पटना के एजी कॉलोनी मार्केट से बेली रोड जाते हुए आप कब पांच भाषाई अकादमियों के पास से गुजर जाएंगे, पता ही नहीं चलेगा। हां, अगर आप दोनों तरफ की इमारतों पर नजर फेरते रहेंगे, तो शास्त्रीनगर में बाएं हाथ पीले रंग की एक पुरानी तीन मंजिली बिल्डिंग नजर आएगी जिसके आसपास घास उगे हुए हैं। इसी इमारत के भीतर पांच अकादमियां – भोजपुरी अकादमी, मगही अकादमी, मैथिली अकादमी, संस्कृत अकादमी और बांग्ला अकादमी चल रही हैं।
बिल्डिंग के सामने की तरफ इधर-उधर दीवारों पर चार अकादमियों – भोजपुरी अकादमी, मगही अकादमी, मैथिली अकादमी और बांग्ला अकादमी के बोर्ड (10 दिन पहले तेज आंधी में संस्कृत अकादमी का बोर्ड टूट गया था, तो उसे हटा दिया गया है) नजर आते हैं। यही बोर्ड यहां अकादमियों का कार्यालय होने की एकमात्र निशानी हैं। ये अकादमियां पहले निजी भवन में चल रही थीं, जिससे मकान के किराये पर ही सरकार की मोटी रकम खर्च हो जाती थी, तो लगभग 4 साल पहले उन्हें शास्त्रीनगर की इस इमारत में शिफ्ट कर दिया गया।
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रंगरोगन तथा मरम्मत को तरस रही यह इमारत ही इसमें चल रही अकादमियों की मौजूदा हालत की कहानी बयां कर देती है।
बिहार सरकार ने इसी साल सितम्बर के आखिरी हफ्ते में सीमांचल के जिलों में बोली जाने वाली सुरजापुरी और वैशाली, मुजफ्फरपुर व आसपास के जिलों में बोली जाने वाली बज्जिका को समृद्ध करने के लिए सुरजापुरी अकादमी और बज्जिका अकादमी बनाने का ऐलान किया। इस ऐलान से इन भाषाओं से अनुराग रखने वाले लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई।
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, बिहार में सुरजापुरी भाषा बोलने वालों की आबादी 18,57,930 है। सुरजापुरी भाषा बांग्ला, उर्दू, अंगिका और हिन्दी से मिलकर बनती है। बिहार के अलावा सीमांचल के सटे पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में भी सुरजापुरी बोली जाती है।
सवाल यह है कि बिहार सरकार ने बिहार की पांच भाषाओं के संवर्धन के लिए जिन अकादमियों की स्थापना की, क्या वे सभी सुचारू रूप से संचालित हो रहे हैं? इन अकादमियों को जिस उद्देश्य के लिए बनाया गया था, क्या वे उद्देश्य पूरे हो रहे हैं? अगर नहीं, तो फिर बज्जिका और सुरजापुरी अकादमी की घोषणा करने की जरूरत क्या है? क्या यह घोषणा सिर्फ इन भाषाओं को बोलने वाले लोगों को रिझाने की कोशिश भर है?
उन्हीं सवालों के मद्देनजर ‘मैं मीडिया’ ने पहले से चल रही अकादमियों में जाकर उनकी वस्तुस्थिति समझने की कोशिश की। दशकों पहले अस्तित्व में आई इन अकादमियों की जमीनी हकीकत यह है कि ये अंतिम सांसें गिन रही हैं।
एक गार्ड और दो स्टाफ के भरोसे भोजपुरी अकादमी
बिल्डिंग की दूसरी मंजिल पर बनी भोजपुरी अकादमी में प्रवेश करते ही बाएं हाथ में अकादमी के अध्यक्ष का दफ्तर है। दफ्तर के प्रवेश द्वार पर ही नेमप्लेट लगा हुआ है, जिसमें अध्यक्ष का नाम दर्ज है, मगर वह नामजद अध्यक्ष एक महीने पहले ही रिटायर हो गये हैं और नये अध्यक्ष की आमद नहीं हुई है।
इससे लगे कमरे में लोहे की कुछ अलमारियां, दो टेबुल और कुछ कुर्सियां लगी हुई हैं। इसी कमरे में 50 वर्षीय इकलौता स्टाफ वक्त काट रहे हैं। पूछने पर अपना नाम वसंत लाल बताते हैं और वह आदेशपाल के पद पर कार्यरत हैं। दो तीन महीने बाद वसंत लाल भी रिटायर हो जाएंगे।
उनके अलावा अकादमी में एक और आदेशपाल, दो सहायक और एक नाइट गार्ड है। लेकिन एक आदेशपाल और एक सहायक की ड्यूटी सचिवालय में लगी हुई है। अकादमी में सिर्फ तीन स्टाफ हैं – एक सहायक, वसंत लाल और एक नाइट गार्ड।
भोजपुरी अकादमी साल 1978 में स्थापित हुई थी। उस वक्त 24 स्टाफ थे। ये स्टाफ धीरे-धीरे रिटायर होते गये, मगर उनकी जगह नई नियुक्तियां नहीं हुईं। वसंत लाल इस अकादमी से इसके अस्तित्व में आने के समय से ही जुड़े हुए हैं। उन्होंने अकादमी को उरूज पर पहुंचते और फिर ढहते हुए देखा है। वह कहते हैं, “जब अकादमी खुला था, तब बढ़िया काम हो रहा था। इसकी स्थापना के बाद से अगले 6-7 वर्षों तक बढ़िया चला, लेकिन उसके बाद स्थिति बिगड़ती चली गई।”
हालांकि, वह मानते हैं कि लालू प्रसाद यादव के शासनकाल के मुकाबले नीतीश की सरकार में वित्त के मामले में स्थिति थोड़ी ठीक है। “लालू प्रसाद यादव के समय में पैसा नहीं मिलता था, लेकिन नीतीश की सरकार में ग्रांट (अनुदान) भरपूर मिल रहा है,” उन्होंने कहा। लेकिन वह इस बात को लेकर अफसोस भी जाहिर करते हैं कि स्टाफ को नये वेतनमान के तहत तनख्वाह नहीं मिल रही है। “अभी भी हमलोगों को पांचवें वेतन आयोग की सिफारिश के अनुसार ही तनख्वाह मिल रही है,” वह बताते हैं।
एक वक्त में भोजपुरी अकादमी भोजपुरी भाषा की किताबों का प्रकाशन, भाषा पर शोध, व्याख्यान माला और जागरूकता कार्यक्रम वगैरह किया करती थी, लेकिन कई साल से यह सब बंद है। “यहां से आईए (इंटरमीडिएट इन आर्ट), बीए (बैचलर्स ऑफ आर्ट) के कोर्स की भोजपुरी किताबें छप चुकी हैं। पत्रिकाएं भी निकला करती थीं। हमलोग काम करने को तो तैयार हैं, लेकिन ऊपर से आदेश ही नहीं आ रहा है, तो हमलोग क्या कर सकते हैं,” वह अफसोस के साथ कहते हैं।
पूर्णकालिक निदेशक के बिना संस्कृत अकादमी
इसी बिल्डिंग की पहली मंजिल पर संस्कृत अकादमी का दफ्तर है। दफ्तर के मुख्य द्वार से भीतर प्रवेश करते ही सामने टूटे हुए टेबुल, बेंच और कुर्सियों का अंबार लगा हुआ मिलता है। इसी अंबार में साइनबोर्ड रखा हुआ है, जिसमें संस्कृत अकादमी और इसकी स्थापना की तारीख व पता दर्ज है। यह साइनबोर्ड 10 दिन पहले ही हवा के झोंके से गिर गया था, तो उसे उठाकर यहां रख दिया गया।
कबाड़ के सामने ही शौचालय है। बाएं हाथ में एक छोटा कमरा है, जहां एक टेबुल और कुछ कुर्सियां लगी हुई हैं। इस कमरे से ही सटी हुई लाइब्रेरी है, लेकिन लाइब्रेरी का जिम्मा जिनके पास है, वह ताला देकर कहीं और गये हुए हैं।
संस्कृत अकादमी की स्थापना साल 1987 में हुई थी। उस वक्त इसमें नौ कर्मचारी थे। अलग-अलग वक्त में 4 कर्मचारी रिटायर हो गये, लेकिन उनकी जगह कोई नियुक्ति नहीं हुई, लिहाजा अभी स्टाफ की संख्या घटकर पांच रह गई है। अकादमी के एक कर्मचारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, “तनख्वाह वगैरह तो वक्त पर मिल जा रही है, लेकिन कोई प्रकाशन नहीं हो रहा है और न ही कोई शोध व व्याख्यान माला। शोध सहायक के रिटायर होने के बाद नई नियुक्ति नहीं हुई, तो भला शोध करे कौन?”
पहले संस्कृत अकादमी में काफी शोध हुआ करता था, किताबें छपती थीं। बल्कि 3-4 सालों तक तो संस्कृत में पंचांग भी छपा था, लेकिन पिछले 3-4 सालों से पंचांग भी नहीं छप रहा है।
संस्कृत अकादमी में अध्यक्ष और निदेशक के पद हैं, लेकिन इसकी स्थापना से लेकर आज तक इन दोनों पदों का जिम्मा एक ही अधिकारी को मिलता रहा है। उससे भी हैरानी की बात यह है कि इस अकादमी में अब तक 23 निदेशक सह अध्यक्ष हुए, लेकिन इनमें से सिर्फ तीन अध्यक्ष ही पूर्णकालिक रहे, बाकी 20 अध्यक्ष सह निदेशक पहले से शिक्षा विभाग में अलग अलग पदों पर रहे। शिक्षा विभाग की जिम्मेवारी के अतिरिक्त उन्हें अकादमी का जिम्मा मिला। ये अधिकारी शिक्षा विभाग में बैठते रहे, नतीजतन अकादमी पर पूरा ध्यान ही नहीं दे पाये।
अकादमी के एक अन्य कर्मचारी कहते हैं, “अगर पूर्णकालिक अध्यक्ष रहते और दफ्तर में बैठते, तो शोध वगैरह का काम जारी रहता। वे निर्देश देते तो हमलोग काम करते। सारी लापरवाही सरकार की है। वही कुछ करना नहीं चाहती है, तो हमलोग क्या कर सकते हैं।”
उन्हें नहीं लगता है कि अकादमी की स्थिति में निकट भविष्य में कोई सुधार होने वाला है। “कितना मीडिया वाला आया और लिखा, लेकिन नीतीशजी पर मीडिया का कोई दबाव नहीं पड़ता है,” उन्होंने कहा।
मैथिली अकादमी में सिर्फ दो स्टाफ
मैथिली अकादमी की स्थापना 1976 में हुई थी। उस वक्त अकादमी में 21 कर्मचारी थे। तीन साल पहले तक 19 कर्मचारी रिटायर कर गये और अभी सिर्फ दो कर्मचारियों के भरोसे यह अकादमी चल रही है।
इस अकादमी के भंडार रूम में किताबों का अंबार इसकी प्रासंगिकता का नमूना है। अकादमी की पुस्तक सूची के मुताबिक कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा समेत अन्य विधाओं के साथ साथ बिहार और झारखंड के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों की किताबों को मिलाकर अब तक 213 किताबें मैथिली अकादमी प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी हैं।
मैथिली अकादमी से इतनी समृद्ध किताबें छपा करती थीं कि साल 1979 से 1987 तक लगातार 9 वर्षों तक मैथिली अकादमी प्रकाशन से छपी किताबों को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिले। इनमें महाकाव्य, उपन्यास, आलोचना, कविता, आत्मकथा, निबंध और कहानी संग्रह शामिल हैं। लेकिन, अब अकादमी लगभग निष्क्रिय है।
अकादमी से जुड़े एक स्टाफ ने नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर कहा, “साल 2019 के बाद से कोई भाषण माला आयोजित नहीं हुई है और किताब कमेटी बनाने के लिए पैसा भी नहीं मिला है कि नई किताबें लिखने पर कोई निर्णय लिया जा सके। हमें तो फंड भी नहीं मिल रहा है कि किताबें छपवा सकें। साल 2021 में हमने सीता चरित किताब छपवाई, लेकिन उसका पैसा सरकार ने नहीं दिया। अकादमी से प्रकाशित पुस्तकों की बिक्री से जो पैसा मिला, उससे ही सीता चरित छपवाया गया।”
“अकादमी सुचारू रूप से चले, इस पर मुख्यमंत्री, शिक्षा मंत्री और वित्त मंत्री के स्तर पर सोचा जाना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। अकादमी को सालाना 1 करोड़ 17 लाख रुपए बतौर ग्रांट सरकार से मिलना चाहिए, लेकिन हमें सिर्फ 12 लाख 96 हजार रुपए मिल रहे हैं और वह भी सिर्फ तनख्वाह देने के लिए। तनख्वाह भी हमलोगों को 1997 के वेतनमान के हिसाब से मिल रहा है,” उन्होंने आगे कहा।
मगही अकादमी में तालाबंदी, बांग्ला अकादमी में सिर्फ दो स्टाफ
बिल्डिंग की तीसरी मंजिल पर मगही और बांग्ला अकादमी के दफ्तर हैं। मगही अकादमी में कभी एक दर्जन से ज्यादा स्टाफ हुआ करते थे। धीरे-धीरे सभी रिटायर हो गये, लेकिन उनकी जगह किसी की नियुक्ति नहीं हुई। एक स्टाफ के सहारे यह अकादमी इस साल मई तक चली। मई में वह इकलौता स्टाफ भी रिटायर हो गया, तो दफ्तर में ताले लग गये।
वहीं, साल 1983 में अस्तित्व में आई बांग्ला अकादमी में सिर्फ दो स्टाफ बचे हुए हैं – एक लिपिक और एक आदेशपाल। आदेशपाल सचिवालय में प्रतिनियुक्त हैं, तो अकादमी की जिम्मेवारी लिपिक संभाल रहे हैं। पहले इसमें लगभग 10 कर्मचारी काम कर रहे थे।
बांग्ला अकादमी भी दूसरी अकादमियों की तरह बांग्ला भाषा पर सेमिनार, कार्यशाला आदि आयोजित किया करती थी। अकादमी का अपना प्रकाशन है, जहां से कई किताबें और मासिक पत्रिका छपीं, लेकिन अब सब ठप पड़ा हुआ है।
साल 2016 से अकादमी में पूर्णकालिक निदेशक नहीं है। अकादमी से जुड़े एक कर्मचारी ने कहा, “पूर्णकालिक निदेशक का पद खाली है। सरकार आदमी ही नियुक्ति नहीं करेगी, तो कितना काम होगा?”
वह पांचवें वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक ही वेतन दिये जाने को लेकर नाराजगी जाहिर करते हुए कहते हैं, “जो दूध 20 रुपए किलो मिलता था और अब 50 रुपए किलो हो गया है। साल 2022 में साल 1997 के वेतनमान के तहत तनख्वाह मिल रही है, कैसे चलेगा हमारा घर?”
“भाषा-संस्कृति के प्रति सरकार संवेदनशील नहीं”
दशकों पुरानी इन अकादमियों में रिक्त पदों को नहीं भरा जाना अपने आप में अजीब बात है और ऐसा भी नहीं है कि इन अकादमियों में सैकड़ों की तादाद में कर्मचारी काम किया करते थे। सभी पांच अकादमियों को मिलाकर मुश्किल से 70-80 कर्मचारी रहे होंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर सरकार वर्षों से रिक्त पदों को भर क्यों नहीं रही है?
भाषाओं पर काम करने वाले बिहार सरकार की मंशा पर ही सवाल उठाते हैं। मैथिली साहित्यकार डॉ रमानंद झा रमण सरकार के रवैये को भाषा को लेकर असंवेदनशीलता का मुजाहिरा बताते हैं। वह कहते हैं, “इन अकादमियों के रिक्त पदों का नहीं भरा जाना बताता है कि भाषा – संस्कृति और इनके संरक्षण को लेकर बिहार सरकार संवेदनशील ही नहीं है। इन अकादमियों की स्थापना इसलिए की गई ताकि भाषाएं समृद्ध और विकसित हों, उन्हें संरक्षण मिले।”
वह अकादमियों के निष्क्रिय होने को गंभीर चिंता का विषय बताते हुए कहते हैं, “अगर अकादमियां खत्म हो गईं, तो भाषाओं का विकास रुक जाएगा, उनका संरक्षण रुक जाएगा। अकादमियां नये साहित्यकारों की रचनाएं छापकर उन्हें प्रोत्साहित करती हैं, कई तरह के पुरस्कार देती हैं। अगर अकादमियां नहीं रहेंगी, तो नये साहित्यकारों को प्लेटफॉर्म नहीं मिल पाएगा और इससे बड़ा नुकसान होगा।”
भोजपुरी साहित्यकार जितेंद्र कुमार का कहना है कि वर्षों से रिक्त पदों का नहीं भरा जाना बताता है कि अकादमियों को लेकर सरकार का रुख सकारात्मक नहीं है। उन्होंने कहा, “भाषाओं के प्रोत्साहन में अकादमियों की बड़ी भूमिका होती है। अगर अकादमियां कमजोर होंगीं, तो भाषाओं पर भी असर पड़ेगा।”
किशनगंज शहर में स्थित मारवाड़ी कॉलेज में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष व सुरजापुरी भाषी डॉ सजल प्रसाद कहते हैं, “सरकार ने सुरजापुरी अकादमी स्थापित करने का जो निर्णय लिया है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। मगर, यह भी ध्यान देना होगा कि इस अकादमी का हश्र अन्य भाषाई अकादमियों की तरह न हो जाए।”
“सुरजापुरी को लेकर कोई काम नहीं हुआ है। अतः अकादमी बनने से बहुत काम हो सकेगा, लेकिन इसके लिए जरूरी होगा कि अकादमी बेहतर तरीके से चले,” उन्होंने कहा।
शिक्षा मंत्री डॉ चंद्रशेखर से इस संबंध में पूछने पर उन्होंने कहा कि अकादमियों के रिक्त पदों पर बहाली की जाएगी और इस संबंध में विस्तृत जानकारी ली जा रही है। यह पूछे जाने पर कि कितना समय लगेगा रिक्त पदों को भरने में, उन्होंने कहा, “डेडलाइन तो नहीं दिया जा सकता है, लेकिन जल्द से जल्द रिक्त पदों को भरा जाएगा।”
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