मासिक धर्म (पीरियड) के प्रति समाज में जागरूकता फैलाने के लिए पूर्णिया में एक यात्रा निकाली गई। ‘पीरियड पॉज़िटिव पूर्णिया’ नाम की इस यात्रा में सैकड़ों की संख्या में समाज सेविकाएं, डॉक्टर, छात्राएं और छात्र भी शामिल हुए। यह यात्रा पूर्णिया महिला कॉलेज से शुरू होकर जेल चौक पर संपन्न हुई। छात्र और छात्राओं के हाथों में विभिन्न तरह के पोस्टर थे, जिनमें माहवारी से संबंधित जानकारियां और इसके खिलाफ जो भ्रांतियां हैं, उसको लेकर नारे लिखे हुए थे।
इस यात्रा का आयोजन ‘जनमन पीपुल्स फाउंडेशन’ संस्था द्वारा किया गया। महिलाओं के बीच माहवारी के प्रति जागरूकता बढ़ाने को लेकर हर वर्ष 28 मई को विश्व माहवारी स्वच्छता दिवस मनाया जाता है, उसी के अवसर पर पूर्णिया में यह यात्रा निकाली गई।
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यह संस्था इलाके में मासिक धर्म या माहवारी को लेकर आम जनमानस की सोच को बदलने की कोशिश कर रही है। संस्थान ने स्कूली छात्राओं को मुफ्त सैनिटरी नैपकिन भी प्रदान किया है। प्रोजेक्ट साहिल के तहत पूर्णिया के अमौर, बायसी और बैसा प्रखण्डों में इस संस्थान ने सैलाब में विशेष तौर से राहत वितरण के साथ-साथ सैनिटरी नैपकिन को भी एक ज़रूरी सामान के तरह महिलाओं में वितरित किया।
वर्ष 2021 में यूनिसेफ द्वारा किए गये एक अध्ययन से पता चला है कि भारत में 71 प्रतिशत किशोरियां अपने पहले मासिक धर्म तक माहवारी के बारे में अनजान रहती हैं, जो उनके स्वास्थ्य, आत्मविश्वास और आत्म सम्मान को प्रभावित करता है। मिथकों और टैबूज़ के साथ-साथ समाज में इस विषय पर चुप्पी लड़कियों के दैनिक जीवन के कार्यकलाप को काफी मुश्किल बना देती है। इससे तंग आकर लड़कियां शुरू में स्कूल से अनुपस्थित होती हैं और बाद में ड्रॉप आउट हो जाती हैं।
पूर्णिया में ‘जनमन पीपुल्स फाउंदेशन’ संस्था से जुड़े और इस यात्रा को सफल बनाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले शौर्य रॉय कहते हैं कि इस यात्रा का एकमात्र उद्देश्य लोगों के अन्दर माहवारी पर बात करने को लेकर जो झिझक है, उसे ख़त्म करना है। शौर्य का मानना है कि पूर्णिया जैसे छोटे शहरों में इसको लेकर खुलकर बात नहीं होती है और माहवारी को प्राकृतिक प्रक्रिया ना मानकर एक बीमारी के तरह लिया जाता है।
उन्होंने कहा कि ‘पीरियड पॉज़िटिव पूर्णिया’ अभियान के तहत पूर्णिया महिला कॉलेज के बालिका शौचालय में हमारी संस्था ने सैनिटरी नैपकिन डिस्पोज़ल मशीन(भस्मक) लगाया। हमने मशीन का उद्घाटन किसी वीआईपी के बजाय कॉलेज के प्राचार्य व शिक्षकों की उपस्थति में कॉलेज की ही एक महिला सफाई कर्मी से कराया।
यात्रा में शामिल पूर्णिया यूनिवर्सिटी की छात्रा कनक जैन कहती हैं कि ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन से ही समाज में बदलाव आएगा और माहवारी को लेकर लोगों का नज़रिया बदलेगा। कनक इस वॉक को लेकर काफी उत्साहित थीं। कनक का मानना है कि इस कार्यक्रम के बाद से बदलाव देखने को मिलेगा।
कनक ने कहा, “मेरे लिए इस वॉक में शामिल होने का अनुभव बहुत अच्छा रहा। इस कार्यक्रम में सबकुछ अच्छे से संचालित किया गया था और वक्ताओं ने सरल तरीके से इस मुद्दे पर बात की। मुझे लगता है कि जिस तरह की मेहनत से पूर्णिया में इस वॉक का आयोजन किया गया, इससे भविष्य में वास्तविक तौर पर बदलाव देखने को मिलेगा।”
इस यात्रा में सरकारी और निजी संस्थान के छात्राओं के अतिरिक्त कई एनजीओ ने भी हिस्सा लिया। संस्था से ही जुड़ी स्वाति किरण ने कहा कि वैसे तो हमलोग इस दिवस के मौके पर कुछ न कुछ कार्यक्रम करते हैं, लेकिन इस साल वॉक का आयोजन अच्छे तरीके से किया गया है। स्वाति अपने साथियों के साथ पिछले एक सप्ताह से अलग-अलग स्थान पर जाकर ‘माहवारी जागरुकता’ और ‘माहवारी स्वच्छता’ विषय पर सेशन का आयोजन कर रही थीं, ताकि माहवारी को लेकर महिलाओं के बीच जो भ्रांतियां हैं, उनको दूर किया जा सके।
“आज भी यहां पर महिलाएं इस विषय पर बात करने को लेकर शर्माती हैं और ठीक से माहवारी स्वच्छता को नहीं अपनाती हैं, जिसकी वजह से उन्हें कई तरह की बीमारियां हो जाती हैं। हमारा उद्देश्य पीरियड शेम को ख़त्म करना और मेंस्ट्रुअल हाइजीन को बढ़ावा देना है,” उन्होंने कहा।
यात्रा में बड़ी संख्यां में पुरूषों ने भी भाग लिया। इस यात्रा में शामिल 20 वर्षीय छात्र अंकित आनन्द का मानना है कि इस तरह के कार्यक्रम की पूर्णिया जैसे शहर में बहुत जरूरत थी। अंकित कहते हैं, “माहवारी एक ऐस मुद्दा है, जो शहर की आधी आबादी से जुड़ा हुआ है। आज नहीं तो कल इस पर बात होना ही थी। हमें लगा था कि यह महिलाओं से संबंधित मुद्दा है, तो सिर्फ महिलाएं ही इसमें भाग लेंगी, लेकिन इस वॉक में जिस उत्साह के साथ पुरूषों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, वो मेरे लिए एक बिल्कुल ही नया अनुभव था।”
शौर्य रॉय कहते हैं कि पूर्णियां एक छोटा शहर ज़रूर है, लेकिन यहां लिंगानुपात दूसरे जगहों के मुक़ाबले ठीक-ठाक है। यहां प्रति हज़ार पुरुष पर 930 महिलाए हैं, यानी लगभग आधी आबादी के बराबर। उइके बावजूद पुरुष तो छोड़िए महिलाओं को भी इस मुद्दे पर बोलने में झिझक होती है।
पूर्णिया जैसे छोटे शहर में काम करने के दौरान की चुनौतियां के बारे में शौर्य कहते हैं, “हमने एक चीज़ जो सबसे ज्यादा महसूस की है और वह है – कम्यूकिनेशन गैप। जब हम स्कूल या कॉलेज के शिक्षित छात्राओं के बीच काम करते हैं, वहां तो सब ठीक रहता है, लेकिन जब हम इस काम को लेकर बस्तियों में जाते हैं तो वहां असल चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वहां महिलाओं को अपना काम भी करना होता है, जिसकी वजह से हमारे कार्यक्रमों में हिस्सा लेना उनके लिए मुश्किल हो जाता है।
“हमारा काम अक्सर दलित और आदिवासी बस्तियों में होता है, तो ऐसे में हमारी कोशिश होती है कि इसको लेकर उसी समाज से लड़कियां आएं और नेतृत्व करें ताकि समुदाय में उनकी बात का असर हो। अगर हम बाहर से डॉक्टर या वॉलिंटियर ले जाते हैं, तो भाषा की दिक्कत की वजह से हमारा संदेश अधूरा रह जाता है। अगर उसी समुदाय की लड़की इस मुद्दे पर कुछ कहेंगी, तो ज़ाहिर है कि महिलाएं इसको लेकर ज़्यादा सहज महसूस करेंगी और खुलकर अपनी बात कह पायेंगी,” उन्होंने कहा।
शौर्य का मानना है कि चुनौतियों से ज्यादा उन्हें इस क्षेत्र में उम्मीद की किरण दिखती है। वह कहते हैं कि शुरूआत में आई दिक्कतों को अगर छोड़ दें, तो अब महिलाओं के साथ-साथ पुरुष भी इस पर बात करने को तैयार हैं। इस यात्रा में भी हमारी कोशिश थी कि ज्यादा से ज्यादा पुरूष शरीक हों और माहवारी को लेकर समाज में जो नज़रिया है, उसमें बदलाव हो सके।
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