‘शहर मेरा बहुत ही छोटा है
तेरी गाड़ी नहीं रुकेगी दोस्त’
जुबैर ताबिश का यह शेर मानो किशनगंज की शबाहत बानो के दिल की आवाज है, जहाँ उनके सपनों की रेलगाड़ी उनके स्टेशन पर नहीं रुकती।
बाहर के राज्यों में जब कोई यह पूछता है के किशनगंज कहां है, तो कहना पड़ता है नेपाल की सीमा वाला किशनगंज।
बिहार के सबसे पिछड़े शहरों में से एक किशनगंज की शबाहत बानो के जुनून और मेहनत ने उन्हेंं वर्ल्ड ताइक्वांडो एशिया द्वारा आयोजित इंडिया ओपेन टूर्नामेंट में भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका दिलाया।
किसी भी खेल में इंटरनेशनल लेवल पर खेलना कोई छोटी बात नहीं और वो भी तब जब ज़िले में स्पोर्ट्स इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर कुछ भी मौजूद न हो।
भारत में ताइक्वांडो
ताइक्वांडो मार्शल आर्ट्स का एक अंग है जो ओलिंपिक और लगभग विश्व के सभी मल्टी स्पोर्ट्स इवेंट में खेला जाता है। भारत में पहली बार तायक्वोंडो का परिचय जिम्मी जगतियानी ने करवाया था। सन् 1975 में उन्होंने ताइक्वांडो फेडरेशन ऑफ इंडिया (टीएफआई) का गठन किया।
लेकिन तब से अब तक ओलिंपिक में भारत की तरफ से किसी ने भी ताइक्वांडो में देश का प्रतिनिधित्व नहीं किया है। हालांकि पिछले पैरा ओलिंपिक में अरुणा तंवर टोक्यो पैरा ओलिंपिक में भारत की तरफ से खेलने वाली पहली भारतीय बनीं।
सपनों के आगे ‘सिस्टम’ की दिवार
22 साल की शबाहत बानो ने 8 साल पहले तायक्वोंडो खेलना शुरू किया और केवल चार साल के बाद वह हैदराबाद के जीएमसी बालयोगी इंडोर स्टेडियम में विश्व मंच पर भारत का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। अपने छोटे से करियर में तीन स्वर्ण, एक रजत और पांच कांस्य पदक जीतने वाली शबाहत आज किशनगंज में बच्चों को ताइक्वांडो की कोचिंग दे रही हैं। उनका लक्ष्य है भारत के लिए पदक जीतना, मगर उनके सपने और हकीकत के बीच ‘सिस्टम’ नाम की एक बड़ी सी दीवार खड़ी दिखती है।

लचर खेल व्यवस्था
पूरी किशनगंज ज़िले में एक भी ऐसी इमारत नहीं, जहाँ बारिश या तेज़ धूप की चिंता किए बिना बच्चे तायक्वोंडो का अभ्यास कर सकें। किशनगंज ताइक्वांडो एसोसिएशन नामक एक अकादमी से ताइक्वांडो सीखने वाली शबाहत आज वहीं बच्चों को ट्रेन कर रही हैं। किशनगंज के डे मार्केट में स्थित इंटर हाईस्कूल के पीछे वाली जमीन पर मातृ मंदिर के परिसर में बच्चों को कोचिंग दी जाती है।
किशनगंज अनुमंडल पदाधिकारी अमिताभ कुमार गुप्ता ने मातृ मंदिर का हॉल और उसके आगे की थोड़ी सी जगह बच्चों को ताइक्वांडो सीखने लिए दे रखी है। अकादमी के कोच सादिक अख्तर पिछले दो दशक से तायक्वोंडो से जुड़े हैं। उनकी मानें तो किशनगंज में प्रतिभा की कोई कमी नहीं, लेकिन यहां खेल का कोई माहौल है ही नहीं।

बच्चे अगर अपने घर वालों को मना भी लें, तो समाज के लोग माता पिता से कहते हैं ‘यह क्या मारपीट सिखा रहे हो अपने बच्चे को। अक्सर लोग ताइक्वांडो को “टाइम पास” खेल समझते हैं। इन सब के बाद भी अगर कोई अपने सपनों का पीछा करने की हिम्मत करता है तो इस क्षेत्र की लचर खेल व्यवस्था बच्चों का मनोबल गिरा देती है।
शबाहत बानो जैसी दर्जनों लड़कियों का ख्वाब
शबाहत के अलावा शहर की दर्जनों बेटियां धारा के विपरित रोज़ शाम ताइक्वांडो खेलने पहुँच जाती हैं। 21 साल की पल्लवी कुमारी ने 6 साल पहले जब ताइक्वांडो खेलना शुरू किया तब आस पास के लोगों ने मजाक उड़ाया। खैर मजाक उड़ने से कुछ फ़र्क पड़ता तो पल्लवी 2019 के बीटीए बिहार टूर्नामेंट में गोल्ड मेडल न जीत पाती।

शबाहत और पल्लवी की तरह किशनगंज की मेघना कश्यप भी ताइक्वांडो में अपनी पहचान ढूंढ़ रही है। महज 14 वर्ष की उम्र में जिले स्वर्ण पदक विजेता और राज्य कांस्य पदक विजेता मेघना अपने शहर में सुविधाओं की कमी से दुखी जरूर होती है, लेकिन सपने इतनी आसान से नहीं टूटते।
मातृ मंदिर की ज़मीन पर अभ्यास करने वाली इन पदक विजेताओं की कहानी में बाधाओं की कोई कमी नहीं। कई बार घर वाले अपनी बेटीयों को तायक्वांडो जैसे खेल खेलने से रोकते हैं तो कई बार अर्थिक हालात उनको इस बात की इजाज़त नहीं देते कि व भारत में ताइक्वांडो जैसे “अलोकप्रिय” खेल को आगे जारी रख सकें।
ऊबड़-खाबड़ और ईंट-पत्थर वाली जमीन पर प्रैक्टिस करने पर मजबूर ये खिलाड़ी अपने बेमिसाल हौसले और ललक के दम पर यहां तक पहुँची हैं। इन सब खिलाड़ियों को इस बात का भी एहसास है कि अगर वे इन पिछड़े इलाकों के बजाये किसी बड़े शहर में होतीं, तो आज शायद उनका करियर अलग मुक़ाम पर होता।
शबाहत बानो के साथ ही खेलने वाली रूबी अपने अकादमी की सबसे बेहतर खिलाड़ियों में से एक थी, लेकिन घर वालों ने आगे खेलने से मना कर दिया। देश में ऐसी कितनी बेटियां हैं, जो सीमांचल जैसे पीछड़े इलाकों में जन्म लेती हैं, जिनमे प्रतिभा की कोई कमी नहीं होती, लेकिन बहुत मेहनत मशक्कत करने के बावजूद वो आगे नहीं बढ़ पातीं।
ऐसे मौके पर जब देश की सरकार लगतार खेल पर ज़ोर दे रही है, किशनगंज जैसे न जाने और कितने ऐसे छोटे शहर हैं, जहां ताइक्वांडो खेलने वालों के लिए दूसरी श्रेणी की भी सुविधा मयस्सर नहीं है। लड़कियों के लिए तो तायक्वांडो खेलना मुश्किल है ही, मगर लड़कों के लिए भी हालात कुछ ज्यादा साज़गार नज़र नहीं आते।
‘स्पोर्ट्स कोटे से आर्मी में भर्ती’
19 साल के किसलय पांडे राज्य स्तरीय कांस्य पदक विजेता रहे हैं। प्रणव रॉय जो अब बच्चों को ट्रेन करते हैं, उनका सपना स्पोर्ट्स कोटे से भारतीय आर्मी में सेवा करना है।
ऐसा नहीं है कि जिले में ताइक्वांडो खेलकर फौज में भर्ती नहीं होती। मोहम्मद जौहर, कन्हैया कुमार ने किशनगंज जिले से ही ताइक्वांडो खेलकर फौज का सफर तय किया है। करने को नामुमकिन कुछ नहीं, लेकिन इक्का दुक्का मिसाल सीमांचल के इलाकों में खेल की बदहाली को छिपा नहीं सकते।
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