पटना हाईकोर्ट ने एक रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए पटना जिले के रुपसपुर थाने के एसएचओ, अरितिक्त पुलिस सुपरिंटेंडेंट व वरिष्ठ पुलिस सुपरिंटेंडेंट के खिलाफ विभागीय कार्रवाई का आदेश दिया।
ये रिट याचिका, 13 साल की एक नाबालिग लड़की की तरफ से दायर की गई थी क्योंकि उसके लिखित आवेदन के बावजूद थाने के एसएचओ ने एफआईआर दर्ज नहीं की थी। पीड़िता ने यही आवेदन अतिरिक्त पुलिस सुपरिंटेंडेंट और वरिष्ठ पुलिस सुपरिंटेंडेट को भी दिया था, लेकिन उन दोनों अफसरों की तरफ से भी एफआईआर दर्ज करने को लेकर कोई कार्रवाई नहीं की गई थी।
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इससे परेशान होकर पीड़िता ने पटना हाईकोर्ट का रुख किया।
पटना हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस विवेक चौधरी ने रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए रुपसपुर थाने के एसएचओ को पीड़िता की शिकायत के आधार पर तुरंत सुसंगत धाराओं के तरह एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया और बिहार सरकार से कोर्ट के आदेश जारी करने के तीन हफ्ते के भीतर पीड़िता को बतौर हर्जाना 50 हजार रुपये देने को कहा।
वहीं, कोर्ट ने रुपसपुर थाने के एसएचओ, अतिरिक्त पुलिस सुपरिंटेंडेंट और वरिष्ठ पुलिस सुपरिंटेंडेंट के खिलाफ विभागीय कार्रवाई का आदेश दिया। अतिरिक्त पुलिस सुपरिंटेंडेंट व वरिष्ठ पुलिस सुपरिंटेंडेंट के खिलाफ विभागीय कार्रवाई करने की जिम्मेवारी डीजीपी अथॉरिटी को दी गई, जो जांच करेगा कि पीड़िता की तरफ से दोनों को आवेदन भेजा गया, लेकिन इसके बावजूद दोनों ने रुपसपुर थाने के एसएचओ को एफआईआर दर्ज करने का आदेश क्यों नहीं दिया।
क्या है मामला
मामला पटना के रुपसपुर थाने से जुड़ा हुआ है। थाना क्षेत्र की रहने वाली 13 वर्षीय एक किशोरी से उसके ही चचेरे भाई ने कथित तौर पर यौनिक हिंसा की थी और उसकी कुछ निजी तस्वीरें अपने मोबाइल फोन में कैद कर उन्हें सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया था। इसक घटना को लेकर किशोरी ने 22 दिसम्बर 2023 को रुपसपुर थाने में एक लिखित आवेदन दिया था। किशोरी को उम्मीद थी कि रुपसपुर थाने की पुलिस इस संवेदनशील मामले में त्वरित कार्रवाई कर उसे न्याय दिलाएगी, लेकिन कार्रवाई करना तो दूर रुपसपुर थाने की पुलिस ने उसके आवेदन के आधार पर एफआईआर तक दर्ज नहीं की थी।
पीड़िता के मुताबिक, थाने से किसी तरह की कार्रवाई न होता देख उन्होंने पांच दिन बाद 27 दिसंबर, 2023 को पटना के अतिरिक्त पुलिस सुपरिंटेंडेंट से यही शिकायत की और इस शिकायत की प्रति स्पीड पोस्ट के जरिए सीनियर पुलिस सुपरिंटेंडेंट, पटना को भी भेज दी। मगर अफसोस की बात रही कि पुलिस सुपरिंटेंडेंट तक शिकायत पहुंचाने के बावजूद थाने में एफआईआर दर्ज नहीं की गई।
थाने से लेकर वरिष्ठ पुलिस अधिकारी तक की निष्क्रियता से निराश होकर पीड़िता ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 का सहारा लिया और कोर्ट में त्वरित रीट याचिका दायर की।
कोर्ट ने पाया कि पुलिस अधिकारियों ने इस मामले में सीआरपीसी की धारा 156 का उल्लंघन किया है।
सरकार ने सीआरपीसी की धारा 156 (3) का दिया हवाला
इस मामले में सरकार की प्रतिक्रिया कोर्ट में काफी निराशाजनक रही। सरकार की तरफ से पैरवी कर रहे वकीलों ने कोर्ट को बताया कि आवेदनकर्ता के पास विकल्प के तौर पर सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत कार्रवाई करवाने का अधिकार था, लेकिन आवेदनकर्ता इस धारा के तहत समाधान लेने में विफल रही और मौजूदा स्थिति में आवेदनकर्ता को राहत नहीं दी जा सकती है।
इस सिलसिले में सरकारी वकीलों ने सकिरी वासु बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश और कुंगा निमालेप्चा व अन्य बनाम स्टेट ऑफ सिक्किम व अन्य केसों का हवाला दिया।
इतना ही नहीं, पुलिस की तरफ से कोर्ट में कहा गया कि एफआईआर इसलिए दर्ज नहीं की जा सकी, क्योंकि पीड़िता की तरफ से दिया गया आवेदन कहीं गुम हो गया।
कोर्ट ने कहा कि यह सही है कि अदालत, सुप्रीम कोर्ट के नजरिए से अलग निर्णय नहीं ले सकती है, लेकिन साथ ही वक्त आ गया है कि इन मुद्दों को दोबारा देखा जाना चाहिए कि क्या संज्ञेय व गैर जमानती अपराध का पता चलने के बाद एफआईआर दर्ज न करने की अपनी गलती के बावजूद पुलिस, सीआरपीसी की धारा 156 (3) का लाभ ले सकती है। अगर सुप्रीम कोर्ट के नजरिये को बंद दिमाग से देखा जाएगा, तो एफआईआर दर्ज करने के मामले में पुलिस अफसरों के कर्तव्य को समझना मुश्किल हो जाएगा।
गौरतलब हो कि सीआरपीसी की धारा 156 (3) शिकायतकर्ता को ये अधिकार देता है कि वह अपने मामले में लापरवाही बरतने, खास तौर पर पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करने से इनकार किये जाने पर मजिस्ट्रेट से पुलिस के खिलाफ जांच कराने का आदेश ले सकता है। हालांकि, शिकायतकर्ता, पुलिस की लापरवाही के अधिकांश मामलों में सीआरपीसी की इस धारा इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं क्योंकि उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं होती है।
जानकार बताते हैं कि इस धारा के तहत जांच मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लेने से पहले की जाती है और ये जांच एक पूर्ण जांच होती है। अगर शिकायतकर्ता इस धारा के तहत मजिस्ट्रेट से शिकायत करता है, तो मजिस्ट्रेट सबसे पहले ये जांच करता है कि पुलिस के खिलाफ लगाये गये आरोप संज्ञेय अपराध हैं या नहीं। इसके बाद जांच के आदेश दिये जाते हैं।
अदालत ने कहा, “इस ताजा मामले में नाबालिग लड़की ने खुद ये आरोप लगाया कि उसका मौसेरा भाई उसके घर आता था और उसके साथ अनैतिक कृत्य करता था। उसने नाबालिग की कुछ आपत्तिनजक तस्वीरें भी खींची और उन्हें सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया।। लेकिन इसके बावजूद अगर संवैधानिक कोर्ट ये सोचता है कि सीआरपीसी की धारा 156(3) की सहारा लेकर पुलिस अफसर अपनी ड्यूटी को बाइपास कर सकते हैं, तो मेरी नजर में ये न्याय, समानता का पतन और मौलिक अधिकारों का कठोर उल्लंघन होगा।”
कोर्ट ने ये भी कहा कि आवेदन की प्रति अतिरिक्त पुलिस सुपरिंटेंडेंट व वरिष्ठ पुलिस सुपरिंटेंडेंट के दफ्तर से तो गुम नहीं हुआ होगा, लेकिन पुलिस प्रशासन की तरफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। आगे कोर्ट ने कहा कि इसमें गलती पुलिस विभाग की नहीं, गृह विभाग की भी है। “इसमें कोई विवाद नहीं है कि एफआईआर दर्ज नहीं करने को लेकर रिट याचिका की प्रति अधिकारियों तक 8 जनवरी 2024 को पहुंच गई थी, लेकिन अपने जवाब में पुलिस ने नहीं बताया कि रिट याचिका और उसके साथ संलग्न पीड़िता का आवेदन मिलने के बावजूद एफआईआर क्यों नहीं दर्ज की गई।
पिछले दो महीनों में तीन आदेश पुलिस के खिलाफ
उल्लेखनीय हो कि इसी साल फरवरी में पटना हाईकोर्ट ने पश्चिम चम्पारण जिले के एसपी के खिलाफ भी विभागीय कार्रवाई का आदेश जारी किया था। इस मामले में एसपी पर आरोप था कि उन्होंने एक व्यक्ति सुरेश यादव को मादक पदार्थ की बरामदगगी के झूठे केस में गिरफ्तार किया था।
घटना के मुताबिक, सुरेश यादव को कथित तौर पर चार किलोग्राम चरस के साथ 19 अप्रैल 2024 को बेतिया मुफस्सिल थानाक्षेत्र से गिरफ्तार का गया था। सुरेश यादव की गिरफ्तारी दो अन्य लोगों से पूछताछ के बाद हुई थी क्योंकि उन्होंने सुरेश यादव का नाम लिया था।
सुरेश यादव के परिवार ने पुलिस पर पक्षपाती रवैया अपनाने का आरोप लगाते हुए यादव को निर्दोष बताया था। सुरेश यादव की पत्नी ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को आवेदन देकर घटनास्थल पर लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज को सुरक्षित रखने को कहा था ताकि सच्चाई सामने आ सके। लेकिन, पुलिस ने फुटेज सुरक्षित नहीं रखा। बाद में सुरेश यादव ने पटना हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की थी, जिसकी सुनवाई करते हुए पटना हाईकोर्ट ने पाया कि सीसीटीवी फुटेज को सुरक्षित रखने में पुलिस विफल रही। पटना हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस विवेक चौधरी ने अपने आदेश में कहा कि पुलिस अधीक्षक (बेतिया) ने अपने कर्तव्यों का पालन नहीं किया और पुलिस की यह निष्क्रियता जांच की निष्पक्षता पर सवाल उठाती है। कोर्ट ने आगे कहा था कि पुलिस का उद्देश्य किसी व्यक्ति को झूठे केस में फंसाना नहीं बल्कि सच्चाई सामने लाना होना चाहिए।
इसी तरह फरवरी में ही कटिहार जिले के नगर थाना क्षेत्र में आरोपियों को 24 घंटे से अधिक समय तक हिरासत में रखने के मामले में पटना हाईकोर्ट ने दोषी पुलिस अफसरों पर विभागीय कार्रवाई करने का आदेश दिया था और साथ ही जिले के एसपी को अवमानना के मामले नोटिस जारी करने कहा था।
ये मामला 8 साल पुराना है। घटना के बारे में बताया जाता है कि जिले के मंगल बाजार स्थित एक तकनीकी संस्थान पर कार्रवाई करते हुए पुलिस ने संस्थान के मालिक व अन्य कर्मचारियों को गिरफ्तार किया था और 72 घंटे तक बिना कोर्ट में पेश किये अवैध तरीके से लॉकअप में बंद रखा था। बाद में कार्रवाई के डर से पुलिस ने अरेस्ट मेमो में गिरफ्तारी की तारीख भी बदल दी थी।
फरवरी में ही एक अन्य मामले में दायर रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए पटना हाईकोर्ट ने पुलिस को एक जब्त वाहन के अनुचित इस्तेमाल का दोषी पाया और पुलिस अफसरों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई और वाहन मालिक को मुआवजे के तौर पर एक लाख रुपये देने का निर्देश दिया। मुआवजे की रकम, कोर्ट के मुताबिक, दोषी पुलिस अधिकारियों से वसूली जाएगी।
ये रिट याचिका गोपालगंज निवासी हर्ष अग्रवाल की ओर से दाखिल की गई थी, जिस पर सुनवाई करते हुए जस्टिस पी. बी. बजनथरी और जस्टिस सुनील दत्ता मिश्रा की पीठ ने यह फैसला दिया था। याचिकाकर्ता के वकील कुमार हर्षवर्धन की तरफ से अदालत को बताया गया था कि 25 जुलाई 2024 को यदुपुर थाने की पुलिस ने शराबबंदी कानून के तहत एक वाहन को जब्त किया था। नियमानुसार जब्त का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए लेकिन आरोप है पुलिस अधिकारियों ने लगभग दो महीने तक उक्त वाहन का अवैध तरीके से इस्तेमाल किया था।
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