किशनगंज नगर क्षेत्र से करीब 13 किलोमीटर दूर कोचाधामन प्रखंड अंतर्गत अलता एस्टेट में 200 वर्ष पुरानी एक मस्जिद और उसके ठीक सामने एक ईदगाह है। 4 गुम्बदों की मस्जिद के आसपास कई तालाब भी दिखते हैं। 3 गुम्बद मस्जिद की इबादतगाह (प्राथना करने वाला हॉल) की छत पर है। मस्जिद के मुख्य द्वार पर एक हुजरा नुमा छोटा सा कमरा है जिसके ऊपर मस्जिद का चौथा गुम्बद है। मस्जिद की बनावट किशनगंज के महीनगांव और सिंघ्या एस्टेट स्थित मस्जिदों जैसी है, लेकिन मुख्य द्वार पर चौथा गुम्बद अलता एस्टेट की मस्जिद की बनावट को ज़िले के दूसरी प्राचीन मस्जिदों से जुदा करता है।
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मस्जिद के सामने ईदगाह की दीवार है, जहां आज भी ईद की नमाज़ पढ़ाई जाती है। स्थानीय निवासी और एस्टेट का ज़मींदारों के वंशज मुज़फ्फर कमाल सबा ने बताया कि अलता एस्टेट की इस ईदगाह में आधा दर्जन से अधिक गांव के लोग ईद की नमाज़ अदा करने आते हैं। उनके अनुसार, चूँकि यह ईदगाह आसपास के इलाके की सबसे पुरानी ईदगाह है इसलिए आस पास के कसबे के लोग सालों से यहां ईद की नमाज़ पढ़ने आते रहे हैं। अलता एस्टेट में मस्जिद और ईदगाह के अलावा इतिहास बताने वाली और कोई इमारत नहीं बची है। मस्जिद की दाईं तरफ वज़ुखाने में उतरने के लिए सीढ़ियां दिखती हैं, जो अब पूरी तरह से जर्जर हो चुकी हैं।
सीढ़ियों से उतर कर तालाब में लोग वज़ू किया करते थे। अब वह तालाब काफी हद तक सुख चूका है। इसके अलावा मस्जिद से थोड़ी दूरी पर घांस और बांस की लकड़ियों में दबा एक संदूक दिखा। मुज़फ्फर कमाल सबा से खुले मैदान में पुराने संदूक का माजरा पूछा, तो उन्होंने बताया कि सालों पहले इसी जगह पर एक महल नुमा इमारत हुआ करती थी। लोहे की इस संदूक की बनावट चुरली एस्टेट में रखी संदूक जैसी थी, जो करीब 200 वर्ष के बाद भी अभी तक सही सलामत अपनी जगह पर रखी हुई है।
अलता एस्टेट मस्जिद की बनावट और इसका इतिहास
अलता एस्टेट के बारे में इंटरनेट पर जानकारी का भारी अभाव है। गूगल पर अलता एस्टेट ढूंढ़ने पर इटली देश के ऐल्टा शहर की जानकारी निकल कर आती है। अलता एस्टेट के संस्थापक अतूफत खान के जीवन पर आधारित कविताओं की पुस्तक “अतूफत नामा” में अलता एस्टेट से जुडी कुछ अहम जानकारी मिलती है। मोहम्मद मुराद हुसैन द्वारा लिखी गई किताब अतूफत नामा में अतूफत अली को अलता एस्टेट का शहंशाह खिताब किया गया है। इसके अलावा किताब में मस्जिद के निर्माण और ईदगाह की रौनक का ज़िक्र किया गया है।
अतूफत अली की तीसरी पीढ़ी के वंशज से ‘मैं मीडिया’ की बातचीत में कुछ रोचक जानकारियां सामने निकल कर आईं। मुज़फ्फर कमाल सबा ने बताया कि उनके परदादा अतूफत अली अठारवीं सदी के मध्य में किशनगंज में ही स्थित हसन डूमरिया इलाके से अलता आए थे। उस समय मुग़ल शासन का दौर था, मगर ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल और बिहार में अपने पैर पसार लिए थे और इन ऐस्टेटों से कर वसूला करते थे।
मुज़फ्फर कमाल सबा के अनुसार, 1790 में अलता एस्टेट की प्राचीन मस्जिद की बुनियाद रखी गई थी, जो 1800 के दशक में मस्जिद की शक्ल में तैयार हुई। मस्जिद की दीवारों पर मस्जिद की स्थापना की तारीख लिखी गई थी, जो अब मिट चुकी है।
मस्जिद की बनावट बंगाल रियासतों में बनी दूसरी मस्जिदों जैसी है। ऐसी मान्यता है कि अलता एस्टेट की मस्जिद तैयार करने वाले कारीगर ढाका रियासत से आए थे। इस आकार की मस्जिद किशनगंज के पुराना खगड़ा और क़ुतुबगंज हाट में भी मौजूद हैं।
अलता एस्टेट जिस इलाके में है, वहाँ अक्सर बाढ़ की समस्या होती रहती थी, यह देखते हुए मस्जिद और ईदगाह को थोड़ी ऊंचाई पर बनाया गया था। मुजफ्फर कमाल ने बताया कि 2017 में आए सैलाब में बाकी इलाकों के डूबने के बावजूद मस्जिद के आसपास पानी नहीं आया था। अब मस्जिद की बाहरी दीवारें और सीढ़ियां जर्जर हो चुकी हैं।
अलता एस्टेट के संस्थापक अतूफ़त अली ज़मींदार के साथ साथ ईस्ट इंडिया कंपनी के फौजदार थे और पूर्णिया के ‘बोर्ड ऑफ़ मेंबर्स’ में भी शामिल थे। ‘अतूफ़त नामा’ पुस्तक में उन्हें “आनररी मजिस्ट्रेट” कहा गया है। अतूफ़त अली के वंशज मुज़फ्फर कमाल ने हमें उनके परदादा अतूफ़त अली का एक पुराना बैज दिखाया जिसमें अंग्रेजी में ‘इलाकाई कचेहरी अलता, ज़मींदार अतूफ़त अली’ लिखा है। मुज़फ्फर के अनुसार यह बैज उन्हें कुछ सालों पहले तालाब की खुदाई के समय मिला था। इस बैज के अलावा ज़मींदार अतूफ़त अली को एडवर्ड VII का एक मेडल भी मिला था। एडवर्ड VII मेडल ब्रिटिश सरकार के अंदर आनेवाली रियासतों के सबसे अहम ओहदेदारों और ब्रिटिश सेना के प्रमुख कमांडरों को दिया जाता था। यह पुरस्कार अंग्रेजी राजा और भारतीय उपमहाद्वीप के ‘एम्पेरर’ राजा एडवर्ड के नाम पर दिया जाता था।
मुज़फ्फर कमाल ने हमें एक ईरानी मुद्रा का सिक्का भी दिखाया। ऐसा माना जाता है कि मुग़लों के दौर में ईरान और बाकी अरब देशों से व्यापार के लिए जो विदेशी भारत आते थे वे उत्तर-पूर्वी भारत के सफर में किशनगंज से होकर आगे की तरफ निकलते थे। ऐसे में इस बात की संभावना जताई जाती है कि विदेशी मुसाफिर रात ठहरने के लिए एस्टेट में आते थे क्योंकि ये व्यापरी सरकारी ऐस्टेटों में खुद को अधिक सुरक्षित महसूस करते थे। उस समय बड़े बड़े व्यापारी मध्यपूर्व के देशों से भारत में आकर मसालों की खरीदारी करते थे।
‘अतूफ़त नामा’ पुस्तक में अलता एस्टेट में विदेशी व्यापारियों का ज़िक्र तो नहीं मिलता लेकिन एक शेर में ज़मींदार अतूफ़त अली को “शान ए खुरासान” लिखा गया है। खुरासान ईरान के एक शहर के नाम है। ऐसी धारणा है कि अतूफ़त अली ने उस दौर में ईरान का सफर किया होगा या उनके ईरानी दोस्तों ने उन्हें यह उपाधि दी होगी।
अलता एस्टेट में सूफ़ी शिक्षण और दुर्गा मंदिर का इतिहास
अलता एस्टेट के ज़मींदार अतूफ़त अली के एकलौते बेटे अली मुज़फ्फर के चार बेटे थे। अली मुज़फ्फर के एक बेटे और वर्तमान में कमालपुर पंचायत के सरपंच निशात मुज़फ्फर ने ‘मैं मीडिया’ से बताया कि अलता एस्टेट में पढ़ाने लिखाने का रिवाज खूब प्रचलित था। उनके अनुसार, अलता एस्टेट में स्कूल के साथ साथ मदरसे और धार्मिक विषयों की पढ़ाई होती थी।
“अलता एस्टेट तालीमी मामलों में काफी जागरूक था। यहाँ एक ख़ास प्रचलन हुआ करता था कि एस्टेट के द्वारा गाँव वासियों को खाना खिलाया जाता था। रोज़ाना एक तयशुदा समय पर एस्टेट में घंटी बजाई जाती थी और उस घंटी बजाने की आवाज़ से मुसाफिर और आसपास के लोग खाना खाने आते थे। इसके अलावा एस्टेट में एक अपना कोर्ट हुआ करता था, जहां लोगों की समस्याओं का समाधान कर उन्हें इंसाफ दिया जाता था।”
निशात मुज़फ्फर के भतीजे और ज़मींदार अतूफ़त अली के परपोते नसरूल मिनल्लाह ने बताया कि अलता एस्टेट में शिक्षा का बहुत माहौल था। उन्होंने कहा कि उनके पिता मुज़फ्फर हसनैन ने अतूफ़त नामा का विस्तार लिखा था, जिसमें उन्होंने स्कूल और मदरसों का ज़िक्र किया था। निशांत मुज़फ्फर के अनुसार अलता एस्टेट में सूफी सांस्कृति का माहौल था। एस्टेट में धार्मिक विषयों की क्लास लगती थी, जिसमें बाहर के ज़िलों और राज्यों से शिक्षक आकर धार्मिक दर्स दिया करते थे। कहा जाता है कि इस सूफी क्लासों में बहुत दूर दूर से लोग आते थे। नसरूल मिनल्लाह ने बताया कि अलता एस्टेट में अरब से दर्स लेने आए एक परिवार के वंशज आज भी अलता एस्टेट में रहते हैं। अतूफ़त अली के बेटे अली मुज़फ्फर का मज़ार बिहार के मनेर शरीफ में हैं। पटना से सटे मनेर शरीफ़ सूफ़ी संतों के मज़ारों के लिए बहुत विख्यात है।
मुज़फ्फर कमाल सबा और नसरूल मिनल्लाह ने साझा तौर पर जानकारी दी कि अलता एस्टेट की तरफ से अलता मीडिल स्कूल, अलता हाट अस्पताल और कन्या विधालय के लिए ज़मीन दी गई थी। इसके अलावा आज़ादी के बाद लाल कार्ड बनाकर गांव वासियों को ज़मीन दान की गई थी और दिघलबैंक के कुछ इलाकों में हज़ार एकड़ ज़मीन बिहार सरकार को भूदान के तौर पर दी गई थी।
अलता एस्टेट अंतर्गत अलता हाट में मौजूद दुर्गा मंदिर जिस ज़मीन पर स्थित है, वह ज़मीन ज़मींदार अतूफ़त अली के बेटे अली मुज़फ्फर ने दी थी। करीब 8 दशक पुराने इस अलता हाट दुर्गा मंदिर में दुर्गा पूजा में कई गांवों से श्रद्धालु आते हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार, अली मुज़फ्फर 1956 तक दुर्गा मंदिर की देख रखे में अहम योगदान देते रहे। 1956 में उनका देहांत हो गया था। ‘अतूफ़त नामा’ में अलता हाट का ज़िक्र किया गया है और उस हाट को “छोटा हिन्दुस्तान’ कहा गया है।
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