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इलेक्ट्रिक दीयों ने दिवाली पर मिट्टी के दीयों की परंपरा को किया फीका

कुम्हार समाज के लोगों का कहना है कि चाइनीज दिया ने हम लोगों का कमर तोड़ दिया है।

Sarfaraz Alam Reported By Sarfraz Alam |
Published On :
electric lamps overshadow the tradition of earthen lamps on diwali

दीपावली का पर्व आते ही बाजारों में रौनक बढ़ गई है। लेकिन अब रोशनी में एक बड़ा बदलाव साफ दिखाई दे रहा है — पारंपरिक मिट्टी के दीयों की जगह इलेक्ट्रिक दीयों ने लेना शुरू कर दिया है। बिहार के सहरसा में लोग अब बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रिक दीयों को खरीद रहे हैं, जिससे मिट्टी के दीयों की बिक्री पर असर पड़ रहा है। यह बदलाव पारंपरिक कुम्हारों की आजीविका के लिए बड़ी चुनौती बन गया है।


पारंपरिक रूप से दीपावली पर मिट्टी के दीयों का उपयोग घरों, मंदिरों और आंगनों को रोशन करने के लिए किया जाता था। इससे न केवल पर्यावरण को लाभ मिलता था, बल्कि स्थानीय कुम्हारों को भी आर्थिक सहारा मिलता था। मगर अब इलेक्ट्रिक दीये जो चमकदार रोशनी के साथ आते हैं और जिनमें कई रंगों का विकल्प होता है, लोगों को ज्यादा आकर्षित कर रहे हैं। स्थानीय विक्रेता बताते हैं, इस साल मिट्टी के दीये पहले से कम बिक रहे हैं। लोग ज्यादा से ज्यादा इलेक्ट्रिक दीयों की तरफ जा रहे हैं।

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सहरसा नगर निगम क्षेत्र के बटराहा इलाके में वर्षों से कुम्हार समाज के लोग मिट्टी का दिया के साथ-साथ चाय लस्सी की कुल्हड़ बनाते आ रहे हैं। कुम्हार समाज के लोगों का कहना है कि चाइनीज दिया ने हम लोगों का कमर तोड़ दिया है। लोग अब इस मिट्टी के दिया को कम खरीदते हैं, जिस वजह से हम लोगों को निराश होना पड़ता है।


मिट्टी के दीये न केवल पर्यावरण के अनुकूल होते हैं बल्कि उनमें स्थानीय परंपरा की झलक भी मिलती है। इलेक्ट्रिक दीयों में प्लास्टिक और अन्य कृत्रिम सामग्रियों का उपयोग होता है, जिससे कचरे की समस्या बढ़ सकती है। वहीं, मिट्टी के दीये आसानी से नष्ट हो जाते हैं और मिट्टी में मिलकर पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते। दुकानदार बताते हैं इस बार अलग-अलग डिजाइन में चाइनीस दिया बाजारों में आया है, जो लोगों को खूब पसंद आ रहा है। बिना बिजली का यह दिया जलता है, सिर्फ पानी डालने पर यह दिया खुद जलने लगता है, जो लोगों को खूब पसंद आ रहा है।

हालांकि इलेक्ट्रिक दीयों की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है, मगर कई लोग मानते हैं कि मिट्टी के दीयों की परंपरा का आकर्षण फिर से लौट सकता है। कुछ सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरण प्रेमी लोगों से अपील कर रहे हैं कि वे पारंपरिक दीयों का उपयोग करें। साथ ही, कुम्हारों की आजीविका के लिए भी यह आवश्यक है कि लोग इस परंपरा को जीवित रखें।

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एमएचएम कॉलेज सहरसा से बीए पढ़ा हुआ हूं। फ्रीलांसर के तौर पर सहरसा से ग्राउंड स्टोरी करता हूं।

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