किशनगंज के टेढ़ागाछ प्रखंड स्थित बैगना पंचायत कभी बैगना एस्टेट के रूप में प्रसिद्ध था। मान्यता है कि मध्य प्रदेश के उज्जैन से कुछ लोग पास के बैसा गांव आए और उनमें से कुछ बैगना में आकर बस गए।
बैगना पहुंचने पर हमें एक मस्जिद दिखी, जिसे बैगना जामा मस्जिद के नाम से जाना जाता है। मस्जिद के पास मोहम्मद शमीम अख़्तर मिले, जो एस्टेट के जमींदारों के वंशज हैं। शमीम अख़्तर ने इतिहास विषय में एम.ए. की पढ़ाई की है और वह बैगना एस्टेट के इतिहास पर पुस्तक लिख रहे हैं। उन्होंने ‘मैं मीडिया’ से बताया कि बैसा गांव में उनके पूर्वज कंगाली मियाँ के दो लड़के मुंशी खैरूल्लाह और मुंशी मेहरूल्लाह थे।
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मुंशी मेहरूल्लाह बैगना आ कर बस गए जबकि मुंशी खैरूल्लाह बैसा में ही रहे। उस समय बैगना सुनसान इलाका था धीरे धीरे गांव बसा और फिर अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बैगना एस्टेट अस्तित्व में आया। पुरानी बस्ती में मौजूद बैगना जामा मस्जिद 1856 ई. में बन कर तैयार हुई। इसकी बुनियाद जमींदार मोहम्मद अली और वाहिद अली ने रखी थी।
कैसे हुआ बैगना एस्टेट का उदय
मुंशी मेहरूल्लाह के परपोते मोहम्मद अली के ज़माने में बैगना गांव एस्टेट में तब्दील हुआ। मोहम्मद अली के पोते मोहम्मद अहसन मियाँ बैगना एस्टेट के सबसे प्रभावशाली जमींदार हुए। वह देश की आज़ादी से पहले अंग्रेजी शासनकाल में संसद के सदस्य भी रहे। मोहम्मद अहसन मियाँ ने चार शादियां की थीं उनमें से एक पत्नी शमीम अख़्तर की फूफी थीं।
अहसन के भतीजे शमीम अख़्तर बताते हैं, “अंग्रेजी संसद का सदस्य बनने के लिए उस ज़माने में मतदान तो नहीं होता था, लाॅटरी निकाली जाती थी। दावेदारों के बीच लाॅटरी व्यवस्था में जिसका नाम निकल आया वह सदन का सदस्य बनता था। बैगना के मोहम्मद अहसन लाॅटरी में जीत कर संसद के सदस्य बने। उनका एक सिग्नेचर भी है मेरे पास।”
1931 में प्रकाशित हुई किताब ‘अहसनुत तवारीख़’ में बैगना एस्टेट के जमींदारों और उनके परिवार वालों का जिक्र किया गया है। शैख़ मेहरूल्लाह के तीन बेटों में से एक झबरू मियाँ के लोग पुरानी बस्ती में बस गए और उनके भाई रोशन अली का परिवार नई बस्ती चला गया। इन दो भाइयों के परिवारों से बैगना गांव बसा जो बाद में एस्टेट बना।
“यहां डेढ़ सौ साल जमींदारी चली। एस्टेट के पास लगभग दो हज़ार एकड़ ज़मीन थी। रैय्यत की जमीन से जो रेवेन्यू आता था, उसका 11% जमींदार रखते थे और बाकी 89% अंग्रेज़ को देते थे। खगड़ा नवाब और राजा पीसी लाल इनसे सीनियर हैं। बैगना एस्टेट के लोग उन्हीं को पैसा जमा करते थे,” शमीम अख्तर ने बताया।
बैगना एस्टेट में शिक्षा का सुनहरा दौर
बैगना एस्टेट में दशकों पहले शिक्षा का बहुत चलन था। यहां धार्मिक और सांसारिक शिक्षा दी जाती थी। एस्टेट के खर्चे पर एक मदरसा चलता था जिसमें बिहार के विभिन्य शहरों से शिक्षक आकर बच्चों को तालीम देते थे। कहा जाता है कि बैगना अपने फ़ारसी विद्वानों के लिए मशहूर था।
1924 में बैगना में हाईस्कूल बना और 1954 में यहां के ऐतिहासिक मदरसा को संबद्धता (एफिलिएशन) मिली। संबद्धता मिलने से सालों पहले इस मदरसे ने अपना स्वर्णिम काल जी लिया था।
बैगना निवासी शमीम अख़्तर की मानें तो एस्टेट में एक लाइब्रेरी हुआ करती थी जहां सैकड़ों की तादाद में पुस्तकें थीं। जमींदारी खत्म हुई तो बैगना में पढ़ाई लिखाई कम हो गई। 70 के दशक में अधिकतर किताबें बहादुरगंज के नेहरू कॉलेज में दे दी गईं।
“1973 में कई बोरियां किताब नेहरू कॉलेज में भेज दी गईं। बचपन में हम यहाँ कई किताबें पढ़ते थे। अच्छा हुआ किताबें नेहरू कॉलेज में दे दी गईं वरना यहां सब ख़त्म हो जातीं,” अपनी डायरी का पन्ना पलटते हुए शमीम अख़्तर बोले।
“तालीम के एतेबार से उस ज़माने में बैगना और पलासमनी पूरे जिले में आला था। हमारे गांव में आलिमों (विद्वान) की कमी नहीं थी। लेकिन उस समय लोग मुश्किल से 7 क्लास, 8 क्लास पढ़कर नौकरी करते थे। बैगना के मदरसे में हालांकि काफी उच्च स्तरीय पढ़ाई होती थी। यहां मुजफ्फरपुर और दरभंगा के शिक्षक आ कर रहते थे और पढ़ाते थे,” शमीम अख़्तर ने कहा।
वह आगे कहते हैं, “एक मस्जिद टंगटंगी में है वह तो मुगलिया दौर की मस्जिद है, वहां भी हमारे खानदान के लोग रहते थे। अंग्रेज़ों के ज़माने में ‘मीर’ का खिताब मिलता था। जैसा हम सुने हैं, मीर मस्जिद लगभग चार सौ वर्ष पुरानी है। वहां राजा या नवाब के लोग टैक्स वसूलते थे। वही लोग मस्जिद बनाए।”
मीर मस्जिद का इतिहास
बैगना जामा मस्जिद से थोड़े फ़ासले पर स्थित मीर मस्जिद सदियों पुरानी है। बताया जाता है कि बहादुरगंज प्रखंड अंतर्गत निसन्द्रा पंचयात के टंगटंगी गांव की यह मस्जिद मुगलों के दौर में बनाई गई थी। मस्जिद मुख्य सड़क से अलग थलग खेतों के बीच स्थित है। तीन गुंबद वाली इस मस्जिद की बनावट सीमांचल की अन्य ऐतिहासिक मस्जिदों जैसी दिखती है।
कुछ सालों पहले गांव के लोगों ने मस्जिद की चारदीवारी, सेहन-ए-मस्जिद और मुख्य द्वार का निर्माण कराया। मीर मस्जिद आसपास के क्षेत्र में काफी मशहूर है। ऐसी मान्यता है कि इस मस्जिद में मांगी गई दुआएं कबूल होती हैं इसलिए दूर दूर से लोग यहां नमाज़ पढ़कर दुआएं और मन्नतें मांगते हैं।
टंगटंगी निवासी मोहम्मद इस्लामुद्दीन मीर मस्जिद की देखरेख करते हैं और रोज़ाना पांच वक्त की अज़ान देते हैं। उन्होंने बताया कि इस मस्जिद में जुमा और ईद की ‘नमाज़ ए बाजमात’ अदा की जाती है। ईद और बकरीद की नमाज़ों में चार गांवों के लोग मस्जिद में नमाज़ अदा करने आते हैं। मस्जिद कब बनाई गई थी इसकी जानकारी गांव में किसी को नहीं है।
“कोई नहीं बता सकता है यह मस्जिद कब बनी है। हमलोग सिर्फ इसका नाम जानते हैं कि यह मीर मस्जिद है। यहां पहले एक भी घर नहीं था, यह इलाका मस्जिद की वजह से बसा है। यहां बहुत दूर दूर से आदमी आकर मन्नत करता है और उसका पूरा होता है। मीर मस्जिद की चर्चा बहुत दूर दूर तक है, जुमा के दिन बहुत दूर से लोग आता है,” इस्लामुद्दीन ने कहा।
बैगना एस्टेट से जुड़ा सुहिया दुर्गा मंदिर का इतिहास
टेढ़ागाछ प्रखंड की चिल्हनियाँ पंचायत स्थित सुहिया दुर्गा मंदिर गंगा जमुना तहज़ीब का जीता जागता उदाहरण है। बैगना एस्टेट के जमींदार मोहम्मद अहसन मियाँ ने सुहिया में दुर्गा मंदिर के लिए जमीन दान की थी। 1940 के दशक में हुए मंदिर के निर्माण में उन्होंने बड़ी भूमिका भी निभाई थी।
सुहिया दुर्गा मंदिर पहुंच कर हमने वहां के लोगों से मंदिर का इतिहास जानने का प्रयास किया। स्थानीय लोगों ने बताया कि करीब 70 वर्ष पहले इस दुर्गा मंदिर की स्थापना हुई थी। सुहिया के निकट रतुआ नदी बहती है। बरसात के मौसम में पानी उफान पर रहता है जिससे गांव सालों से कटाव का शिकार है। कटाव के कारण सुहिया दुर्गा मंदिर को कई बार पुनर्स्थापित किया जा चुका है।
सुहिया दुर्गा मंदिर कमेटी से जुड़े चमन लाल शाह कहते है ,”हमलोग का जन्म भी नहीं हुआ था, उस समय इस मंदिर की स्थापना हुई थी। दुर्गा पूजा के दौरान भयंकर भीड़ होती है, दूरदराज़ से श्रद्धालु आते हैं। पहले मंदिर फूंस की थी, नदी कई बार मंदिर काट दिया, ये नौवीं बार यहां पर बना है। बहुत बड़ा बगीचा था करीब 200 पेड़ था। सब नदी में विलीन हो गया।”
“पहले यहां मियाँ साहब का कचहरी था और यहां एक दुकान थी। इसी के पास दुर्गा मंदिर की स्थापना की गई, जब हमलोग छोटे थे तब हुआ था। 60-70 साल से ज्यादा हो गया होगा। कई बार मंदिर टूटा, कई बार नदी काटा, इस पार – उस पार होते रहा,” सुहिया निवासी बेनी माधव सिंह ने कहा।
सुहिया दुर्गा मंदिर अपने दुर्गा महोत्सव के लिए क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध है। अष्टमी, नवमी और दशमी को सुहिया हाट में भव्य मेला का आयोजन किया जाता है।
“सुहिया हाट बहुत पुराना है, यहां के दुर्गा मंदिर में दुर्गा पूजा महोत्सव धूमधाम से होता है,” बेनी माधव सिंह कहते हैं। वो आगे कहते हैं, “मेला बाज़ार लगता है, लोग दूर दूर से आते हैं। पहले हम नाटक भी करते थे, अभी जागरण होता है और कई कार्यक्रम होते हैं। आज़ादी के पहले से यह चला आ रहा है।”
स्वतंत्रता के बाद बैगना एस्टेट का पतन
कहा जाता है कि बैगना एस्टेट की जमींदारी नेपाल के कुछ भाग तक फैली थी। यहां के जमींदार हर वर्ष एक बड़ी रकम अंग्रेजी हुकूमत को देते थे। शमीम अख़्तर के अनुसार, आज़ादी के बाद बैगना एस्टेट के जमींदारों ने काफी जमीनें खो दीं। अक्सर जब सर्वे के लिए कानूनी पदाधिकारी और अमीन आते थे, तो एस्टेट के लोग गैर हाज़िर रहते थे और परिणामस्वरूप सैकड़ों एकड़ जमीने एस्टेट के हाथ से निकल गई।
इतिहास में स्नातकोत्तर शमीम अख़्तर ने बैगना एस्टेट के इतिहास से जुड़ी कई बातें बताईं। उन्होंने एस्टेट की तरफ से टैक्स वसूली करने के लिए चयनित लोगों के बारे में कहा कि ये लोग गरीब किसानों को कर वसूलने के नाम पर परेशान करते थे।
“जमींदार तो यहां बैठे रहते थे लेकिन उनके लोग रियाया पर अत्याचार करते थे। कोई केस, मामला हुआ तो मार मार के खत्म ही कर देते थे। दारोगा इधर से जाता था तो वह खड़ा रहता था, बैठ नहीं पाता था। फिर 1947 में जमींदारी खत्म हुई, तो पहले जिसके पास 1,000 एकड़ जमीन थी, आज नहीं है। यहां दरभंगा के सिपाही रहते थे। बचपन में सिपाहियों को हमने अपनी आंखों से देखा है,” शमीम अख्तर कहते हैं।
किशनगंज मुख्यालय से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बैगना में कभी एस्टेट की चकाचौंध हुआ करती थी। बैगना एस्टेट के जमींदारों की रिश्तेदारी डांगी, देसियाटोली एस्टेट, पदमपुर एस्टेट, अलता एस्टेट और गुआगांव एस्टेट वालों से भी थी। जमींदारों के पास सैकड़ों एकड़ में जमीने थीं लेकिन देश की स्वतंत्रता के बाद बहुत तेज़ी से एस्टेट की हालत बदली और जमींदारी खत्म होने के बाद एस्टेट में तेज़ी से गरीबी फैल गई।
इस बारे में शमीम अख़्तर कहते हैं, “यहां गरीबी बहुत थी, लोग तीन-तीन, चार-चार दिन भूखे रह जाते थे। जब हम छोटे थे हमारे यहां लोग आकर धान, चावल लेकर जाते थे। गरीबी हावी रही और एस्टेट में अधिकतर लोग अपने बच्चों को उच्च शिक्षा नहीं दे पाए। एस्टेट में कुछ ही लोग अच्छी शिक्षा हासिल कर सकें। उन्होंने बची हुई कुछ जमीनें बेचकर अपने बच्चों को पढ़ाया।”
कभी विद्वानों का केंद्र रहा बैगना एस्टेट का इतिहास आज चंद एक किताबों के अलावा गम हो चुका है। जमींदारी प्रथा समाप्त होते ही एस्टेट के संसाधन कम होते रहे और इसका सबसे अधिक नुकसान एस्टेट की शिक्षा व्यवस्था को उठाना पड़ा। करीब 5 दशक पहले एस्टेट की लाइब्रेरी में रखी पुस्तकों के साथ साथ पौराणिक शैक्षणिक संस्कृति भी बैगना से विदा हो गईं।
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