यह डॉक्यूमेंट्री भारत के एक ऐसे मुस्लिम समुदाय की कहानी है, जो आज भी समाज की मुख्यधारा से काफी दूर है। बक्खो समुदाय घुमंतू जीवनशैली जीता है और अब भी पारंपरिक तौर-तरीकों पर निर्भर है। यह फिल्म उनके जीवन, संस्कृति, संघर्ष और हाशिए पर होने की स्थिति को दर्शाती है।
बक्खो समुदाय की महिलाएं ‘सोहर’ गाने की परंपरा निभाती हैं। बच्चे के जन्म या शादी जैसे खुशियों के मौकों पर वे घर-घर जाकर बधाई गीत गाती हैं, जिन्हें ‘सोहर’ कहा जाता है। इस पारंपरिक गायन के बदले लोग उन्हें इनाम के तौर पर कपड़े, जेवर या पैसे देते हैं। हर समूह का अपना अलग इलाका होता है, और इस परंपरा को बखूबी निभाया जाता है। यह न केवल उनकी सांस्कृतिक पहचान है, बल्कि जीविका का साधन भी।
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पुरुषों की बात करें तो वे मुख्यतः पुराने कपड़े और बर्तनों की फेरी करते हैं। यह कार्य पीढ़ियों से जारी है, और आज भी समुदाय का बड़ा हिस्सा इसी पर निर्भर करता है। हालिया बिहार जाति आधारित गणना 2022-23 के अनुसार, राज्य में बक्खो (मुस्लिम) समुदाय के 7,138 परिवार हैं, जिनकी कुल जनसंख्या 36,830 है। इनमें से 44.24% परिवार ऐसे हैं, जिनकी मासिक आमदनी ₹6000 से भी कम है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी यह समुदाय बेहद पीछे है। आंकड़ों के अनुसार, इस समुदाय से अब तक कोई भी मेडिकल ग्रेजुएट नहीं निकला है। केवल एक इंजीनियरिंग ग्रेजुएट और 97 अन्य ग्रेजुएट दर्ज हैं। रोजगार की बात करें तो 224 लोग बिहार के अन्य जिलों में, 315 लोग दूसरे राज्यों में और 3 लोग विदेशों में काम कर रहे हैं। सरकारी नौकरी में केवल 40 लोग हैं। लेकिन बक्खो समुदाय के लोग इन आकड़ों से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार स्थिति और भी दयनीय है।
वर्तमान में बक्खो मुस्लिम समुदाय को बिहार में अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) के तहत रखा गया है। हालांकि, इस समुदाय की मांग है कि उन्हें अनुसूचित जनजाति (ST) की श्रेणी में शामिल किया जाए, ताकि उन्हें शिक्षा, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा में बेहतर अवसर मिल सके। यह डॉक्यूमेंट्री न सिर्फ उनके जीवन की एक झलक देती है, बल्कि इस मांग और उसके पीछे के तर्क को भी सामने लाती है।
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