लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को बहुमत से कम सीटें मिलने और जनता दल यूनाइटेट (जदयू) के 12 सीटें जीतकर किंगमेकर के तौर पर उभरते ही बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने का जिन्न फिर बोतल से बाहर आ गया है।
इस चुनाव में भाजपा महज 240 सीटों पर जीत दर्ज कर पाई, जो बहुमत के जादूई आंकड़े से 32 सीटें कम है। जदयू, जो नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए), का हिस्सेदार है, ने 12 सीटों पर जीत दर्ज की। एनडीए की एक दूसरी सहयोगी तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) ने 16 सीटें जीती हैं। खुद को मोदी का हनुमान बताने वाले चिराग पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने पांच सीटों पर जीत का परचम लहराया है। इसके अलावा अन्य छोटी छोटी पार्टियों ने भी कुछ सीटों पर जीत दर्ज की है।
चुनाव परिणाम के बाद उभरी सियासी परिस्थिति में जदयू और टीडीपी एक बड़ी ताकत के रूप में उभरे हैं, जिनके बिना एनडीए की सरकार बनना लगभग नामुमकिन है। अपनी ताकत को समझते हुए इन दोनों पार्टियों ने अपनी दीर्घकालिक मांगों को पूरा कराने के लिए अभी से दबाव बनाना शुरू कर दिया है।
चुनाव परिणाम आने के बाद जदयू ने कुछ मुद्दों का जिक्र कर नई बनने वाली एनडीए सरकार से उनके समाधान की मांग की है। इनमें एक महत्वपूर्ण मांग है बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाना।
हालांकि, जदयू लंबे समय से बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करती आ रही है। पिछले साल नीतीश कुमार की अध्यक्षता में बिहार कैबिनेट ने एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र से राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने का अनुरोध किया था।
चुनाव परिणाम के बाद जदयू नेता और मंत्री विजय कुमार चौधरी ने कहा कि बिहार की वित्तीय स्थिति और अर्थव्यवस्था के मद्देनजर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की हमारी मांग पूरी तरह से उचित है और हम बिहार के लिए स्पेशल स्टेट का दर्जा देने की अपनी मांग पर कायम हैं।
उन्होंने आगे कहा, “बिहार सरकार 2011-12 से राज्य के लिए विशेष दर्जा की मांग कर रही है। इससे पहले इस संबंध में एक प्रस्ताव पारित किया गया था। बिहार सबसे योग्य राज्य है जिसे केंद्र से विशेष वित्तीय सहायता की आवश्यकता है।”
उन्होंने न्यूज एजेंसी पीटीआई के साथ बातचीत में कहा, “नीति आयोग ने पहले स्वीकार किया था कि बिहार ने पिछले दशक में कई क्षेत्रों में ‘जबरदस्त प्रगति’ की है, लेकिन अतीत में इसके कमजोर आधार के कारण राज्य को दूसरों के साथ पकड़ने और उच्च विकास तक पहुंचने में कुछ और समय लग सकता है। यही कारण है कि हम केंद्र से विशेष सहायता की मांग कर रहे हैं,” चौधरी ने कहा।
विशेष राज्य का दर्जा दिया जाना कब से शुरू हुआ
उल्लेखनीय हो कि भारतीय संविधान में किसी भी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने का कोई प्रावधान नहीं है। लेकिन, भारत में कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जो बेहद दुर्गम हैं और वहां के लोग विषम भौगोलिक परिस्थितियों में जीवन गुजारते हैं। इन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है, इसे ध्यान में रखते हुए वर्ष 1969 में पांचवें वित्त आयोग ने ऐसे राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा देने की सिफारिश की थी। इस सिफारिश के मद्देनजर राष्ट्रीय विकास परिषद (नेशनल डेवलपमेंट काउंसिंल) को ऐसे राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा देने की जिम्मेवारी दी गई।
वित्त आयोग की सिफारिश के तुरंत बाद उसी साल यानी 1969 में जम्मू-कश्मीर, असम और नगालैंड को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया। इसके बाद अलग अलग मौकों पर अन्य कई राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा मिला, जिनमें ऊपर उल्लिखित तीन राज्यों के अलावा हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, उत्तराखंड और तेलंगाना शामिल हैं। तेलंगाना को हाल में विशेष राज्य का दर्जा मिला है, जब उसे आंध्रप्रदेश से अलग कर स्वतंत्र राज्य बनाया गया।
राष्ट्रीय विकास परिषद के मुताबिक, किसी भी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने के लिए कुछ तयशुदा शर्तें हैं, जिन्हें पूरा किया जाना चाहिए। मसलन वह क्षेत्र पहाड़ी इलाका हो, वहां आबादी का घनत्व कम हो/ या आदिवासी आबादी अधिक हो, वह पड़ोसी देशों की सीमा से सटा हुआ हो, आर्थिक और बुनियादी तौर पर बेहद पिछड़ा हो या राज्य के वित्त की प्रकृति गैर-व्यावहारिक हो।
विशेष राज्य का दर्जा पाने वाले राज्यों को वित्तीय मदद मिलती है। सामान्य राज्यों में केंद्रीय योजनाओं में होने वाले खर्च का 60 से 75 प्रतिशत हिस्सा केंद्र सरकार वहन करती है, लेकिन विशेष राज्य का दर्जा पाने वाले राज्यों के मामले में केंद्र सरकार कुल फंड का 90 प्रतिशत खर्च वहन करती है।
सामान्य राज्यों में केंद्रीय फंड इस्तेमाल न हो पाए, तो वह केंद्र के खजाने में वापस लौट जाता है, लेकिन विशेष राज्यों में केंद्रीय फंड इस्तेमाल नहीं होने पर फंड अगले वित्त वर्ष में चला जाता है। विशेष राज्यों को टैक्स में कई तरह की छूट मिलती हैं और साथ ही केंद्रीय बजट का 30 प्रतिशत हिस्सा इन राज्यों में इस्तेमाल करने के लिए आवंटित किया जाता है।
हालांकि, वर्ष 2018 में राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने का प्रावधान खत्म कर दिया गया है। वर्ष 2018 में राज्यसभा में आंध्रप्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने के एक सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने बताया कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों को स्वीकारते हुए स्पेशल कैटेगरी स्टेट का दर्जा खत्म हो गया और इसलिए किसी भी नये राज्य को यह दर्जा नहीं दिया गया है। यद्यपि केंद्र सरकार ने किसी राज्य को, अगर वह अहर्ता पूरी करता है, तो विशेष सहायता देने की बात कही है।
क्या बिहार, विशेष राज्य की अहर्ताएं पूरी करता है?
देश के पूर्वी क्षेत्र में बसा लगभग 12 करोड़ की बड़ी आबादी वाला चारों तरफ से भूखंड से घिरा बिहार भौगोलिक रूप से नेपाल सीमा से सटा हुआ है। ऐसे में रणनीतिक तौर पर यह संवेदनशील राज्य है।
नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में बहुआयामी गरीबी सूचकांक में बिहार को आर्थिक और शैक्षणिक रूप से बेहद पिछड़े राज्य के तौर पर दर्ज किया गया है।
रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार की 51.91 प्रतिशत आबादी बहुआयामी गरीब है। वहीं, राज्य की 51.88 प्रतिशत आबादी कुपोषण का शिकार है।
ऐसे में क्या बिहार विशेष राज्य का दर्जा पाने की अहर्ताएं पूरी करता है? इस सवाल पर अर्थशास्त्री नवल किशोर चौधरी ‘मैं मीडिया’ को बताते है, “बिहार एक पर्वतीय राज्य नहीं है, बस यही एक अहर्ता पूरी नहीं करता है। बाकी अन्य सभी शर्तें बिहार पूरी करता है। ये अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटा हुआ है। देखने से ऐसा लगता है कि यहां का बुनियादी ढांचा दुरुस्त है, लेकिन वास्तव में उतना भी दुरुस्त नहीं है। बिहार निश्चित तौर पर विशेष राज्य का दर्जा पाने के योग्य है और इसे ये दर्जा मिलना ही चाहिए।”
वह आगे बताते हैं कि देश में क्षेत्रीय असंतुलन है, जिसे दूर करने की जरूरत है। “बिहार, ओडिशा और आंध्रप्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देकर क्षेत्रीय असंतुलन को खत्म किया जाना चाहिए। ये कोई राजनीतिक मांग नहीं है बल्कि गैर-बराबरी को खत्म करना संवैधानिक दायित्व है,” उन्होंने कहा।
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मगर सवाल है कि जब 14वें वित्त आयोग ने इस तरह के प्रावधान को खत्म कर दिया है, तो क्या ऐसा संभव है? इस सवाल पर चौधरी कहते हैं, “यह कोई बड़ी बात नहीं है। केंद्र सरकार चाहे, तो कैबिनेट की विशेष बैठक बुलाकर विशेष राज्य का दर्जा दे सकती है।”
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