बिहार में चार विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने अपनी तीन सीटें गंवा दी हैं। वहीं, भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की एक छोटी सहयोगी पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) ने भी अपनी सीट बचा ली। इस चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान राजद को हुआ क्योंकि उसने अपनी जीती हुई दो सीटें खो दीं।
गया ज़िले के बेलागंज विधानसभा क्षेत्र से साल 1990 से राजद नेता सुरेंद्र यादव या उनके सहयोगी लगातार जीत रहे थे। लेकिन, इस उपचुनाव में जहानाबाद सांसद सुरेंद्र यादव के बेटे विश्वनाथ यादव को जदयू नेता मनोरमा देवी ने 21,391 वोटों के बड़े अंतर से हरा दिया।
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इसी तरह, कैमूर ज़िले का रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र राजद के प्रदेश उपाध्यक्ष जगदानंद सिंह का इलाका है। वर्ष 1985 से 2005 तक लगातार छह बार वे इस सीट से विधायक रहे। इसके बाद अपने सहयोगी और फिर बेटे को यहीं से जिताया। चार दशकों में सिर्फ एक बार 2015 में जगदानंद सिंह के उम्मीदवार की यहां से हार हुई थी।
वर्ष 2020 में जगदानंद सिंह के बेटे सुधाकर सिंह ने यहां से राजद के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। इस उपचुनाव में जगदानंद सिंह के दूसरे बेटे अजीत कुमार सिंह को राजद ने टिकट दिया, लेकिन वह मुक़ाबले में भी नहीं रहे। यहां भाजपा और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की बीच कांटे की टक्कर हुई और अजीत सिंह लगभग 35800 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे।
रामगढ़ में बसपा शुरू से ही मजबूत रही है और इसकी वजह इस क्षेत्र का उत्तर प्रदेश की सरहद से सटा होना है। बसपा की मजबूती का अदांजा इस आंकड़े से लगाया जा सकता है कि साल 2020 के विधानसभा चुनाव में राजद ने बसपा को मात्र 189 वोटों के अंतर से हराया था। इस बार पार्टी सिर्फ 1362 वोटों के मार्जिन से हारी है।
वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, “राजद के लिए निश्चित ही ये अच्छा सिग्नल नहीं है। उपचुनाव अक्सर सत्ताधारी पार्टी जीतती है, लेकिन सीटिंग सीट हारना राजद के लिए चिंताजनक है। ये उनके लिए वेक-उप कॉल है। लोकसभा में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद उनमें एक नाउम्मीदी आ गई है।”
सबाल्टर्न पत्रिका के संपादक महेंद्र सुमन कहते हैं, “ये चुनाव परिणाम बताता है कि राजद का कोर वोट बैंक छिटक रहा है। जहां यादवों के पास राजद से इतर विकल्प है, वे वहां जा रहे हैं। जैसे रामगढ़ में बसपा के उम्मीदवार सतीश यादव थे, तो यादव वोटर उधर शिफ्ट हो गए।”
भाकपा (माले) की हार की क्या वजह है?
भोजपुर ज़िले के तरारी विधानसभा क्षेत्र (2008 से पहले पीरो विधानसभा क्षेत्र) से जदयू नेता नरेंद्र कुमार पांडेय उर्फ सुनील पांडेय लंबे समय तक विधायक रहे। 2015 में जदयू-राजद-कांग्रेस महागठबंधन बनने के बाद ये सीट कांग्रेस के खाते में चली गई। नरेंद्र कुमार पांडेय ने अपनी पत्नी गीता पांडेय को NDA गठबंधन में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के टिकट पर मैदान में उतारा। लेकिन महज़ 272 वोटों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन यानी भाकपा (माले) के सुदामा प्रसाद ने उन्हें हरा दिया।
साल 2020 में NDA की तरफ से पहली बार भाजपा ने अपना उम्मीदवार उतारा, तो पांडेय निर्दलीय मैदान में आये। भाजपा के प्रत्याशी को मात्र 13,833 वोट आये और पांडेय करीब 11,000 वोटों के अंतर से फिर हार गए। उपचुनाव के ठीक पहले सुनील पांडेय भाजपा में शामिल हो गए और अपने बेटे विशाल प्रशांत उर्फ़ सुशील पांडेय को मैदान में उतारा। उन्होंने 10,612 वोटों के अंतर से भाकपा (माले) के राजू यादव को हरा दिया।
महेंद्र सुमन कहते, “सुदामा प्रसाद के उम्मीदवार रहने से वैश्य और अति पिछड़ा वोट भाकपा (माले) को ज़्यादा मिला। लेकिन, राजू यादव को इन समुदायों के वोट नहीं मिले।”
साल 2015 में अपनी पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा बनाने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी लगातार दो बार गया ज़िले के इमामगंज विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए। गया से सांसद चुने जाने के बाद उन्होंने अपनी बहु दीपा मांझी को मैदान में उतारा। उन्होंने करीब 6,000 वोटों के मार्जिन से राजद के रौशन मांझी को हराया। राजद इस सीट से कभी चुनाव नहीं जीता है।
“राजद के लिए इमामगंज में सारे फैक्टर काम कर रहे थे। अव्वल तो राजद कैंडिडेट रौशन मांझी लोकल थे, जबकि जीतन राम मांझी दूर के हैं। कुशवाहा वोटरों ने (औरंगाबाद लोकसभा क्षेत्र में) राजद को वोट दिया था। वहीं, पासवान वोट काटने के लिए जन सुराज का लोकल पासवान प्रत्याशी था। ये सारे फैक्टर राजद के पक्ष में दिख रहे थे, मगर इसके बावजूद पार्टी जीत नहीं सकी,” सुमन कहते हैं।
स्थानीय नेता के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी
जब कोई नेता एक ही क्षेत्र से कई दशकों तक चुनाव जीतता है, तो उसके खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी बढ़ जाती है। उपचुनाव हमेशा स्थानीय मुद्दों के इर्द-गिर्द लड़ा जाता है और स्थानीय फैक्टर ज़्यादा हावी हो जाते हैं। बिहार में पिछले कई विधानसभा उपचुनावों में ऐसा देखा गया है। परिवार के एक सदस्य के सांसद बन जाने के बाद उसी परिवार के दूसरे सदस्य के लिए विधानसभा उपचुनाव जीतना मुश्किल हो जाता है।
मसलन, रामगढ़ में 2009 में हुए विधानसभा उपचुनाव में राजद, जगदानंद सिंह के बेटे सुधाकर सिंह को टिकट देना चाहता था। लेकिन, जगदानंद सिंह ने पार्टी के एक कार्यकर्त्ता अंबिका यादव को टिकट दिलाया और चुनाव भी जिताया। लेकिन, अब सुधाकर सिंह के सांसद बनते ही, उनके दूसरे बेटे अजीत उपचुनाव के मैदान में आये और बुरी तरह चुनाव हार गए।
बेलागंज में भी ऐसा ही देखने को मिला। स्थानीय जानकार मानते हैं कि राजद के हार की मुख्य वजह सुरेंद्र यादव के बेटे को टिकट देना है। “34 साल से बाप को वोट दिया, अब बेटे को भी वोट क्यों करें”, एक स्थानीय वोटर ने कहा।
हालांकि, परिवार का फैक्टर NDA खेमे में भी रहा है। लेकिन, तरारी में नरेंद्र कुमार पांडेय परिवार की पिछले दो चुनावों में हार की वजह से उनके खिलाफ ये फैक्टर हावी नहीं हो सका। वहीं इमामगंज की राजनीति में जीतनराम मांझी की एंट्री अपेक्षाकृत नई है। उन्होंने 2015 में यहां से पहला चुनाव लड़ा था।
जन सुराज पार्टी क्या फैक्टर बन पाई?
पूर्व राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर पिछले दो सालों से बिहार की पदयात्रा कर रहे हैं। इसी बीच बीते 2 अक्टूबर को उन्होंने जन सुराज पार्टी की स्थापना की। उनकी पार्टी के लिए ये पहला चुनाव था। लेकिन, राजनीतिक रणनीति में महारत, अकूत धन और एक कॉरपोरेट स्टाइल टीम की दिन रात मेहनत के बावजूद प्रशांत किशोर की पार्टी चार सीटों में से सिर्फ एक सीट इमामगंज पर ही जमानत बचा पाई।
चुनाव में जमानत बचाने के लिए किसी भी प्रत्याशी को कुल वोट का कम से कम 1/6 यानी 16.66% हासिल करना होता है।
इमामगंज से पार्टी के उम्मीदवार जितेंद्र पासवान 22.63 प्रतिशत वोट लाकर तीसरे स्थान पर रहे। वहीं, बेलागंज से पार्टी के प्रत्याशी मोहम्मद अमजद 10.66 प्रतिशत वोट ही हासिल कर पाए। अमजद का ये चौथा चुनाव था और इस बार उनका प्रदर्शन सबसे बुरा रहा। फ़रवरी 2005 के चुनाव में उन्हें करीब 34%, नवंबर 2005 में करीब 36% और 2010 में लगभग 40% वोट मिले थे।
रामगढ़ में जन सुराज के प्रत्याशी सुशील सिंह कुशवाहा को मात्र 3.87% और तरारी की उम्मीदवार किरण सिंह को सिर्फ 3.48% वोट मिले।
वोट प्रतिशत से पता चलता है कि प्रशांत किशोर की पार्टी उतना सनसनीखेज परिणाम नहीं ला सकी, जैसा दावा किया जा रहा था। ऐसे में सवाल है कि क्या 2025 बिहार विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर बड़ा फैक्टर बन पाएंगे?
इस सवाल पर सुरूर अहमद कहते हैं, “प्रशांत किशोर हाइली ओवररटेड हैं। वो जीत नहीं सकते हैं, लेकिन हरवा सकते हैं। जीतने के लिए कोई आधार चाहिए, इनका कुछ नहीं है।”
यहां ये भी बता दें कि बेलागंज से बेटे की हार के लिए राजद सांसद सुरेंद्र यादव ने प्रशांत किशोर को जिम्मेवार ठहराया है। उन्होंने एक बयान में कहा, “प्रशांत किशोर ने हराने का काम किया है।”
उनके इस दावे के पीछे वजह ये है कि यहां जन सुराज पार्टी के प्रत्याशी को 17,285 वोट मिले, जबकि राजद की हार का मार्जिन 21,391 वोट रहा।
महेंद्र सुमन भी सुरूर अहमद की बातें से सहमत नजर आते हैं। उन्होंने कहा, “प्रशांत किशोर को साल 2025 के विधानसभा चुनाव में दोनों तरफ के मजबूत बागी प्रत्याशी मिल जाएंगे, उनके भरोसे उनको कुछ सीटें आ सकती हैं। सही सोच, सही व्यक्ति उनका पाखंड है, जो इस उपचुनाव में दिख ही गया।”
‘मैं मीडिया’ ने चुनाव के दौरान ही एक खबर में बताया था की ‘नई राजनीति’ का दावा करने वाले PK सियासत की पुरानी राह पर चल पड़े हैं। उनके चारों उम्मीदवार दसवीं या इंटर पास थे। साथ ही चार में से तीन पर आपराधिक मामले भी दर्ज़ हैं।
महेंद्र सुमन कहते हैं, “जन सुराज अगड़ी जातियों का वोट नहीं ले पा रही है, क्योंकि अगड़ी जातियां हाइली पॉलीराइज़्ड है। ऐसे में साल 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव में जन सुराज के चलते राजद – जदयू को ज्यादा नुकसान होने का अनुमान है। भाजपा पर इसका कम असर पड़ेगा”
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