तीखापन थोड़ा कम है, लेकिन धूप पूरी खिली हुई है। अपनी उम्र के लिहाज से काफी दुबले और उम्रदराज दिख रहे 58 साल के अब्दुल मजीद अपनी खटारा साइकिल पर सामान लादकर घर से निकल पड़े हैं। साइकिल के अगले हिस्से में दो झोले टंगे हुए हैं और पिछले हिस्से में तीन झोले हैं। सभी में सामान भरा हुआ है।
हर शाम इनका ये रूटीन है। आसपास में जहां भी साप्ताहिक हाट लगता है, अब्दुल मजीद साइकिल पर सामान लादकर बेचने निकल पड़ते हैं।
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“मैं हाट में बिस्कुट तेल, चीनी, चायपत्ती, दाल आदि बेचता हूं। इससे रोजाना बमुश्किल 200 से 250 रुपए कमाई कर पाता हूं”
माथे से चू रहे पसीने को पोंछते हुए मजीद जानकारी देते हैं।
अब्दुल मजीद यूं तो पैदाइश से ही किसान थे और ठीकठाक जमीन थी। लेकिन मेची नदी की मेहरबानी से अब किसान नहीं रहे। अब वे फेरी वाला हैं।
वे बताते हैं,
“मेरे पास खेती की आठ एकड़ जमीन थी। ये जमीन मुझे पुरखों से मिली थी। जमीन पर ठीकठाक खेती हो जाती थी और पारिवारिक जरूरतें आसानी से पूरी कर लेते थे। लेकिन पिछले पांच साल के भीतर आठों एक़ड़ जमीन नदी के कटाव की भेंट चढ़ गई। ऐसे में परिवार चलाने के लिए कुछ तो जुगाड़ करना था, तो हाट में जाकर सामान बेचना शुरू कर दिया।”
“इस काम के अलावा और कर भी क्या सकते हैं। हमारी तो अब वो उम्र भी नहीं रही कि बहुत दौड़-धूप कर सकूं,” मजीद कहते हैं।
अब्दुल मजीद बिहार के सीमांचल में आने वाले किशनगंज जिले में ठाकुरगंज प्रखंड के दल्लेगांव के निवासी है। इस गांव के पास से होकर मेची नदी बहती है, जो हर साल सैकड़ों एकड़ जमीन अपने साथ बहा ले जाती है। नतीजतन हर साल कोई न कोई परिवार अब्दुल मजीद की नियति को प्राप्त हो जाता है।
मेची नदी नेपाल के महाभारत रेंज से निकलती है और किशनगंज में महानंदा नदी से मिल जाती है। इसके बाद ये पश्चिम बंगाल में प्रवेश करती है।
इस साल अप्रैल में आई ‘क्लाइमेट वल्नरेब्लिटी असेसमेंट ऑफ अडेप्टेशन प्लानिंग इन इंडिया यूजिंग कॉमन फ्रेमवर्क’ में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते देश के जिन 50 जिलों पर सबसे ज्यादा असर पड़ेगा, उनमें से सिर्फ बिहार के 14 जिले शामिल हैं। इनमें किशनगंज समेत सीमांचल के आधा दर्जन जिले हैं।
‘एनवायरमेंटल चैलेंजेज ड्यू टू क्लाइमेट चेंज इन बिहार, डेवलपिंग स्टेट ऑफ इंडिया’ नाम के एक शोध पत्र में कहा गया है कि मौसमजनित प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बिहार में बहुत ज्यादा रहेगा। इसका मतलब है कि आनेवाले दिनों में किशनगंज और अन्य जिलों में बाढ़ और कटाव बढ़ेंगे। इसका सबसे ज्यादा प्रभावित अब्दुल मजीद जैसे गरीब तबकों पर पड़ेगा। पहले से गरीबी में जी रही इस आबादी के लिए जिंदगी बद से बदतरीन हो जाएगी।
“इस साल तक एक एकड़ जमीन बची हुई थी, इस बार वो भी चली गई,” मजीद बताते हैं।
अब उनके पास उतनी ही जमीन है, जितनी में घर बना हुआ है। घर भी क्या है, फूस से बनी झोपड़ी है जिसमें छह लोग रहते हैं – बेटी, दो पोतियां, बहू, पत्नी और अब्दुल मजीद। उनका एकमात्र बेटा पंजाब में रहता है।
“बेटा पंजाब में मार्बल का काम करता है। उसकी कमाई से बड़ा सहारा मिल जाता है,”
ये कहते हुए उनके चेहरे पर थोड़ी राहत की रेखा खिंच जाती है, जिसमें बेटे के लायक हो जाने का भाव भी नजर आता है।
वे रोजाना अपने घर से 15 किलोमीटर ठाकुरगंज टाउन साइकिल से जाते हैं और सामान खरीद कर लाते हैं। रास्ते में उन्हें नाव से मेची नदी पार करना पड़ता है। नाव की सवारी में पैसेंजर का एक तरफ का किराया 20 रुपए हैं और साइकिल व मोटरसाइकिल जैसे वाहन के लिए अलग से किराया देना होता है। मॉनूसन के चार महीने मेची में जलस्तर बढ़ा रहता है, इसलिए गांव से बाहर जाने और बाहर से गांव में प्रवेश करने के लिए नाव की सवारी अनिवार्य होती है। हालांकि गर्मी के मौसम में नदी का जलस्तर काफी कम हो जाता है और लोग चलकर भी नदी पार कर लिया करते हैं।
चूंकि, दल्ले गांव नेपाल की सीमा से बिल्कुल सटा हुआ है, इसलिए यहां सुरक्षा जवान खासा चौकन्ना रहते हैं। ज्यादा सामान ले जाने वालों पर कड़ी नजर रहती है और कई बार उनसे गहन पूछताछ भी की जाती है।
अब्दुल मजीद से भी कई बार पूछताछ हो चुकी है क्योंकि वे ठाकुरगंज से सामान लाते हैं।
वे कहते हैं, “सुरक्षा जवान अक्सर पूछने लगते हैं कि मैं इतना ज्यादा सामान क्यों ले जा रहा हूं। वे पहचान पत्र भी मांगते हैं। इसलिए मैं हमेशा पहचानपत्र अपने साथ रखता हूं। मैं उन्हें बता देता हूं कि मैं हाट में सामान बेचता हूं, तो वे परेशान नहीं करते।”
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