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बालाकृष्णन आयोग: मुस्लिम ‘दलित’ जातियां क्यों कर रही SC में शामिल करने की मांग?

भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने जांच आयोग अधिनियम 1952 की धारा 3 के अंतर्गत 6 अक्टूबर 2022 को तीन सदस्यीय जांच आयोग का गठन किया था। इस आयोग के अध्यक्ष पूर्व चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति केजी बालकृष्णन हैं और सदस्यों में पूर्व आईएएस डॉ रविंदर कुमार जैन और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की पूर्व सदस्य डॉ सुषमा यादव शामिल हैं।

Reported By Umesh Kumar Ray |
Published On :
balakrishnan commission why are muslim 'dalit' castes demanding inclusion in sc
पटना में बक्खो समुदाय की एक कॉलोनी / फोटो: शाह फैसल

“गाली के तौर पर इस्तेमाल होता है भटियारा। जब लोग आपस में लड़ते हैं, तो कहते हैं कि मारो इसको भटियारा है,” बिहार के रोहतास जिले के शिवसागर से आये कमरुद्दीन भटियारा कहते हैं।


वह शुक्रवार को पटना के ज्ञान भवन में जस्टिस केजी बालाकृष्णन आयोग की तरफ से आयोजित जन सुनवाई में अपनी बात कहने आये हुए थे। वह बताते हैं, “धोबी, नट, डोम जैसी पिछड़ी जातियों के लोग भी आपस में लड़ते हैं, तो अपने प्रतिद्वंद्वी के लिए भटियारा शब्द का इस्तेमाल गाली के तौर पर करते हैं। हमलोग बिल्कुल नीच हैं, तो हमें नीच श्रेणी का दर्जा दिया जाए।”

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नीच श्रेणी से उनका मतलब अनुसूचित जाति से है। फिलहाल यह जाति अतिपिछड़ा वर्ग में आती है।


शुक्रवार को ज्ञान भवन पहुंचने वाले कमरुद्दीन भटियारा अकेले नहीं थे। उनके साथ मुस्लिम धर्म में आने वाली लगभग दो दर्जन पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि पहुंचे थे, जिनमें भटियारा, नट, मुसलिम धोबी, हलालखोर, मेहतर, भंगी, बक्खो, मोची, भाट, डफाली, पमरिया, नालबंद, रंगरेज, हजाम, चीक, चूड़ीहार, पासी, मछुआरा आदि शामिल थे। इन जातियों के प्रतिनिधियों ने एक सुर में आयोग से कहा कि वे सामाजिक तौर पर बहिष्कार झेलते हैं और आर्थिक तथा शैक्षणिक तौर पर भी एकदम निचले पायदान पर खड़े हैं, इसलिए उन्हें अनुसूचित जाति में शामिल किया जाना चाहिए।

दरअसल, शुक्रवार को जस्टिस केजी बालाकृष्णन जांच आयोग ने जन सुनवाई की थी। इस जन सुनवाई में हिन्दू, सिख व बौद्ध धर्म को छोड़कर अन्य धर्मों में धर्मांतरित ऐसे जाति समूहों के प्रतिनिधियों को बुलाया गया था, जो सामाजिक भेदभाव झेल रहे हैं और जिन्हें लगता है कि उन्हें अनुसूचित जातियों में शामिल किया जाना चाहिए।

जस्टिस केजी बालाकृष्णन जांच आयोग

भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने जांच आयोग अधिनियम 1952 की धारा 3 के अंतर्गत 6 अक्टूबर 2022 को तीन सदस्यीय जांच आयोग का गठन किया था। इस आयोग के अध्यक्ष पूर्व चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति केजी बालाकृष्णन हैं और सदस्यों में पूर्व आईएएस डॉ रविंदर कुमार जैन और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की पूर्व सदस्य डॉ सुषमा यादव शामिल हैं।

जन सुनवाई के लिए जारी सार्वजनिक सूचना आयोग के गठन के औचित्य के बारे में बताती है। सूचना कहती है, “व्यक्तियों के कुछ समूह जो ऐतिहासिक रूप से सामाजिक असमानता, भेदभाव झेलते रहे हैं और जिसके फलस्वरूप वे पिछड़ गये, ऐसे व्यक्तियों को संविधान के अनुच्छेद 341 के अंतर्गत समय समय पर जारी किये जाने वाले राष्ट्रपति के आदेशों के तहत अनुसूचित जाति घोषित किया गया है।”

लेकिन कुछ संगठनों, खासकर मुस्लिमों में सामाजिक भेदभाव झेलने वाली जाति समूहों ने अनुसूचित जाति की मौजूदा परिभाषा में बदलाव की मांग की, जिसके मद्देनजर आयोग का गठन किया गया। आम सूचना कहती है, “कतिपय समूह ने अनुसूचित जाति की वर्तमान परिभाषा में संशोधन करने का मामला उठाया है और कहा है कि अनुसूचित जाति का दर्जा ऐसे नये व्यक्तियों को भी दिया जाए जो राष्ट्रपति के आदेशों के तहत अनुमति प्राप्त अन्य धर्मों से संबंधित हैं।”

लेकिन, कुछ अन्य समूहों ने इस पर आपत्ति जताई। “चूंकि मौजूदा अनुसूचित जातियों के कुछ प्रतिनिधियों ने ऐसे नये व्यक्तियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने पर आपत्ति जताई है, तो यह एक मौलिक और ऐतिहासिक रूप से जटिल सामाजिक तथा संवैधानिक प्रश्न है और निश्चित रूप से सार्वजनिक महत्व का मामला है। इसके महत्व संवेदनशीलता और संभावित प्रभाव को देखते हुए, इसकी परिभाषा में कोइ बदलाव, एक विस्तृत तथा विशिष्ट अध्ययन और सभी हितधारकों के साथ व्यापक विचार-विमर्श पर आधारित होना चाहिए,” आम सूचना कहती है।

मोटे तौर पर देखें, तो यह आयोग जांच करेगा कि वे दलित जो सिख, बौद्ध व हिन्दू धर्म को छोड़कर किन्ही अन्य धर्मों (इस्लाम व ईसाई) में धर्मांतरित हुए हैं, उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जा सकता है या नहीं। आयोग यह भी देखेगा कि इससे वर्तमान में जो लोग अनुसूचित जाति में शामिल हैं, उन पर किस तरह का प्रभाव पड़ सकता है।

संविधान में क्या था प्रावधान

दरअसल, वर्ष 1950 में जब देश में संविधान लागू हुआ, तो अनुच्छेद 341 में स्पष्ट तौर पर कहा गया कि सिर्फ हिन्दू धर्म के लोगों को ही अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाएगा। लेकिन बाद में इसमें संशोधन कर सिख और बौद्ध धर्म में धर्मांतरित होने वाले लोगों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा देने की इजाजत दी गई।

वर्ष 2007 में रंगनाथ मिश्रा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में उन दलितों को भी अनुसूचित जातियों में शामिल करने की सिफारिश की, जिन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म में धर्मांतरण करा लिया है। इसके अलावा इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं भी दायर की गईं। दलित मुस्लिम संगठनों ने भी दबाव बनाया, जिसके बाद केजी बालाकृष्णन जांच आयोग का गठन किया गया।

“धोबी का हाथ 18 इंच तक नापाक होता है”

कमरुद्दीन, भटियारा जाति का इतिहास शेरशाह सूरी से जोड़ते हुए बताते हैं कि भटियारा जाति के लोग पारंपरिक तौर पर घोड़ों के सेवादार होते हैं। “हमारा इतिहास शेरशाह सूरी से जुड़ा हुआ है। शेरशाह सूरी ने जीटी (ग्रांड ट्रंक) रोड बनाया तो हर नौ किलोमीटर पर भटियारा को ही बसाया, ताकि वे घोड़ों और घुड़सवारों की सेवा कर सकें लेकिन हमारे साथ भारी भेदभाव होता है,” उन्होंने कहा।

मुस्लिम धोबी परम्परागत तौर पर घर-घर जाकर गंदे कपड़े इकट्ठा करते हैं और उन्हें धोकर वापस कपड़ा मालिक के घर पहुंचाते हैं। इस जाति को केंद्र सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का और बिहार सरकार ने अतिपिछड़ा वर्ग (ईबीसी) का दर्जा दिया है। लेकिन, इस जाति के प्रतिनिधि के तौर पर आयोग के समक्ष अपनी बात रखने वाले इसराइल अली हवारी कहते हैं, “हमारे लोग शिक्षा में काफी नीचे हैं और सामाजिक भेदभाव भी झेलते हैं। शेख, पठान जैसी ऊंची जातियां मानती हैं कि धोबी का हाथ 18 इंच तक नापाक होता है।”

वह आगे कहते हैं, “हमारे पूर्वजों ने इस्लाम धर्म कबूल किया; हमारे पुरखे मुसलमान तो हो गये, लेकिन जाति और पेशा उनका पीछा नहीं छोड़ा। अपने ही समाज में हमें निम्नतर समझा जाता है और धार्मिक स्थलों पर भी हमसे भेदभाव किया जाता है।”

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बालाकृष्णन आयोग की ओर से आयोजित जन सुनवाई में जाते मुस्लिम जातियों के प्रतिनिधि / फोटो: उमेश कुमार राय

 

इसराइल अली हवारी विकास समिति (धोबी संगठन) के मीडिया प्रभारी व उप सचिव हैं।

वह कहते हैं, “1936 से 1950 तक हमलोग अनुसूचित जाति में गिने जाते थे, लेकिन 1950 में जब संविधान लागू हुआ, तो हमलोगों को अनुसूचित जाति से हटा दिया गया। हमलोग मुस्लिम धर्म को मानने वाले थे, इसलिए हमें हटा दिया गया, लेकिन सच तो यह है कि जिस तरह हिन्दू धर्म में अनुसूचित जातियों के लोग भेदभाव झेलते हैं, वहीं भेदभाव हमलोग भी झेलते हैं।”

इसराइल अली ने 7 मिनट तक आयोग के समक्ष अपनी बात रखी थी। “हमने आयोग से अपील की कि हमें पुन: अनुसूचित जाति में शामिल किया जाए। हमलोग हर तरह से दबे पिछड़े हैं। हमारी जाति का न कोई सांसद, विधायक है और न ही कोई उच्चाधिकारी जबकि केवल बिहार में हमारी आबादी 15 लाख के आसपास है,” वह कहते हैं। हालांकि बिहार सरकार द्वारा कराई गई जाति गणना के मुताबिक, मुस्लिम धोबी की आबादी लगभग 4 लाख है। इस संबंध में इसराइल अली बताते हैं, “गणना के दौरान बहुत सारे मुस्लिम धोबी ने खुद को सिर्फ धोबी कह दिया, तो गणना करने वालों ने उन्हें हिन्दू में शामिल कर लिया। इसी वजह से गणना में हमारी आबादी कम आई।”

बक्खो समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर जन सुनवाई में पहुंचे रियाजउद्दीन बक्खो ने कहा, “1994 से ही हमारी मांग है कि हमें अनुसूचित जाति में शामिल किया जाए। बक्खो एक घुमंतू जाति है और एक बड़ी आबादी के पास जमीन है न शिक्षा।”

उन्होंने कहा, “बिहार में हमारी आबादी लगभग 37 हजार है, लेकिन सरकारी नौकरी में कोई नहीं। अगर आरक्षण मिलेगा तो हमारा समाज आगे बढ़ पाएगा।”

जन सुनवाई का अनुभव साझा करते हुए उन्होंने कहा, “आयोग की एक महिला सदस्य ने हमसे पूछा कि हमलोग धर्मांतरित क्यों हुए, तो हमने कहा कि हजारों साल पहले हमारे पूर्वज ने किया था धर्म परिवर्तन। उन्होंने क्यों किया हमें नहीं पता।”

 

 

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Umesh Kumar Ray started journalism from Kolkata and later came to Patna via Delhi. He received a fellowship from National Foundation for India in 2019 to study the effects of climate change in the Sundarbans. He has bylines in Down To Earth, Newslaundry, The Wire, The Quint, Caravan, Newsclick, Outlook Magazine, Gaon Connection, Madhyamam, BOOMLive, India Spend, EPW etc.

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