बिहार सरकार ने इसी साल 26 नवंबर को ‘बेतिया राज की संपत्तियों को निहित करने वाला विधेयक 2024’ पारित किया। इस विधेयक से बेतिया राज की 15,358 एकड़ भूमि बिहार सरकार ने अपने अधीन ले ली है।
इनमें से 15,215 एकड़ जमीन बिहार के पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, सिवान, सारण, गोपालगंज और पटना जिले में है। बेतिया राज की अधिकतर जमीन पश्चिमी चंपारण (9,758 एकड़) और पूर्वी चंपारण (5,320 एकड़) में है। बची हुई 143 एकड़ जमीन उत्तर प्रदेश के कुशीनगर, वाराणसी, प्रयागराज, गोरखपुर, महाराजगंज, बस्ती, अयोध्या और मिर्ज़ापुर जिलों में है।
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संपत्तियों का क्या करेगी सरकार
बिहार सरकार का कहना है कि वह बेतिया राज के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व आर्थिक महत्व को संरक्षित करना चाहती है और इन संपत्तियों का इस्तेमाल ‘सामाजिक और आर्थिक’ प्रगति में करेगी। बेतिया राज की संपत्ति का एक बड़ा भाग अतिक्रमित है। अतिक्रमण हटाने के लिए सरकार ने इस विधेयक में कई प्रावधान रखे हैं। साथ ही बेतिया राज से संबंधित लंबित मुक़दमे भी समाप्त कर दिए जाएंगे। कानूनी दावों के लिए सरकार ने एक विशेष प्रक्रिया तय की है।
संपत्तियों के प्रशासनिक कार्य और विवाद समाधान के लिए हर जिले में विशेष अधिकारी की नियुक्ति होगी और जिला प्रशासन संपत्तियों के प्रबंधन में राज्य सरकार की सहायता करेगा। सरकार के खिलाफ इन संपत्तियों से जुड़े मुकदमे नहीं चलाए जा सकेंगे। इसके अलावा बेतिया राज की संपत्तियों से आने वाला तमाम राजस्व राज्य सरकार के पास जाएगा।
बेतिया राज की जमीनों पर अतिक्रमण हटाने के लिए सरकार सख्त रवैया अपनाएगी और संपत्ति से जुड़े तमाम दस्तावेज़ लेकर उनसे जुड़े विवादों को खत्म कर जमीन से राजस्व वसूलेगी। सरकार इन संपत्तियों के दस्तावेज़ों का डिजिटल रिकॉर्ड तैयार करेगी ताकि भविष्य में विवादों को रोका जा सके।
बिहार सरकार द्वारा प्रकाशित बिहार गजट बेतिया राज संपत्ति प्रबंधन अधिनियम 2024 में बताया गया है कि 1879 के कोर्ट ऑफ वॉर्ड्स अधिनियम के तहत 1 अप्रैल, 1897 को बेतिया राज का प्रबंधन ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथों में ले लिया था और फिर इसे न्यायालय की देखरेख में रखा। बिहार में बिहार राजस्व बोर्ड ने इन संपत्तियों को अपने कब्ज़े में लिया जबकि उत्तर प्रदेश में बेतिया राज की संपत्तियों के प्रबंधन की जिम्मेदारी वहां के राजस्व बोर्ड को दी गई।
बिहार सरकार का कहना है कि इन संपत्तियों का सही उपयोग राज्य की सामाजिक और आर्थिक प्रगति में योगदान देगा। इनमें से कई का उपयोग सार्वजनिक हितों के कार्यों, जैसे स्कूल, अस्पताल और सामुदायिक केंद्रों के निर्माण के लिए किया जाएगा। बिल में सरकार ने राज की संपत्तियों में आने वाले सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों की सुरक्षा और देखभाल करने की बात भी कही है।
बेतिया राज का इतिहास
1907 में छपे डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर चंपारण में एल. एस.एस. ओ’ माली ने कई जगहों पर बेतिया राज का जिक्र करते हुए बेतिया राज परिवार को चम्पारण के सबसे प्रभावशाली जमींदारों का गढ़ बताया है।
गज़ेटियर के अनुसार, मुग़ल बादशाह अकबर के समय चंपारण में 99,424 एकड़ जमीन से 1,37,835 रुपये के राजस्व का आकलन किया गया था। एक सदी बाद सन् 1685 में औरंगज़ेब के शासनकाल में 2,10,150 रुपये की कर वसूली की गई।
बेतिया राज ने काश्तकारों को बहुत सस्ती लीज़ पर जमीन दी थी। चंपारण क्षेत्र का बड़ा हिस्सा ईस्ट इंडिया कंपनी की कानूनी संस्था ‘कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स’ के पास था। उस समय क्षेत्र में जमीनों से अधिक रैयतों की मांग थी। उस समय बेतिया राज, मधुबन एस्टेट और रामनगर एस्टेट तीन सबसे बड़े जमींदारों की जागीर थी।
एल. एस.एस. ओ’ माली ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि बेतिया राज 11,67,360 एकड़ में फैला हुआ था। 17वीं सदी के मध्य से बेतिया राज बाभन परिवार के जमींदारों द्वारा चलाया जा रहा था। इसी परिवार के उज्जैन सिंह के पुत्र गज सिंह को मुग़ल बादशाह शाहजहां ने राजा की उपाधि दी थी। 18वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के पतन के बाद बेतिया राज की छवि बाहरी प्रभुत्व न स्वीकारने वाले राजा के तौर पर बन चुकी थी। नाज़िमों की सेनाओं ने कभी भी बेतिया राज में प्रवेश नहीं किया था।
जब भेदा गया किला
सन् 1729 में बंगाल के नवाब अलीवर्दी खान ने बेतिया राज के खिलाफ एक अभियान का नेतृत्व किया और इसे अपने अधीन ले लिया। 1748 में खबर फैली कि बेतिया राज के राजा ने दरभंगा के अफगान विद्रोही प्रमुखों के साथ गठबंधन कर लिया और बंगाल के वायसराय के खिलाफ जंग में अफगानी विद्रोहियों के परिवारों को आश्रय दिया। इससे बेतिया राज को अंग्रेजी हुकुमत की नाराज़गी झेलनी पड़ी।
बंगाल आर्मी के चीफ कमांडर जॉन कैलाउद ने सन् 1759 में बेतिया राज के किले पर आक्रमण कर राजा को समर्पण करने के लिए मजबूर किया। सन् 1762 में मीर कासिम अली खान की अगुवाई में बेतिया राज के विरुद्ध एक बार फिर चढ़ाई की गई जिसमें मीर कासिम की सेना ने राज किले पर कब्ज़ा किया। इसके बाद सन् 1766 में ब्रिटिश सत्ता स्थापित करने के लिए सर रॉबर्ट बार्कर के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने बेतिया राज का रुख किया और इस तरह बेतिया राज अंग्रेजी हुकूमत के अधीन आ गया।
सन् 1763 में राजा ध्रुव सिंह के उत्तराधिकारी बने राजा युगलकिशोर सिंह ने ईस्ट इंडिया कंपनी का विरोध किया। उस समय बेतिया राज का राजस्व बकाये में चला गया। राजा युगलकिशोर ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी जिसमें वह हार गए और उन्हें भाग कर बुंदेलखंड जाना पड़ा। ईस्ट इंडिया कंपनी से संपत्ति का प्रबंधन न हो पाने पर कंपनी ने उन्हें वापस लौटने के लिए मना लिया और उन्हें मझौआ व सिमरौन परगना दे दिया। जिले का बाकी हिस्सा उनके चचेरे भाई श्री किशन सिंह और अवधूत सिंह को मिल गया।
बेतिया राज का विस्तार
सन् 1816 में मझौआ व सिमरौन के उत्तराधिकारी आनंद किशोर सिंह बने, जिन्हें लॉर्ड विलियम बोन्टिनेक ने ‘महाराजा बहादुर’ की उपाधि दी। आनंद किशोर सिंह के बाद उनके भाई नवल किशोर सिंह उत्तराधिकारी बने और 1855 में उनकी मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति उनके पुत्र राजेंद्र किशोर सिंह को मिली, जिन्होंने विद्रोह के दौरान अंग्रेजी सरकार को अपना समर्थन दिया था। इसके लिए उन्हें और उनके पुत्र हरेंद्र किशोर सिंह को “महाराजा बहादुर” की उपाधि दी गई।
राजा राजेंद्र किशोर सिंह के कार्यकाल (19वीं सदी के अंत) में बेतिया राज का काफी विस्तार हुआ। उनके कार्यकाल में बेतिया में तारघर बना और इलाहाबाद में बेतिया राज का एक शानदार घर खरीदा गया। सन् 1883 में उनकी मृत्यु के बाद हरेंद्र किशोर सिंह, बेतिया राज के आखिरी राजा बने। उनकी कोई संतान न होने के कारण सन् 1893 में उनके निधन के बाद बेतिया राज की सारी जिम्मेदारी उनकी पहली पत्नी ने उठाई।
3 वर्ष के बाद उनका निधन हो गया, जिसके बाद 1897 से बेतिया राज अंग्रेजी हुकूमत वाले कोर्ट ऑफ वार्ड्स के प्रबंधन में आ गया। राजा हरेंद्र किशोर सिंह की दूसरी पत्नी महारानी जानकी कुंवर तब से बेतिया राज की प्रभारी रहीं। उन्हें कई बार संपत्ति की दावेदारी के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ा। शिवहर एस्टेट के रामनंदन सिंह और गिरिजानंदन सिंह ने बारी बारी से बेतिया राज की संपत्ति पर दावा किया लेकिन प्रिवी काउंसिल ने उनके दावों को नामंज़ूर कर दिया। इसके बाद मधुबन स्टेट के बिशन प्रकाश सिंह ने भी इस पर दावा किया लेकिन वो भी विफल रहे।
महारानी जानकी कुंवर सिंह का 1954 में देहांत हो गया। उत्तर प्रदेश कोर्ट ऑफ वॉर्ड्स एक्ट 1912 को 15 सितंबर 1969 को संयुक्त प्रांत कोर्ट ऑफ वॉर्ड्स (निरसन) अधिनियम, 1967 के तहत समाप्त कर दिया गया। तब से बेतिया राज की संपत्ति की देखभाल राज्य सरकार का राजस्व विभाग करता रहा। हालांकि, बेतिया राज विधेयक आने तक सरकार के पास इस संपत्ति पर पूर्ण अधिकार नहीं था।
बेतिया राज कैसे बना चोरों के लिए स्वर्ग
सन् 1954 के बाद से लगातार हो रहे अतिक्रमण और चोरियों ने बेतिया राज की संपत्तियों को भारी नुकसान पहुंचाया और देखते देखते इसकी शान-ओ-शौकत कागज़ के पन्नों तक सीमित हो गई। 1990 में राजमहल की छत तोड़कर चोरी हुई। इसे स्थानीय लोग एशिया महाद्वीप की सबसे बड़ी चोरी बताते हैं। बताया जाता है कि तब बेतिया राज की प्रबंधन कमेटी ने थाने में 2 करोड़ रुपये की चोरी की शिकायत दर्ज कराई थी लेकिन स्थानीय लोगों का मानना है कि चोरी किये गये सामान की कीमत इससे कई गुना अधिक थी।
1996 में ऐतिहासिक कालीबाग मंदिर की मूर्ति चुरा ली गई और 2009 में राज कचहरी परिसर से सदियों पहले लंदन से मंगवाई गई बेतिया राज की ऐतिहासिक घड़ी की मशीन चोरी गई। उसी वर्ष राज के अभिलेखागार में भी चोरी हुई। इसके अलावा भी बेतिया राज परिसर में कई बार चोरियों की ख़बरें आईं।
बेतिया से ताल्लुक रखने वाले पत्रकार अफ़रोज़ आलम साहिल बेतिया राज पर लंबे समय से लिखते रहे हैं। उन्होंने ‘मैं मीडिया’ को बताया कि 90 के दशक में चोरी हुए जवाहरात और अन्य वस्तुओं की अनुमानित मौजूदा बाजार कीमत लगभग 100 करोड़ रुपये है। यहीं नहीं कुछ सालों पहले बेतिया राज के काली मंदिर से मोतियों की मालाएं गायब हो गईं जो काफी ऐतिहासिक थीं।
“बेतिया राज एक धरोहर था पूरे देश के लिए। बेतिया में जो हवेली है वो अब खंडहर बन चुकी है। अगर इसको बचाया गया होता तो यह आज पर्यटन स्थल होता। एक तो नई नस्ल इतिहास से रूबरू होती और दूसरी चीज़ यह है कि वो एक धरोहर था तो विदेशी पर्यटक भी आते। सरकार ने इसके लिए कुछ काम नहीं किया। बेतिया का नागरिक होने के नाते यह हमारे लिए एक दुखदाई बात है,” अफ़रोज़ बोले।
उन्होंने आगे बताया कि बेतिया राज के समय की अधिकतर चीज़ें अब ख़त्म हो चुकी हैं। बेतिया का मीना बाज़ार इलाके का सबसे पुराना बाज़ार है जिसे करीब साढ़े तीन सौ वर्ष पहले बेतिया राज द्वारा बनाया गया था। पुराने दिनों में यह बात मशहूर थी कि मीना बाज़ार में मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक का सभी सामान मिलता है।
ऐतिहासिक कालीबाग मंदिर
बेतिया राज की पुरानी धरोधर के तौर पर बेतिया की कालीबाग कॉलोनी में स्थित महारानी जानकी कुंवर अस्पताल आज भी मौजूद है। इसके अलावा कालीबाग मंदिर भी बेतिया राज के पुराने दिनों की याद दिलाता है। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसके अंदर एक सुरंग थी जो सीधे राजमहल से मिलती थी। इसी के ज़रिये बेतिया राज की महारानी राजमहल से मंदिर आकर पूजा करती थी। इस मंदिर की ख़ास बात यह है कि इसके परिसर में कई हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएं स्थित हैं और भारी संख्या में श्रद्धालु यहां पूजा अर्चना करने आते हैं।
करीब तीन सौ वर्ष पुराने इस मंदिर की 13 एकड़ जमीन है। मंदिर में काली माता की भव्य मूर्ति है और मंदिर के बीच में एक तालाब है। इस तालाब के बारे में कहा जाता है कि इसमें 7 कुएं हैं। सदियों पहले बना यह तालाब अभी तक नहीं सूखा है। मंदिर के बाहर उत्तर की तरफ बेतिया की महारानी द्वारा बनाया गया एक स्कूल है जो आज भी चल रहा है। इसे आज महारानी जानकी कुंवर विद्या मंदिर अकादमी के नाम से जाना जाता है।
बेतिया राज के जमींदारों के दौर में कई मंदिरों का निर्माण कराया गया। इनमें से 2 मंदिर अभी भी परिसर में मौजूद हैं। स्थानीय पत्रकार और लेखक शकील अहमद ने ‘मैं मीडिया’ से बातचीत में बेतिया राजमहल के बारे में बताया कि बेतिया राज परिसर में पूर्वी प्रवेश द्वार से राज में दाखिल हुआ जाता था और राजा या महारानी के आने पर नक्कारा बजाकर ऐलान किया जाता था। परिसर की दाईं और बाईं तरफ हनुमान जी और गणेश जी के मंदिर स्थित हैं।
परिसर में दो पुराने खंडहर हैं और उनके सामने बेतिया राज का शीशमहल है। शीशमहल से सटा हुआ दुर्गा मंदिर है जहां दुर्गा पूजा के दौरान भव्य कार्यक्रम होता है और मेला लगता है। ये प्रथा बेतिया राज के ज़माने से कायम है।
जंगी मस्जिद का इतिहास
बेतिया की जंगी मस्जिद शहर के नाज़नीन चौक के पूर्व में स्थित है। मस्जिद करीब 275 वर्ष पुरानी बताई जाती है। हाल के सालों में पुरानी मस्जिद का विस्तार कर इसे बहुमंज़िला बनाया गया है। शकील अहमद ने बताया कि जंगी मस्जिद सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधीन है जिसे 16 दिसंबर 1898 को वक्फ बोर्ड में पंजीकृत किया गया।
आगे उन्होंने बताया कि 18वीं सदी के मध्य में कुछ पठान घुड़सवारों की फ़ौज एक बड़े से सहन पर नमाज़ अदा करती थी। पास में कुछ महावत रहते थे जिन्होंने मस्जिद बनाने पर आपत्ति जताई। बेतिया राज के महाराज को यह खबर मिली तो उन्होंने सन् 1745 में मस्जिद के लिए पठानों को एक जमीन दे दी और वहीं महावतों को दुर्गाबाग में अलग से एक भूमि दी गई।
पठानों की फ़ौज में जंगी खान नामक एक कमांडर था जिसके नाम पर इस मस्जिद का नाम रखा गया। साल 2005 में स्थानीय लोगों के आपसी चंदे से जंगी मस्जिद के मुख्य दरवाज़े पर एक मीनार बनायी गयी। 115 फीट ऊँची यह मीनार बेतिया में प्राचीन मस्जिद और आधुनिक वास्तु कला के संगम का प्रतीक है।
बेतिया राज इमामबाड़ा
बेतिया राज इमामबाड़ा बिहार के सबसे पुराने इमामबाड़ों में से एक माना जाता है। प्रचलित है कि मुग़ल शासक शाहजहाँ के समय इसका निर्माण हुआ था। इमामबाड़े की स्थापना तिथि साफ़ नहीं है हालांकि पुराने इमामबाड़े के जर्जर होने पर 1925 में बेतिया राज द्वारा दोबारा इसका निर्माण कराया गया।
बेतिया में शिया नवाबों का भी दौर रहा। इस बारे में शकील अहमद बताते हैं, “अंग्रेजी हुकूमत के दौर में यहां नवाब रहते थे। तीन लोग थे जो सरकार को टैक्स चुकाते थे। इनमें रजिस्ट्रार साहब और एक मशहूर तवायफ नाज़नीन शामिल थीं। नाज़नीन के नाम पर यहां का नाज़नीन चौक है।”
सुन्नी वक्फ बोर्ड में आने के बाद बेतिया राज इमामबाड़े में शिया समुदाय के लोगों का आना जाना लगभग ख़त्म हो गया। बेतिया राज के इमामबाड़े में आज उर्दू गर्ल्स हाई स्कूल चलता है।
इस इमामबाड़े में मुहर्रम महीने (इस्लामिक कैलेंडर) के पहले दस दिन ताज़िया रखा जाता है। इस ताज़िये का इतिहास सदियों पुराना है। मुहर्रम के दिनों में इस ताज़िये पर लोग मन्नतें मांगते थे जिनमें हिन्दू धर्म के लोगों की संख्या अधिक थी।
इस बारे में शकील कहते हैं, “यहां मुहर्रम की 9 तारीख की रात में बहुत बड़ा कार्यक्रम होता है। हम जब से होश संभाले हैं, अधिकतर हिन्दू लोग ही आया करते थे। आज भी आते हैं लेकिन अब तादाद कम हो गई है। यहां के ताज़िये में खासकर मारवाड़ी लोगों की मन्नतें होती थीं, मुहर्रम में ये लोग दूध का शरबत बांटते थे।”
एक अध्याय का अंत
एक समय बेतिया राज 4,724 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ था जो कि बहरीन, सिंगापुर, लग्जमबर्ग और मॉरीशस जैसे देशों से भी बड़ा था। 19वीं सदी के अंत के करीब बेतिया राज के आखिरी राजा की मृत्यु के बाद राज की विरासतें सिमटती गईं और 1954 में महारानी जानकी कुंवर के निधन के बाद बेतिया राज का अंत हो गया।
बिहार राज्य के चंद बेहद प्रभावशाली राजघरानों में से एक बेतिया राज का इतिहास जितना विशाल है इसका पतन उतना ही चौंकाने वाला है। 20वीं सदी में बिना उत्तराधिकारी वाले बेतिया राज की चमक-दमक अक्षम प्रबंधन और कई बार हुई चोरियों की भेंट चढ़ गई।
बेतिया राज संपत्ति प्रबंधन विधेयक के बाद अतिक्रमण हटाने और राज की संपत्तियों को संरक्षित करने में बिहार सरकार कितना सफल होगी यह समय बताएगा। हालांकि, इन संपत्तियों पर पीढ़ियों से रह रहे परिवारों का क्या होगा, यह अब तक स्पष्ट नहीं है।
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