अररिया जिले में पिछले साल एक दिसंबर को सात साल की एक बच्ची से बलात्कार के मामले में गिरफ्तारी के महज पांच दिनों के भीतर अररिया के पोक्सो कोर्ट द्वारा अभियुक्त को दोषी करार देकर फांसी की सजा सुनाये जाने के मामले में पटना हाईकोर्ट ने पोक्सो कोर्ट पर तीखी टिप्पणी की है।
इतना ही नहीं, पटना हाईकोर्ट ने कोर्ट के फैसले को प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ बताकर आदेश को रद्द कर दिया है और स्थानीय अदालत से ट्रायल के स्तर से दोबारा सुनवाई करने को कहा है।
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हाइकोर्ट ने अपने आदेश में सिलसिलेवार तरीके से बताया है कि किस तरह इस मामले की सुनवाई में स्थानीय अदालत ने नियमों को सिरे से दरकिनार कर आरोपित को अपनी बेगुनाही साबित करने का पर्याप्त मौका नहीं दिया, जो न्याय के सिद्धांत के बिल्कुल खिलाफ है।
क्या था पूरा मामला
अररिया जिले के भरगामा थाना क्षेत्र की बीरनगर पश्चिम पंचायत की रहने वाली सात वर्षीया निशा (बदला हुआ नाम) 1 दिसंबर 2021 को अपने घर के पास खेल रही थी। उसी वक्त पास ही ट्रैक्टर से खेत जोत रहा मो. मेजर नाम का आदमी आया और शौच करने जाने के लिए बच्ची से पानी मांगा था।
आरोप है कि जब वह बोतल में पानी लेकर मेजर के पास पहुंची, तो उसने उसे जबरदस्ती पकड़ लिया और अज्ञात जगह पर ले जाकर उससे रेप किया।
बच्ची के मुताबिक, जब वह पानी लेकर गई, तो मेजर ने उसे अपने साथ चलने को कहा। जब वह जाने के लिए तैयार नहीं हुई, तो पिस्तौल दिखाकर उसे अगवा कर लिया और अज्ञात जगह ले गया।
पीड़िता ने मैं मीडिया के साथ बातचीत में बताया था कि मो. मेजर ने उसे बेरहमी से पीटा था और ज्यादती की थी, जिससे उसके निजी अंग से खून निकलने लगा था। इतना ही नहीं, मेजर ने कथित तौर पर घटना के बारे में किसी को नहीं बताने की भी धमकी दी थी।
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आरोप था कि मो. मेजर इलाके में दबंगई करता था और हिन्दू व मुसलमान दोनों समुदाय के लोगों को तंग किया करता था। बच्ची से बलात्कार की घटना के बाद दोनों समुदाय के लोगों ने पुलिस पर दबाव बनाया कि मो. मेजर को तुरंत गिरफ्तार कर उसे कड़ी सजा दिलाई जाए।
घटना को लेकर पीड़िता की मां ने अररिया महिला थाने में 2 दिसंबर 2021 को शिकायत दर्ज कराई थी। महिला थाने की पुलिस सब इंस्पेक्टर अनिमा कुमारी और थाने की तत्कालीन एसएचओ रीता कुमारी ने संयुक्त रूप से मामले की छानबीन शुरू की। स्थानीय दबावों के चलते पुलिस ने छापेमारी अभियान चलाकर मो. मेजर को गिरफ्तार किया।
घटना के तुरंत बाद पुलिस ने बच्ची को मेडिकल जांच के लिए भेजा। पुलिस ने प्रत्यक्षदर्शियों के बयान भी दर्ज किये और घटनास्थल की जांच की। बच्ची के कपड़ों की जांच कराई गई और साथ ही गिरफ्तार आरोपित के खून के नमूने भी जांच के लिए भागलपुर फॉरेसिंग लेबोरेटरी भेजे गये।
20 जनवरी 2022 को आरोपित के खिलाफ अररिया पोक्सो कोर्ट (ट्रायल कोर्ट) में पुलिस की ओर से चार्जशीट दाखिल की गई। स्थानीय अदालत ने 20 जनवरी को ही मामले का संज्ञान लिया और जांच के लिए सभी दस्तावेज कोर्ट में जमा करने का आदेश दिया। 22 जनवरी को आरोपित पर आरोप तय कर दिये गये।
आरोपित ने खुद को बेगुनाह बताते हुए ट्रायल की मांग की। इसी दिन आरोपित का भी बयान दर्ज किया गया। आरोपित ने फिर एक बार बेगुनाही का दावा करते हुए सबूत पेश करने की इजाजत मांगी। कोर्ट ने सुनवाई की अगली तारीख 25 जनवरी तय की। आरोपित की तरफ से सबूत जुटाने के लिए सुनवाई को एक हफ्ते के लिए मुल्तवी करने की गुजारिश की, लेकिन कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया।
25 जनवरी को कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनीं और आरोपित मेजर को दोषी करार दे दिया। सजा की घोषणा के लिए 27 जनवरी की तारीख तय की गई और तयशुदा दिन स्पेशल पोक्सो जज शशिकांत राय ने मो. मेजर को बच्ची से दुष्कर्म के लिए इंडियन पीनल कोड की धारा 376एबी के तहत फांसी की सजा सुनाई। चूंकि पीड़िता अनुसूचित जाति से आती है, इसलिए कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट के तहत भी उसे दोषी पाया और उसे आजीवन कारावास व 10 हजार रुपए जुर्माना की सजा का ऐलान किया।
रिकॉर्ड पांच दिन में ही चार्जशीट दाखिल करने, आरोप तय होने और सजा सुनाये जाने पर देशभर में इस केस की खूब चर्चा हुई थी। लोगों ने इस त्वरित फैसले की जमकर तारीफ की थी और भारतीय न्याय व्यवस्था के इतिहास में इसे मील का पत्थर बताया था।
पोक्सो कोर्ट की सुनवाई में गंभीर लापरवाही
स्थानीय कोर्ट के आदेश के खिलाफ अभियुक्त मो. मेजर ने पटना हाईकोर्ट में एक अपील दाखिल की थी।
इस अपील पर सुनवाइयों के दौरान सरकार का पक्ष रखने के लिए सरकारी अभियोजक मौजूद नहीं रहते थे, तो 4 जुलाई 2022 को पटना हाईकोर्ट ने वकील प्रिंस कुमार मिश्रा को एमिकस कूरी (किसी पक्ष की तरफ से वकील नहीं रहने की सूरत में कोर्ट किसी दूसरे वकील को उस पक्ष का प्रतिनिधित्व करने के लिए नियुक्त करता है, जिसका खर्च सरकार वहन करती है) नियुक्त कर दिया और सुनवाई की गई।
मो. मेजर के वकील व एमिकस कूरी की दलीलें सुनने और ट्रायल कोर्ट (अररिया पोक्सो कोर्ट) की सुनवाइयों के रिकॉर्ड का बारीकी से अध्ययन करने के बाद जज ए. एम. बदर और जज राजेश कुमार वर्मा ने अपने आदेश में कहा, “स्पेशल जज (पोक्सो) अररिया द्वारा पारित आदेश को रद्द किया जाता है।”
कोर्ट ने आगे कहा, “हम यह स्पष्ट करते हैं कि हमने केस के मेरिट पर कोई विचार व्यक्त नहीं किया और हमारा अवलोकन यहीं तक सीमित है कि इस केस में आरोपित को निष्पक्ष सुनवाई का अवसर नहीं मिला। चूंकि, सुनवाई कानूनी रूप से प्रभावी नहीं है, इसलिए मामले को आरोप तय करने से पहले के स्तर से दोबारा सुनवाई करने के लिए ट्रायल कोर्ट के पास भेजा जाता है।”
कोर्ट ने सीआरपीसी (कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर) की कई धाराओं का हवाला देकर बताया है कि किस तरह ट्रायल कोर्ट ने हड़बड़ी में और आरोपित को अपने बचाव में दलीलें रखने का मौका दिये बगैर फैसला सुनाया है।
22 जनवरी को आरोपित पर कोर्ट ने आरोप तय किये थे। इस दिन की सुनवाई के रिकॉर्ड बताते हैं कि आरोपित को चार्जशीट पढ़ने का मौका नहीं दिया गया और सबकुछ बेहद हड़बड़ी में किया गया। कोर्ट कहता है, “22 जनवरी को जो हुआ वह कानूनी प्रक्रिया का घोर उल्लंघन है और कोर्ट का रवैया दिखाता है कि वह आरोपित को लेकर पक्षपाती था।”
“ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड यह भी बताते हैं कि सुनवाई शुरू होने से लेकर सजा की घोषणा होने तक सिर्फ एक बार ही आरोपित को उसके वकील से मिलने का मौका मिला और आरोपित के वकील को सांस लेने तक का वक्त नहीं दिया गया,” पटना हाईकोर्ट ने अपने आदेश में लिखा।
इतना ही नहीं, अदालत ने यह भी पाया कि ट्रायल कोर्ट की सुनवाइयों से पता चलता है कि आरोपित को निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार से वंचित किया गया और कहा, “चार्जशीट जमा होने के बाद सुनवाई शुरू होने से लेकर आरोप तय करने तक की प्रक्रिया काफी वक्त लेती है अतः जितने कम वक्त में ट्रायल कोर्ट ने आरोप तय कर दिये, वह नामुमकिन है। इससे साफ होता है कि ट्रायल कोर्ट ने कानून की अनदेखी कर फैसला दिया।”
सीआरपीसी की धारा 273 कहती है कि सबूत को दर्ज करने के दौरान आरोपित का मौजूद रहना अनिवार्य होता है, लेकिन इस मामले में आरोपित की गैरमौजूदगी में ही सबूत दर्ज किये गये जो सीआरपीसी की धारा का उल्लंघन है, ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड बताते हैं।
“इस मामले में पीड़िता की मेडिकल जांच करने वाले चिकित्सक मेडिकल अफसर डॉ शिला कुंवर और पीड़िता की तरफ से दो प्रत्यक्षदर्शियों से अरोपित के वकील को जवाबी पूछताछ नहीं करने दिया गया।”
गुजरात के बेक्ट बेकरी कांड का जिक्र
दोनों पक्षों के तर्कों और कोर्ट के फैसले में पूर्व के कई केसों का संदर्भ पेश किया गया है। इनमें गुजरात के बड़ोदरा का बेस्ट बेकरी केस भी है।
1 मार्च 2002 को शेख परिवार की दुकान बेस्ट बेकरी पर दंगाई भीड़ ने हमला कर दिया था और 11 मुस्लिम और बेकरी में काम करने वाले तीन हिन्दू कर्मचारियों की हत्या कर दी गई थी। इस मामले में 21 लोगों को आरोपित बनाया गया था, लेकिन फास्ट ट्रैक कोर्ट ने सबूत के अभाव में सभी आरोपितों को बरी कर दिया था।
‘स्थानीय लोगों में निराशा’
पटना हाईकोर्ट के फैसले को लेकर स्थानीय समाजसेवी व पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करने वाले असलम बेग ने बताया कि इस फैसले से स्थानीय लोगों में निराशा है क्योंकि अगर इस तरह वह बच निकलेगा, तो उसके हौसले बुलंद हो जाएंगे और वह दोबारा लोगों को तंग करेगा।
हालांकि उन्होंने उम्मीद जताई कि दोबारा सुनवाई होगी, तब भी उसे फांसी की सजा मिलेगी क्योंकि उसके खिलाफ मजबूत सबूत है।
अररिया पोक्सो कोर्ट में पीड़िता की तरफ से मामले दलीलें देने वाले सरकारी अभियोजक श्यामलाल यादव ने कहा, “पटना हाईकोर्ट ने केस के मेरिट पर कुछ नहीं कहा है। मेजर के खिलाफ पर्याप्त सबूत है और मुझे नहीं लगता है कि दोबारा सुनवाई में भी वह बच जाएगा। दोबारा सुनवाई के बाद सजा क्या होगी और कितनी होगी, उसमें बदलाव हो सकता है, लेकिन वह निर्दोष साबित नहीं हो पाएगा।”
उन्होंने इस बात से भी इनकार किया कि हड़बड़ी में सजा सुनाई गई थी। “हड़बड़ी में इसलिए लग रहा है क्योंकि सिर्फ पांच दिनों में प्रक्रिया पूरी कर ली गई, लेकिन सुनवाई में किसी तरह की हड़बड़ी नहीं हुई है। सभी पक्षों को पर्याप्त मौका दिया गया है। सुनवाई की वीडिया रिकॉर्डिंग भी हुई है,” श्यामलाल यादव ने कहा।
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