साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल (यूनाइटेड)-जदयू को महज 44 सीटें मिली थीं और वह खिसक कर तीसरे नंबर पर आ गया था, जिसके चलते एनडीए गठबंधन में पार्टी की स्थिति कमजोर हो गई थी। फिर अगस्त 2022 में नीतीश कुमार ने अपना गठबंधन बदल लिया और एनडीए को छोड़ महागठबंधन में शामिल हो गये। नये गठबंधन में डेढ़ साल भी नहीं बीता था कि वह दोबारा एनडीए में चले गये और नौवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
एनडीए गठबंधन में उनकी कमजोर स्थिति और फिर बार बार उनके गठबंधन बदलने के चलते राजनीतिक हलकों में ये कयास लगाये जा रहे थे कि 2024 के आम चुनाव में जदयू को भारी नुकसान होगा और जदयू सियासी तौर पर काफी कमजोर हो जाएगा। अखबारी रिपोर्टिंग से लेकर एग्जिट पोल तक में जदयू के कमजोर हो जाने की बातें कही जा रही थीं। सूत्रों की मानें तो जदयू के नेता खुद भी ये मान रहे थे कि पार्टी कमजोर हो चुकी है और अगर वह इंडिया गठबंधन के साथ चुनाव लड़ेगी, तो और कमजोर हो जाएगी। माना जाता है कि इसी वजह से इंडिया गठबंधन से नाता तोड़ कर नीतीश कुमार एनडीए के साथ चले गये थे।
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मगर चुनाव परिणाम ने सारे कयासों पर पूर्णविराम लगा दिया। जदयू ने 16 में से 12 सीटों पर जीत दर्ज की और किंगमेकर के तौर पर उभरा। हालांकि, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले उन्हें चार सीटों का नुकसान हुआ है, लेकिन भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर कम सीटें मिलने के कारण जदयू की भूमिका बढ़ गई है।
जदयू का वोट शेयर
जदयू सुप्रीमो नीतीश कुमार, कुर्मी जाति से ताल्लुक रखते हैं और बिहार में कुर्मी जाति की आबादी लगभग 2.87 प्रतिशत है, जो संख्याबल में एक प्रभावशाली समूह नहीं है। मगर, इसके बावजूद बिहार में पिछले लगभग दो दशकों से जदयू एक प्रभावशाली पॉलिटिकल फोर्स बना हुआ है। यही वजह है कि बार बार गठबंधन बदलने की आदत के बावजूद भाजपा और राजद, दोनों नीतीश कुमार के साथ गठबंधन करने को सदा तैयार रहते हैं।
जदयू के पास 16 से 20 प्रतिशत वोट बैंक है, जो वर्ष 2005 में पहली बार नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने से लेकर अब तक कमोबेश कायम है। हालांकि, दिलचस्प बात ये भी है कि जदयू जब भाजपा के साथ रहता है तो उसका वोट शेयर बढ़ता है, मगर राजद के साथ आने पर वोट शेयर में गिरावट आती है। ये बताता है कि भाजपा वोटरों के लिए नीतीश कुमार स्वीकार्य हैं, लेकिन जदयू वोटरों को राजद स्वीकार्य नहीं है।
आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2005 के अक्टूबर में हुए विधानसभा चुनाव में जदयू को 20.46 प्रतिशत वोट मिले थे, जो वर्ष 2010 के चुनाव में बढ़कर 22.58 प्रतिशत पर पहुंच गये थे। इन दोनों चुनावों के दौरान जदयू और भाजपा साथ थे। वर्ष 2015 का विधानसभा चुनाव जदयू ने राजद-नीत महागठबंधन के साथ मिलकर लड़ा था, तो जदयू को 5.8 प्रतिशत वोटों का नुकसान हुआ था और पार्टी 16.8 प्रतिशत वोट ही ला पाई थी। इसके बाद 2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू को लगभग डेढ़ प्रतिशत वोटों का नुकसान हुआ था, लेकिन इसका कारण भाजपा का ‘भितरघात’ और लोक जनशक्ति पार्टी (जो अब दो हिस्सों में बंट चुकी है) का जदयू के खिलाफ चुनाव लड़ना था।
वहीं, लोकसभा चुनावों की बात करें, तो जदयू को साल 2009 के लोकसभा चुनाव में 24.04 प्रतिशत वोट मिले थे। वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव जदयू ने अकेले लड़ा था, तो उसे महज 15.8 प्रतिशत वोट मिले थे, जो पिछले चुनाव के मुकाबले 8.24 प्रतिशत कम थे। वहीं, साल 2019 के लोकसभा चुनाव में जदयू को 22.26 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे, जो पिछले चुनाव के मुकाबले 6.22 प्रतिशत अधिक थे। इस बार के लोकसभा चुनाव में जदयू को 18.52 प्रतिशत वोट मिले, जो वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले लगभग 4 प्रतिशत कम थे।
एक बड़ा वोट बैंक जदयू के साथ क्यों है
ऊपर बताये गये आंकड़ों से पता चलता है कि थोड़े-बहुत अंतरों के बावजूद जदयू के पास अपना एक मजबूत वोट बैंक है। मगर, सवाल ये उठता है कि सार्वजनिक तौर पर अलोकप्रियता के बावजूद जदयू के पास ऐसा क्या है, जो हर बार उसे बिहार में एक महत्वपूर्ण कारक बना देता है और क्यों एक बड़ा वोटर वर्ग पार्टी के साथ जुड़ा हुआ है।
दरअसल, नीतीश कुमार का वोट बैंक गैर यादव ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग), अतिपिछड़ा वर्ग, मुस्लिम और महिला हैं, जो अब भी नीतीश कुमार के साथ बने हुए हैं। हाल के समय में जदयू ने यादव वोटरों को भी आकर्षित किया है, जिसके चलते पार्टी के दो यादव उम्मीदवारों दिनेश चंद्र यादव और गिरधारी यादव ने लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज की। वहीं, अतिपिछड़ा वर्ग से तीन उम्मीदवारों ने कामयाबी हासिल की।
अतिपिछड़ा, दलित, महिलाओं का जदयू के साथ जुड़ाव को राजनीतिक विश्लेषक राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति से जोड़कर देखते हैं।
राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, “राजद खुद को नये तरीके पेश कर गैर मुस्लिम व गैर यादव वोटरों को भी लुभाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन आम लोगों का अब भी यही मानना है कि राजद मुस्लिम-यादव की पार्टी है और इसी के चलते एंटी-मुस्लिम व एंटी यादव ध्रुवीकरण होता है।”
“राजद की कवायदों से यादव व मुस्लिम तो राजद के करीब आ जाते हैं, लेकिन दूसरे वर्ग के वोटर नहीं जुड़ पाते हैं। खासकर अतिपिछड़ी जातियां, अनुसूचित जातियां व महिलाएं राजद के साथ सहज महसूस नहीं करते हैं और इसलिए वे जदयू के साथ जाना पसंद करते हैं,” उन्होंने कहा।
इसके अलावा नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की शाषण प्रणालियों की भी अहम भूमिका है।
लालू प्रसाद यादव जब मुख्यमंत्री बने, तो उनका फोकस सामाजिक न्याय और सेकुलरिज्म पर था। उन्होंने अपने शासनकाल में दंगे रोकने और दलितों व पिछड़ों को सामाजिक तौर पर सशक्त करने का प्रयास किया, लेकिन आर्थिक तौर पर सशक्तीकरण पर बहुत जोर नहीं दिया।
इसके उलट नीतीश कुमार जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने शासन और विकास को कोर इश्यू बनाया। नीतीश कुमार ने दलितों व पिछड़ों को आर्थिक तौर पर सशक्त करने पर फोकस किया। साथ ही स्कूली बच्चियों के लिए साइकिल योजना शुरू कर महिलाओं को भी सशक्त किया।
“आप राजद व भाजपा की रैलियों में उतनी संख्या में महिलाओं को नहीं देखेंगे, जितनी बड़ी संख्या में उन्हें जदयू की सभाओं में देखा जा सकता है। महिलाएं व अतिपिछड़ा वर्ग, इन दोनों ही पार्टियों के साथ सहज नहीं हैं। इन्हीं वजहों से ये वर्ग अब भी जदयू के साथ जुड़े हुए हैं,” महेंद्र सुमन ने कहा।
इसके अलावा एक और वजह भी है, अतिपिछड़ा व दलित वोटरों के जदयू के साथ जाने की। इस रिपोर्टर ने लोकसभा चुनाव के वक्त कई इलाकों में जाकर दलितों व अतिपिछड़ा वर्ग के वोटरों से बात राजद के प्रति उनका नज़रिया जानने की कोशिश की थी। बातचीत में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि राजद को वोट देने से पार्टी मजबूत होगी, तो यादवों की गुंडई बढ़ जाएगी और वे उन्हें परेशान करेंगे, इसलिए वे किसी भी कीमत पर राजद को वोट नहीं करेंगे।
दलितों व अतिपिछड़ों में फैले इस डर से राजद नेता तेजस्वी यादव भी वाकिफ हैं इसलिए वे अक्सर अपनी सभाओं में यादवों से अपने मोहल्ले के दलितों, अतिपिछड़ों से मिलकर उनकी मदद करने, मुसीबत में उनके साथ खड़ा होने को कहते हैं। मगर लगता है कि इन अपीलों का जमीन पर असर नहीं हो रहा है। इन वर्गों में यादवों का डर अब भी बना हुआ है। जानकारों की मानें तो यही डर उन्हें नीतीश कुमार के करीब ले जाता है।
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