है। कभी यह जगह एस्टेट हुआ करती थी लेकिन आज राजाओं के महल और कुछ धार्मिक इमारतें वीरान जंगल में तब्दील हो चुकी हैं।


सैयद असग़र रज़ा वक़्फ़ एस्टेट के नाम से जानी जाने वाली यह वक़्फ़ संपत्ति डेढ़ सौ साल से अधिक पुरानी है। एस्टेट की जामा मस्जिद को राजा सैयद असग़र रज़ा ख़ान बहादुर ने सन् 1866 में बनवाया था। क़ुतुबगंज हाट के निकट मौजूद यह पांच गुम्बद वाली मस्जिद शहर की सबसे पुरानी मस्जिदों में से एक है। मस्जिद की बनावट किशनगंज के बाकी पुराने एस्टेट की मस्जिदों जैसी है। मस्जिद से सटा एक इमामबाड़ा है जिसे 2012 में दोबारा बनवाया गया। इससे पहले वहाँ 160 साल पुरानी एक इमारत हुआ करती थी। यह ज़िले का सबसे बड़ा इमामबाड़ा था।

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असग़र रज़ा वक़्फ़ एस्टेट में कर्बला की ज़मीनें भी आती हैं। यहां एक पुराना कुआं है जहां कई वर्षों से मुहर्रम के ताज़िये और फूल ‘ठंडे’ किये जाते थे। मोतीबाग कर्बला में एस्टेट के दौर की कोई इमारत नहीं है जबकि क़ुतुबगंज हाट और पानीबाग़ इलाके में कई पुरानी इमारतों की निशानी आज भी मौजूद है। डेढ़ सदी पुरानी मस्जिद के अलावा एस्टेट की बाकी इमारतें ढह चुकी हैं। मस्जिद से चंद कदम के फासले पर एक खंडहर है जो कभी मातमखाना हुआ करता था। आज वहां पतली ईंटों की दीवारें मौजूद हैं जिसे जंगलों ने लपेट लिया है।


“मातमखाना में पहले मातम हुआ करता था। राजघराने की औरतें वहाँ मजलिस करती थीं। उसे असग़र रज़ा ने औरतों के लिए ही बनवाया था”, सैयद अली अख़्तर ज़ैदी ने बताया।

सैयद अली अख़्तर ज़ैदी, सैयद असग़र रज़ा वक़्फ़ एस्टेट के मोतवल्ली सैयद मुज़फ़्फ़र हुसैन मुज़फ़्फ़र उर्फ़ हकीम नब्बन के पुत्र हैं। उन्होंने बताया कि हकीम नब्बन 35 वर्ष तक वक़्फ़ एस्टेट के मोतवल्ली रहे और 1984 में उनकी मृत्यु हो गई। उनसे पहले उनके पिता हकीम सैयद आग़ा अली एस्टेट के मोतवल्ली थे।

अख़्तर अली ज़ैदी कहते हैं, “वो रईसी का दौर था। असग़र रज़ा ख़ान बहादुर की संपत्ति दूर-दूर तक फैली हुई थी। उन्होंने सारी ज़मीनें वक़्फ़ में दे दीं और बहुत से लोगों को बसाया भी। मेरे अब्बा के पास एक किताब थी, उसमें लिखा था किसे कितनी ज़मीन दी गई और कब दी गई। यह इस्टेट पूरा हाट, कब्रिस्तान, मस्जिद, इमामबाड़ा की सारी ज़मीनों पर फैला हुआ था। उन्होंने अपनी ज़िंदगी में ही इसे वक़्फ़ कर दिया था।”

एस्टेट का इतिहास

कहा जाता है सैयद असग़र रज़ा वक्फ एस्टेट के इतिहास पर कुछ किताबें लिखी गई थीं जो एस्टेट के वीराने के साथ तबाह हो गईं।

एस्टेट के ज़मींदार सैयद असग़र रज़ा के बारे में ‘तारीख़ ए खगड़ा, खगड़ा मेला और राजगान ए खगड़ा’ में इतिहासकार अकमल यज़दानी ने लिखा कि जलाजगढ़ किले के राजा मोहम्मद जलील के वंशज सैयद फखरुद्दीन हुसैन को अंग्रेजी शासन में जब ज़मींदारी मिली तो उन्होंने किशनगंज की खगड़ा ड्योढ़ी में घर बनाया जिसे बाद में पुराना खगड़ा कहा गया। वह परिवार सहित वहीं रहें।

सैयद फ़ख़रुद्दीन हुसैन के दो बेटे सैयद अकबर हुसैन और सैयद दीदार हुसैन में अनबन हुई और दोनों भाइयों ने अलग अलग ड्योढ़ी बसा ली। सैयद अकबर हुसैन ने ड्योढ़ी किशनगंज (क़ुतुबगंज) में रिहाइश की वहीं सैयद दीदार हुसैन खगड़ा पुरानी ड्योढ़ी में ही रहे।

the name of raja syed asghar raza khan is inscribed on this stone outside the old imambara, dated 1896
सन् 1896 में बने इस पत्थर पर पुराने इमामबाड़े के बाहर राजा सैयद असग़र रज़ा ख़ान का नाम अंकित है।

सैयद अकबर हुसैन की संतान नहीं थी इसलिए उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी को संपत्ति मिली। पत्नी ने सारी संपत्ति अपने भाई सैयद हसन रज़ा के नाम कर दी। उनके पोते सैयद असग़र रज़ा और सैयद दिलावर रज़ा हुए। सैयद दिलावर रज़ा का महल किशनगंज शहर में स्थित दिलावर पैलेस कहलाता था। इसे बाद में पदमपुर एस्टेट के जागीरदार ने खरीद लिया था।

इस पुस्तक के अलावा हमें सैयद असग़र रज़ा वक़्फ़ एस्टेट के इतिहास से जुड़ी जानकारी कहीं लिखित तौर पर नहीं मिल सकी। इस लेख में हमने कुछ स्थानीय लोगों से एस्टेट के इतिहास के बारे में पूछा जिसे आप आगे पढ़ेंगे। उनके द्वारा बतायी गयी किसी भी जानकारी की ‘मैं मीडिया’ पुष्टि नहीं करता हालांकि इस एस्टेट के इतिहास के तौर पर ये चंद बातें मौखिक रूप से स्थानीय लोगों में काफ़ी मशहूर हैं ।

राजा असग़र रज़ा का परिवार

एस्टेट के ज़मींदार सैयद असग़र रज़ा खान बहादुर के भाई सैयद सफ़दर रज़ा के वंशज सैयद मुश्ताक़ हुसैन हाशमी ने वक़्फ़ एस्टेट के इतिहास के बारे में ‘मैं मीडिया’ से बताया कि सैयद असग़र रज़ा खान के पिता अहमद रज़ा के चार बेटे थे। सभी बेटे ज़मींदार हुए जिनमें सैयद असग़र रज़ा, सैयद सफ़दर रज़ा और सैयद दिलावर रज़ा किशनगंज में रहे जबकि सैयद हैदर रज़ा पूर्णिया में जाकर बस गए।

मुश्ताक़ हुसैन हाश्मी, सैयद सफ़दर रज़ा की बेटी शरीफुन्निसा के पोते हैं। उन्होंने बताया कि राजा सैयद असग़र रज़ा ख़ान बहादुर के पूर्वज ईरान से आये थे। किशनगंज में उनकी ज़मींदारी शहर के कई इलाकों में थी और नेपालगढ़ कॉलोनी में सिपाहियों की छावनी हुआ करती थी। सैयद सफ़दर रज़ा की मृत्यु उनके पिता सैयद अहमद रज़ा के जीवनकाल में ही हो गई थी इसलिए उनके हिस्से की संपत्ति सैयद असग़र रज़ा को मिली। असग़र रज़ा की कोई संतान नहीं थी तो उनकी संपत्ति उनके भाई राजा सैयद दिलावर रज़ा को मिली। सैयद दिलावर रज़ा के एक बेटे थे जिनका नाम सैयद मोहसिन रज़ा था।

मुश्ताक़ हुसैन हाश्मी ने आगे बताया कि किशनगंज की सुभाष पल्ली और आसपास की कई ज़मीनें असग़र रज़ा की थीं जिनके बाद वे संपत्ति दिलावर रज़ा के हिस्से में आई लेकिन उनके मुनीमों ने कई ज़मीनें इधर उधर बेच डालीं। शहर के बीचोबीच स्थित रमज़ान पुल के पास महात्मा गांधी का स्मारक है और साथ में एक मंदिर है जिसका ऊपरी आकार मस्जिद की तरह दिखता है, मुश्ताक़ हुसैन हाश्मी के अनुसार यह मंदिर सैयद दिलावर रज़ा ने अपने जीवनकाल में बनाया था।

कहा जाता है कि सैयद दिलावर रज़ा के मुनीम ने उनकी कोठी और आसपास की ज़मीनों को पूर्णिया के राजा पीसी लाल को गिरवीं रख दी थी। इसमें धर्मगंज और कचहरी के पास की भी ज़मीनें थीं। राजा पीसी लाल ने ज़मीनें ले लीं और कोठी को तुड़वा कर उसका क़ीमती सामान बेच दिया। यह कोठी क़ुतुबगंज हाट स्थित शिया जामा मस्जिद के सामने पश्चिम की तरफ मौजूद थी जिसे करीब 100 बरस पहले तोड़ा गया। आज भी वह ज़मीन खाली पड़ी है जबकि पुराने ईंटें, मलबे वहां अब भी मौजूद हैं।

“शिया मस्जिद के सामने कोठी थी और पानीबाग़ मस्जिद थी जो कि ज़नानी मस्जिद थी। वहाँ औरतों की नमाज़ होती थी। मेरी दादी भी वहीं नमाज़ पढ़ती थीं। मस्जिद के सामने एक तालाब भी था। जब पीसी लाल ने कोठी तुड़वायी तो हाट वाले मातमखाने में भी हाथ लगा दिया। फिर कुछ शिया लोग कोर्ट गए और धार्मिक स्थल बोलकर उसको रुकवाया,” मुश्ताक़ हाश्मी कहते हैं।

वह आगे बोले, “1914 में केस हुआ और 1917 में फैसला आया जिसमें 6 बीघा 8 कट्ठा ज़मीन क़ुतुबगंज हाट (आलमगंज) की और 13 बीघा 6 कट्ठा कर्बला की ज़मीन बचा ली गई क्योंकि वे धार्मिक संपत्ति थी। उससे पहले राजा पीसी लाल वहाँ हाट लगाते थे, कोर्ट के फैसले के बाद उन्होंने वक्फ एस्टेट को सालाना 325 रुपये मेंटेनेंस के तौर पर देना शुरू किया। ज़मींदारी खत्म होने तक ये सिलसिला चला।”

this photo, taken around 40 years ago, shows the muharram procession emerging from the estate
करीब 40 वर्ष पुरानी इस तस्वीर में एस्टेट से निकलने वाले मुहर्रम के जुलूस को देखा जा सकता है।

मुहर्रम का मातम, एस्टेट की असली विरासत

सैयद असग़र रज़ा ने अपने जीवन में कई एकड़ ज़मीन शिया वक़्फ़ बोर्ड के हवाले कर दी थी जिसमें क़ुतुबगंज हाट के साथ साथ मोतीबाग कर्बला की भी ज़मीनें थीं। आज इन दोनों जगहों पर मुहर्रम के दौरान जुलूस और मातम होता है जिसे देखने जिले के कई हिस्सों से लोग आते हैं। यहां मुहर्रम में इमाम हुसैन की शहादत की याद मनाने की प्रथा (अज़ादारी) करीब 160 वर्ष पुरानी है। सैयद असग़र रज़ा वक़्फ़ एस्टेट में मौजूद मरकज़ी ड्योढ़ी इमामबाड़ा तब शहर की अज़ादारी का केंद्र हुआ करता था। स्थानीय लोग बताते हैं कि मुहर्रम के दस दिन यहां कर्बला के शहीदों की याद में मजलिस और मातम का आयोजन होता था जिसके लिए उत्तरप्रदेश के लखनऊ, बनारस व अन्य जगहों से शिया स्कॉलर बुलाये जाते थे।

“आज खंडहर बन चुके मातमख़ाने के सामने पश्चिम की तरफ एक ज़रीहखाना हुआ करता था। उसके सामने सखवे के पेड़ पर अलम लगाया जाता था इसलिए इस इलाके का नाम अलमगंज रखा गया था जिसे लोग आलमगंज कहने लगे। उस समय यहां शियों की आबादी कम थी जिसके लिए असग़र रज़ा ने कई लोगों को ज़मीनें दी थीं और कहा था वहां मस्जिद और इमामबाड़े बनाएं,” मुश्ताक़ हुसैन हाशमी ने बताया।

मोतवल्ली हकीम नब्बन के पुत्र सैयद अली अख्तर ने बताया कि सैयद असग़र रज़ा वक़्फ़ एस्टेट में मुहर्रम की अज़ादारी देखने दूर दराज़ से लोग आते थे। उस समय आबादी दर्जनों में थी लेकिन एस्टेट में काफी अनुशासन और सादगी से इमाम हुसैन की शहादत का ग़म मनाया जाता था।

शरबती कुआं

सैयद असग़र रज़ा वक़्फ़ एस्टेट की शिया जामा मस्जिद के पास एक बड़ा सा कुआं आज भी मौजूद है। इसे राजा असग़र रज़ा ने बनवाया था। इस कुएं की सबसे ख़ास बात यह है कि इसमें मुहर्रम में शरबत बनाया जाता था। कर्बला के प्यासों की याद में दुनियाभर में अक़ीदतमंद हर साल मुहर्रम में पानी और शरबत पिलाते हैं जिसे आमतौर पर ‘सबील ए हुसैन’ कहा जाता है। एस्टेट के कुएं में लगने वाला यह सबील इलाके में काफी मशहूर था।

इस बारे में अख़्तर अली ज़ैदी बताते हैं, “यह कुआं शरबती कुएं के नाम से मशहूर था। इसमें साल के 10 दिन शरबत बनता था जिसके लिए चीनी के बोरियां डाली जाती थीं और कई लीटर दूध और रूहअफज़ा की बोतलें डाली जाती थीं। राजा साहब के बाद भी शरबत बनता रहा करीब 1980 तक। हमने भी वह शरबत पिया है। तब यहां बहुत भीड़ लगती थी।”

सैयद असग़र रज़ा वक़्फ़ एस्टेट की यादों के तौर पर आज मस्जिद मौजूद है हालांकि एस्टेट की बाकी सभी पुरानी इमारतें ढह गईं या जर्जर हो गईं। ज़मींदार सैयद सफ़दर रज़ा के वंशज सैयद मुश्ताक़ हुसैन हाशमी के अनुसार एस्टेट में लोहे के तीन लैंप लगाए गए थे जो रात में राहगीरों के लिए रोशन किये जाते थे। 40-45 वर्ष पहले तक डेढ़ सौ वर्ष पुराने वो लैंप एस्टेट में मौजूद थे जो बाद में या तो चोरी हो गए या बेच दिए गए।

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सैयद जाफ़र इमाम किशनगंज से तालुक़ रखते हैं। इन्होंने हिमालयन यूनिवर्सिटी से जन संचार एवं पत्रकारिता में ग्रैजूएशन करने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया से हिंदी पत्रकारिता (पीजी) की पढ़ाई की। 'मैं मीडिया' के लिए सीमांचल के खेल-कूद और ऐतिहासिक इतिवृत्त पर खबरें लिख रहे हैं। इससे पहले इन्होंने Opoyi, Scribblers India, Swantree Foundation, Public Vichar जैसे संस्थानों में काम किया है। इनकी पुस्तक "A Panic Attack on The Subway" जुलाई 2021 में प्रकाशित हुई थी। यह जाफ़र के तखल्लूस के साथ 'हिंदुस्तानी' भाषा में ग़ज़ल कहते हैं और समय मिलने पर इंटरनेट पर शॉर्ट फिल्में बनाना पसंद करते हैं।

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