बिहार में शराबबंदी कानून (Bihar Liquor Ban) के लागू हुए 6 साल बीच चुके हैं, लेकिन शराबबंदी के फायदे और नुकसान पर अब भी गाहे-ब-गाहे जोरशोर से चर्चा चलती है।
सियासी आऱोप-प्रत्यारोप को तो एक हद तक राजनीति माना जा सकता है लेकिन शराबबंदी के मामले में सुप्रीम कोर्ट तक ने नीतीश सरकार पर सवाल उठाकर इस बहस को केंद्र में ला दिया है कि क्या सचमुच शराबबंदी कानून को लागू कर नीतीश कुमार ने ब्लंडर किया है?
1 दिसम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक रूप से कहा कि शराबबंदी कानून ने पटना हाईकोर्ट के कामकाज को प्रभावित किया है क्योंकि कोर्ट शराबबंदी कानून में गिरफ्तार लोगों को जमानत देने में ही बिजी रहता है और दूसरे मामलों की सुनवाई लंबित रह जाती है।
दऱअसल शराबबंदी कानून में गिरफ्तार लोगों को जमानत मिलने के खिलाफ बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक पेटीशन दिया था। इस पेटीशन पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा, क्या आपको मालूम है कि इस शराबबंदी कानून से बिहार के हाईकोर्ट पर कितना असर पड़ा है। इसकी वजह से कोर्ट में मामले की लिस्टिंग में एक साल तक लग जा रहा है। सभी अदालतें जमानती मामलों के निबटारे में ही व्यस्त है।
यही नहीं एक सार्वजनिक कार्यक्रम में जस्टिस रमना ने बिहार सरकार के शराबबंदी कानून को अदूरदर्शिता का नमूना करार दे दिया। उन्होंने कहा था, “देश की अदालतों में मुकदमों का अंबार लग जाता है। इसके कारण ऐसे कानून का मसौदा तैयार करने में दूरदर्शिता की कमी होती है। उदहरण के लिए बिहार में शराबबंदी कानून की शुरुआत के चलते हाईकोर्ट में जमानत के आवेदनों की भरमार हो गई है। इसकी वजह से एक साधारण जमानत अर्जी के निबटारे में एक साल का समय लग जाता है।”
चीफ जस्टिस के इन दो बयानों और शराबबंदी को लेकर कार्रवाइयों को देखें ये समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि शराबबंदी कानून से फायदा कम और नुकसान ज्यादा हो रहा है।
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सबसे पहले बात करते हैं शराब पीने से होने वाली मौतों की। आंकड़े बताते हैं कि सिर्फ 2021 में जहरीली शराब पीने से 100 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। ये तब हुआ है, जब बिहार में शराबबंदी कानून लागू है।
इसका सीधा मतलब ये है कि शराबबंदी के बावजूद शराब बेहद आसानी से लोगों को मिल जा रही है। ऐसे में सवाल ये है कि शराबबंदी कानून लागू होने के बावजूद शराब इतनी आसानी से कैसे उपलब्ध हो जा रही है। जाहिर बात है कि कानून को सख्ती से लागू करने की जिम्मेवारी जिस पुलिस प्रशासन पर है, वो उसका पालन नहीं कर पा रहा है। पिछले पांच सालों में 400 से ज्यादा पुलिस कर्मचारियों पर कार्रवाई हो चुकी है। अकेले पिछले साल शराबबंदी कानून को लेकर 30 पुलिस पदाधिकारियों को बर्खास्त, 134 के खिलाफ विभागीय कार्रवाई, 45 के खिलाफ FIR और 17 पुलिस अफसरों को थानाध्यक्ष के पद से हटाया गया। ये आंकड़े इस बात का सबूत है कि शराब माफियाओं के साथ पुलिस की मिलीभगत है। पिछले साल मार्च में मद्यनिषेध के एसपी राकेश कुमार सिन्हा ने सरकारी अफसरों की शराब माफियाओं से मिलीभगत की बात कहकर सभी जिलों के एसपी को पत्र लिखकर जांच करने कहा था, उनके पत्र पर कार्रवाई तो नहीं हुई, लेकिन उनका तबादला जरूर हो गया।
अब बात करते हैं गिरफ्तारियों की। पिछले साल गोपालगंज और पश्चिमी चम्पारण में शराब पीकर हुई मौतों के बाद नीतीश कुमार ने पुलिस को शराबबंदी कानून का सख्ती से पालन करने का निर्देश दिया था। इसके तुरंत बाद ही उन्होंने आईएएस अफसर केके पाठक को मद्यनिषेध व उत्पाद विभाग का अतिरिक्त मुख्य सचिव नियुक्त कर दिया। नीतीश सरकार ने 2016 में जब शराबबंदी कानून लागू किया था, तो केके पाठक उत्पाद विभाग में प्रधान सचिव थे। केके पाठक के उत्पाद विभाग में लौटते ही पुलिस की कार्रवाई भी तेज हो गई। आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल सिर्फ नवम्बर में शराबबंदी कानून में 11084 लोगों की गिरफ्तारी हुई, जो अक्टूबर के मुकाबले 78 प्रतिशत अधिक थी। आंकड़ों के मुताबिक, पिछले साल शराबबंदी कानून के तहत 66258 मामले दर्ज किये गये और कुल 82903 लोगों को गिरफ्तार किया गया। इस साल जनवरी महीने में शराबबंदी कनून के तहत 7461 FIR दर्ज की गई और 9543 लोगों को गिरफ्तार किया गया। यानी कि रोजाना औसतन 308 लोगों की गिरफ्तारी हुई।
भारी गिरफ्तारियों की वजह से बिहार की जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदियों को रखा जा रहा है। बिहार में कुल 59 जेलें हैं और इनकी कुल क्षमता 46669 कैदियों को रखने की है, लेकिन मैं मीडिया को मिले आंकड़े बताते हैं कि फिलहाल 66307 कैदी इन जेलों में रह रहे हैं, जो क्षमता से 42 प्रतिशत अधिक है। इनमें बहुत सारी गिरफ्तारियां ऐसी भी हैं, जिनका शराब से कोई लेना देना नहीं है। इनके परिजनों का आरोप है कि पुलिस ने झूठा मुकदमा बनाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
शराबबंदी कानून को लेकर बिहार सरकार की जब भी आलोचना होती है, तो वह शराबबंदी कानून का फायदा गिनाने के लिए कुछ आंकड़े उछाल देती है। जैसे कि शराबबंदी कानून से लोगों के जीवन में खुशहाली आई है, महिलाओं के खिलाफ अपराध कम हुए हैं और घरेलू हिंसा में कमी आई है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो यानी NCRB के आंकड़ों के मुताबिक, महिलाओं पर पति और उनके परिजनों पर अत्याचार की 1935 घटनाएं साल 2020 में हुईं, जो साल 2019 के मुकाबले कम थीं। साल 2019 में महिलाओं पर पति और उनके ससुराल वालों द्वारा अत्याचार की 2397 घटनाएं हुई थीं। इसी तरह NCRB के आंकड़े के मुताबिक, साल 2020 में 6747 महिलाओं को अगवा किया गया, जो साल 2019 के मुकाबले करीब 2300 कम है।
हालांकि सच ये है कि इस तरह की आपराधिक घटनाओं में सिर्फ शराब की भूमिका नहीं होती है। इसलिए आपराधिक घटनाओं में कमी को शराबबंदी की कामयाबी मानना अव्यावहारिक है। अलबत्ता ये जरूर हुआ है कि एक बड़ी आबादी में कुछ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने शराब छोड़ दी, तो शराब में खर्च होने वाला पैसा अब घर के दूसरे कामों में खर्च हो रहा है। इससे उनका जीवनस्तर सुधरा है। लेकिन हम सिर्फ कुछ मुट्ठीभर कामयाबियों के एवज में हो रहे नुकसान की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। ऐसे में जरूरी है कि शराबबंदी कानून को इगो का इश्यू न बनाकर इसके हर पहलू पर गंभीरता से विचार किया जाए और इसे इस तरीके से लागू किया जाए कि ये एक बड़ी आबादी को फायदा पहुंचाए न कि उन्हें अपराधी बना दे।
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