किशनगंज नगर क्षेत्र के चूड़ीपट्टी स्थित बज़्म ए अदब उर्दू लाइब्रेरी, जिले के सबसे पुरानी सार्वजनिक पुस्तकालयों में से एक है। इस पुस्तकालय की नींव स्वतंत्रता से भी पहले रखी गई थी। सन 1934 में बनी इस लाइब्रेरी की इमारत जर्जर हो चुकी है और लंबे समय से यहां पढ़ने वालों का आना जाना बंद है।
‘मैं मीडिया’ जब बज़्म ए अदब लाइब्रेरी पहुंचा तो वहां के कमरों में ताले लगे थे। पास में ही रहने वाले इस लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन मोहम्मद अमजद ने हमें पुस्तकालय खोल कर दिखाया। लाइब्रेरी के अंदर हॉलनुमा एक कमरे में 2 मेज़ और उसपे मध्य विद्यालय की कुछ पुस्तकें रखीं थीं। मोहम्मद अमजद ने बताया कि पास में बंद पड़े कमरे में अलमारियां हैं जिनमें पुस्तकालय की बाकी पुस्तकें रखी गई हैं।
लाइब्रेरी के हॉल के आगे एक और कमरा है जो बेहद जर्जर हो चुका है। लाइब्रेरी कमेटी के संयुक्त सचिव डॉक्टर इम्तियाज़ ने बताया कि बरसात में यहां छत से पानी टपकता है। आज कल इस कमरे में कुछ लोग रोज़ शाम को कैरम बोर्ड खेलने आते हैं। उन्होंने कहा कि शाम को आसपास के कुछ ज़िम्मेदार लोगों को कैरम खेलने की इजाज़त दी गई है, इस बहाने रोज़ाना लाइब्रेरी खोली जाती है और आए दिन इसकी साफ़ सफाई भी की जाती है।
उन्होंने यह भी कहा कि लोगों को कैरम खेलने से एक फायदा यह हुआ है कि लाइब्रेरी परिसर में घुसकर नशा करने वालों की धर-पकड़ होती है जिससे अब शाम के वक़्त नशेड़ियों का आना जाना बंद हो चुका है।
लाइब्रेरी परिसर की दीवारें भी पीछे की तरफ से टूट चुकी हैं जहां से अक्सर जुआ खेलने वाले और नशा करने वाले आकर बैठते थे। स्थानीय लोगों के अनुसार, शिकायत करने पर कई बार पुलिस ने भी नशेड़ियों और जुआरियों पर डंडे बरसाए हैं। जर्जर हो चली बज़्म ए अदब उर्दू लाइब्रेरी की इमारत के पीछे हम ने नशे की दवाइयों की बोतलें देखीं।
कभी यहां बीपीएससी की तैयारी करने आते थे छात्र
इस बारे में लाइब्रेरी के संयुक्त सचिव और पेशे से डॉक्टर इम्तियाज़ आलम ने कहा, “यह लाइब्रेरी तीन वार्डों के केंद्र में पड़ता है। वार्ड संख्या 4, 15 और 16 लाइब्रेरी से चंद मीटर के फासलों पर स्थित है। हम जल्द इस बारे में इन तीनों वार्डों के नव निर्वाचित वार्ड पार्षद से संपर्क साधने का प्रयास करेंगे। किसी तरह अगर नशेड़ियों पर लगाम लग जाए तो लाइब्रेरी में लोग दोबारा पढ़ने वाले बच्चे आ सकेंगे।”
उन्होंने आगे बताया कि कुछ वर्षों पहले लाइब्रेरी की कमेटी ने यहां बीपीएससी जैसी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे बच्चों के लिए लाइब्रेरी का दरवाज़ा खोला था लेकिन कुछ दिनों बाद ही बच्चों ने आना बंद कर दिया।
“इतना शोर शराबा होगा और ताश वग़ैरह खेला जाएगा तो ऐसे माहौल में पढ़ाई कैसे हो सकेगी,” डॉक्टर इम्तियाज़ कहते हैं।
बज़्म ए अदब उर्दू लाइब्रेरी की शुरुआत 1934 में ही हो चुकी थी, लेकिन इसका पंजीकरण 2015 में ही कराया जा सका। इस समय लाइब्रेरी की एक कमेटी है जिसके अध्यक्ष किशनगंज के पूर्व सब डिविजनल ऑफिसर (एसडीओ) मोहम्मद शफ़ीक हैं।
लाइब्रेरी कमेटी के उपाध्यक्ष जुनैद आलम ने बताया कि 2015 में जब कमेटी का गठन किया गया था तब एसडीओ रहे मोहम्मद शफ़ीक़ को अध्यक्ष बनाया गया था। उनके अनुसार कमेटी बनाने के बाद 3 वर्षों तक लाइब्रेरी में लोग आकर किताबें, अखबार और पत्रिकाएं पढ़ते थे। लेकिन कुछ सालों बाद पत्रिकाओं और अखबारों का खर्चा उठाना भी मुश्किल हो गया और धीरे धीरे लाइब्रेरी दोबारा से बंद हो गई।
कैसे रखी गई इस प्राचीन लाइब्रेरी की बुनियाद
बज़्म ए अदब उर्दू लाइब्रेरी की शुरुआत होने के समय किशनगंज पूर्णिया जिले का हिस्सा हुआ करता था। उस समय उर्दू साहित्य से जुड़े किशनगंज के शायरों और लेखकों के एक दल ने ‘अंजुमन ए तरक्की ए उर्दू’ नाम से एक संस्था की शुरुआत की। 1940 में छपी पुस्तक ‘तोहफा ए एहसान’ में लेखक मोहम्मद एहसान पदमपुरी ने किशनगंज के कद्दावर उर्दू शायरों की शायरी को जमा किया। इन शायरों में खुद मोहम्मद एहसान पदमपुरी, हकीम रुकनुद्दीन, ख़लीलूर रहमानी गोपालपुरी, महबूबूर रहमान कामिल पनासी, अहमद हुसैन शम्स बमनग्रामी और हकीम सैय्यद आग़ा अली शामिल हैं। ये शायर 1930 के दशक में किशनगंज में छोटे स्तर पर कई मुशायररों का आयोजन कर रहे थे।
उर्दू शायरी के अज़ीमाबाद घराना का असर किशनगंज और पूर्णिया पर भी काफी था। ‘तोहफा ए एहसान’ में किशनगंज से निकलने वाली पत्रिका “आईना” का ज़िक्र मिलता है। महबूबूर रहमान ने जहांगीर प्रेस नाम से एक प्रेस की शुरुआत की थी। जहांगीर प्रेस ही “आईना” पत्रिका छापता था।
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बज़्मे अदब उर्दू लाइब्रेरी के मौजूदा उपाध्यक्ष और पूर्व शिक्षक जुनैद आलम ने ‘मैं मीडिया’ से बताया कि बचपन में अहमद हुसैन शम्स बमनग्रामी से उनकी मुलाकातें होती थीं। वह अक्सर उन्हें लाइब्रेरी की शुरूआती दिनों की कहानी सुनाते थे। शुरूआती दिनों में बज़्मे अदब उर्दू लाइब्रेरी में मुशायरे हुआ करते थे उसके बाद फिर वहां धीरे धीरे उर्दू पुस्तकें लाकर रखी गईं जिससे लोगों का आना जाना और बढ़ गया।
बज़्मे अदब उर्दू लाइब्रेरी के ठीक सामने मुस्तफ़ा नाम के एक शख्स किराने की एक दुकान चलाया करते थे। जुनैद आलम ने बताया कि वह उनसे लाइब्रेरी के शुरूआती दिनों की बातें बताते थे। मुस्तफ़ा इस लाइब्रेरी में शायरों के लिए चाय लेकर जाया करते थे, महफ़िल में दरी बिछाते थे और यूँ बैठते बैठते उन्हें कई शेर भी याद हो गए थे। मुस्तफ़ा, बज़्म ए अदब लाइब्रेरी में होने वाले मुशायरे और अदबी बैठकों में शामिल होने वाले आखिरी शख्स थे जिनका कुछ सालों पहले देहांत हो गया।
लाइब्रेरी कमेटी की सरकार से मदद की गुहार
कमेटी के उपाध्यक्ष जुनैद आलम ने बताया कि जब 2015 में लाइब्रेरी को दोबारा खोला गया और वहां लोग पढ़ने आने लगे तब बरसात के दिनों में सबसे अधिक दिक्कतें पेश आने लगीं। छत टपकने के कारण बरसात में लाइब्रेरी बंद करनी पड़ती थी और बरसात के बाद लाइब्रेरी की सफाई में काफी खर्चा आता था।
उन्होंने बताया कि कमेटी के 15 सदस्यों ने शुरूआती सालों में 500 रुपय प्रति वर्ष देना शुरू किया था, लेकिन धीरे धीरे यह चलन भी कम होता गया। जब अखबार और पत्रिकाओं के पैसे अदा करना मुश्किल हुआ तो धीरे धीरे लाइब्रेरी में लोगों का आना जाना कम हो गया।
जुनैद कहते हैं कि 5 नवंबर 2015 को लाइब्रेरी का रजिस्ट्रेशन करवाने के बाद जर्जर हो चुकी इमारत का दोबारा निर्माण करने के लिए एक सरकारी एस्टीमेट तैयार किया गया था जिसमें लाइब्रेरी के पुनर्निर्माण के लिए 70 लाख रुपए का खर्च होना था। इसमें नई इमारत के निर्माण के साथ साथ फर्नीचर, नई पुस्तकें और पुस्तकालय के बाकी खर्चों को भी शामिल किया गया था।
मगर, किसी कारण लाइब्रेरी के लिए सरकारी फंड को हरी झंडी नहीं मिली और इस इमारत की उदासीनता यूँ ही जारी रही।
“2018-19 तक बच्चे लाइब्रेरी में आकर पढ़ते रहे। उस समय लाइब्रेरी की सदस्य्ता के लिए 100 रुपय लिए जा रहे थे। लेकिन बारिश में टपकती छत से परेशान होकर बच्चों ने लाइब्रेरी आना छोड़ दिया। यह लाइब्रेरी इस शहर की धरोहर है, हम सब की ज़िम्मेदारी है कि इसके लिए कुछ किया जाए,” उन्होंने कहा।
“मैंने घर घर जाकर लोगों से कहा कि आप बच्चों को लाइब्रेरी भेजिए और खुद भी शाम को देखने आइए, लेकिन अब लोगों में भी उतना उत्साह नहीं रहा,” जुनैद आलम ने कहा।
उन्होंने आगे कहा, “हमारी अल्पसंख्यक कल्याण विभाग से मांग है कि इस संस्था को बचाने के लिए हमारी मदद करें। हम यहां के राजनेताओं से अपील करते हैं कि वह भी इसमें कुछ पहल करें तो कुछ न कुछ ज़रूर हो जाएगा। मैंने अपने स्तर पर कई बार विधायक जी और सांसद जी से भी मुलाकात की। यहां फंड की कमी की वजह से बहुत सी दिक्कतें हैं। एक छोटे से कमरे में किताबों की 3-4 आलमारी रखी है। हम और जगह से किताबें ले भी आएं तो कहाँ रखेंगे। सबसे पहले बिल्डिंग का निर्माण होना बेहद ज़रूरी है।”
डॉक्टर इम्तियाज़ अख्तर ने कहा कि हम लोग स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर लाइब्रेरी में झंडा फहराते हैं तो लोग आते हैं लेकिन उसके बाद यहां सन्नाटा ही रहता है।
इम्तियाज़ आलम कहते हैं, “हम लोग साल में दो बार ध्वजारोहण के लिए (लाइब्रेरी) आते हैं लेकिन फिर ऐसा कोई माहौल नहीं बन पाता है। हमारी अल्पसंख्यक कल्याण विभाग से गुज़ारिश है कि वह हम लोगों की तरफ थोड़ा ध्यान दें। हम यहां के लोगों से भी गुज़ारिश करेंगे कि वह आएं अखबार और पत्रिकाएं पढ़ें ताकि आपको देख कर बच्चे भी आएं। बच्चे आएंगे, प्रतियोगिताओं की तैयारी करेंगे तो यहां एक अच्छा माहौल बनेगा और हम फिर और स्कूलों में जाकर प्रचार प्रसार करेंगे तो पढ़ने का एक अच्छा प्लेटफार्म बन जाएगा।”
एक रिपोर्ट के अनुसार 1950 के दशक में बिहार में 540 सार्वजनिक पुस्तकालय थे, जो अब घटकर 60 से भी कम रह गए हैं। बज़्म ए अदब लाइब्रेरी की इमारत को बने 90 वर्ष होने को आए हैं और लाइब्रेरी कमेटी के लोग जर्जर हो चुकी इस इमारत के पुनर्निर्माण की आस में बैठे हैं। स्थानीय लोगों की दिलचस्पी और सरकार के ध्यान की प्रतीक्षा कर रहा किशनगंज का यह पुस्तकालय अपने सुनहरे दिन दोबारा देख सकेगा या नहीं फिलहाल यह राज़ समय के आगोश में सुरक्षित है।
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