बिहार के ग्रामीण इलाकों में इन दिनों एक चुनाव चल रहा है, लेकिन इसकी चर्चा या इसको लेकर उत्साह न के बराबर है। इसका वास्ता किसानों से है, लेकिन ज़्यादातर किसानों तक इसकी जागरूकता नहीं फैलाई गई है। जिन किसानों को इस बारे में जानकारी है, उनके लिए वोटर बनना किसी चुनौती से कम नहीं है।
सहकारिता समिति या Cooperative Society ऐसे संगठन को कहते हैं जिसे लोगों का एक समूह अपनी साझा जरूरतों को पूरा करने और एक-दूसरे की मदद करने के लिए बनाता है। भारत सरकार के National Cooperative Database पर मौजूद आकड़ों के अनुसार, बिहार में 29 तरह की कुल 25,580 सहकारी समितियां हैं। इसमें सबसे बड़ी संख्या 33 प्रतिशत से भी ज़्यादा प्राथमिक कृषि ऋण समिति या Primary Agricultural Credit Society यानी पैक्स की है। बिहार में कुल 8,484 पैक्स हैं। PACS को राज्य सरकार द्वारा रेगुलेट किया जाता है।
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इन दिनों बिहार में इन्हीं PACS के अध्यक्ष को चुनने के लिए पंचायत स्तर पर चुनाव हो रहे हैं। इन समितियों का चुनाव प्रत्येक पांच साल पर होता है। बिहार के 6,422 पैक्स में फिलहाल चुनाव हो रहे हैं, शेष का कार्यकाल वर्ष 2026 में पूरा होगा। पहले चरण में 1608, दूसरे में 740, तीसरे में 1659, चौथे में 1137 और पांचवें चरण में 1278 पैक्स के लिए चुनाव होंगे।
बिहार के ज़्यादातर PACS अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा पाने में विफल हैं। ये समितियां, PACS अध्यक्ष और अधिकारियों के लिए पैसे कमाने का एकमात्र जरिया बन कर रह गई हैं। PACS का मूल काम किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी MSP पर धान खरीदना है। ये MSP बाजार में मिल रही कीमत से ज़्यादा होती है। साथ ही सरकार का दावा है कि धान बेचने के 48 घंटों के अंदर पूरी रक़म सीधे किसानों के बैंक खाते में भेज दी जाती है। लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे कोसो दूर है।
PACS के चुनाव में इसके सदस्य ही वोट कर सकते हैं। सदस्यता के लिए आवेदन वैसे तो ऑनलाइन किया जाता है, लेकिन सदस्य कौन बनेगा, ये अध्यक्ष की मंज़ूरी के बिना नहीं हो सकता है। इस वजह से वर्त्तमान अध्यक्ष अक्सर उन्हें ही सदस्य बनने की मंज़ूरी देता है, जो उसे वोट करे। ऐसे में लगातार एक ही आदमी PACS अध्यक्ष का चुनाव जीतता रहता है। इस खबर के दौरान हमारी बात कई ऐसे PACS अध्यक्षों से हुई जो दस-बीस या तीस सालों से भी ज़्यादा समय से अध्यक्ष का चुनाव जीत रहे हैं।
अररिया के पलासी प्रखंड में भीखा PACS अध्यक्ष के लिए नामांकन करने आये कृत्यानंद साह के बेटे विकास कुमार साह की कहानी और अलग है। विकास का आरोप है कि उनके पिता लंबे समय से PACS के वोटर थे और अपने भाई तृथानन्द साह को वोट करते आ रहे थे। लेकिन इस बार दोनों भाइयों में मदभेद की वजह से कृत्यानंद अपने भाई के खिलाफ नामांकन करने आ गए। सारी तैयारी करके जब नामांकन पत्र जमा करने गए तो उन्हें बताया गया कि वो अब PACS के सदस्य ही नहीं हैं। हालांकि तृथानन्द का कहना है, उनके PACS से एक भी वोटर को नहीं हटा गया है, बल्कि 15 नए सदस्य जोड़े गए हैं।
अररिया की भीखा पंचायत में तृथानन्द साह 1990 से PACS अध्यक्ष हैं, दूसरी तरफ किशनगंज के कोचाधामन प्रखंड अंतर्गत मजगामा युवा रमीज़ रज़ा PACS चुनाव को लेकर जागरूकता फैला रहे हैं। महीनों की कोशिश के बाद जब रमीज़ PACS का वोटर बन पाने में असफल रहे तो उन्होंने अपने पिता को मजगामा PACS अध्यक्ष का प्रत्याशी बनाया है। हम इन दोनों के पास एक ही सवाल लेकर गए – PACS अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा पाने में कितना सफल है?
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